पोता
लेखक ः सरण राई
अनुवादक ः श्याम प्रधान
लोग खुदको और खुदके जिस्म के अंगो को देखकर भी रोता है । लोग कितने नरमदिल लिए जीता रहता हैं । जीवन में आई हुई कैसी–कैसी विपत्तियों की आँधी बर्दाश्त करं गंम को बर्दाश्त किया है । उफ तक नहीं की । हार नहीं मानी । डटकर मुकाबिला किया, रोने वालो नामर्दो में मैं नहीं, कहा । लेकिन आज अचानक मैं अपने हाथाें को और अपने जिस्म को देखकर, निहारकर सिसकियां ले रहा हुँ ।
हाथें आँखो के सामने है । चालीस वर्ष पहले बाबुजी की और मेरे हाथो में कोई फरक नही है, चमडंी सलवटें ली हुइ, लटकी हुई जैसी र्है । जवान हाथोंं की खुबसुरती खो गई है । मैं बाबुजी को याद करता हुं । आईना देखता हुँ, बाबुजी की और मेरे चेहरे में बहुत सी समानताएं पाता हुँ यानि कि मेरा चेहरा भी बूढे बाबुजी की ही जैसी हो गई है । मुझे बाबुजी बडे प्यारे लगने लगते हैं, और बाबुजी जैसे बूडढा हुआ खुद से सहानुभूति करने चला हुँ । मै बुढ्ढा हो गया हुँ । अल्याश१ यह मेरी जीन्दगी में पुरापुर दाखिल हो चुकी हैं ।
बृद्धाबस्था ।
बृद्धावस्था में शारीरिक असमर्थता और अकेलेपन जुडंवा जैसे साथ साथ रहते हैं ।
पहुँचना कही नही हैं मंजिल नहि हैं, पर चलते ही रहना है । मिलने वाली कोई नई प्राप्ती नही हैं, सामर्थ नहीं हैं पर प्रयत्नशील होते रहना । जीवन के अवसान के करीब पहुँचने की परिस्थति, खुबसुरती, शक्ति, मर्दानंगी, हिम्मत, जोश याने कि जीवन की खुबसुरतीयाँ दूर होती हुई, मृत्यु के करीब पहुँची हुई अनुभूति और यह जंद्दोजंद मन । इतनी खुबसुरत दुनियाँ छोड कर चले जाने वाली भावनाओं से मिली पीडा, इस संसार की ही, जीवन की ही चलन, रित और नियम है । यहाँ कोई भी जिंदे लोग हमेशा जिंदारह नही पाते हैं । मौत की पूर्व अनुमान कितनी पीडादायक है, दिलसहम जाता है । मरना ही है, जाना ही हैं इस धरती को छोडकर । मेरे बाबुजी मर चुके, अम्मा मर चुकी, अगली पुस्त के सब मर चुके । अब मरने की पारी मेरी इस वर्तमान पुस्ते की । भावी पुस्ते के लिए जगह जो खाली करनी हैं । फिर से एक जनम या दुसरा जुडंकर एक और जीवन जीने को मिले ........ मैं कल्पना करता हूँ । पर किसी को भी दो बार जीने को मिला है क्या? मैं भी डुबती सुरजका हिस्सा, बुझती हुई दिया समान हों चुका हू । मुझे भी ......... जाना ही होगा ।
दैत्य समान अकेलेपन से पैदा हुई परिवेश में मन ही मन मैं मृत्यु से डर–डरकर अकेले ही मन के भितर ही भितर सिसकिंया लेने के वक्त मेरा पोता ‘आं ........ आं .....’ अभी अभी फुटती हुई अस्पष्ट जुबान से बोलते हुए चल कर आता है और मेरी गोद में लिपट जाता है । मेरे मानसिक धरातल में दिखने लगी काले अँधेरे बादल खुलकर चमकती हुई रोशनी मेरे मन के आयतन में घिर जाती हैं । भुल जाता हुँ अपने वृद्धावस्था को, अकेलेपन और खालीपन को और फिर चमक देखने लगता हुँ, भावी सन्तान के प्रतिबिम्बित रुप अपने पोते के चेहरे में ।
पोता१
मेरी ही जिन्दगी की निरंतरता नही हैं क्या? मेरे बाद बेटा, बेटे के बाद पोता, पोता के बाद पर पोता इत्यादि इत्यादि.... मेरी ही जिन्दगी की निरन्तरता है ऐसा सोचने लगता हुँ । मेरे अंदर ही अंदर से चमकती हुई रोशनी निकलती हैं । आँसु आँखो मे खो जाती हैं । बाबुजी की शक्ल से मैं खुद और मैं खुद के बाद पोते के मासुमियत में तफदिल हो चला हुँ, जानकारी बिना ही ....... । मैं न रहुँ फिर भी मेरा हिस्सा, बाकी या संतान इस धरती में रहेगा ही । मेरे अँदर एक प्रकार की मीठी भाव, उत्साह, प्रसन्नता और गौरव प्रस्फुटन होती है ।
पोता ? कुछ बरस पहले तक मुझें ‘दादा’ कहकर बुलाते हुए बिल्कुल भी अच्छा नही लगता था । मेरे एक मित्र को भी वैसा ही होता था बताते थे, ‘दादा’ संवोधन सुनते वक्त रौंए खडें होने वाली वात अपने संस्मरण मे लिखा है । लेकिन वास्तविक रुप में पोता–पोतीयां के पैदा होने के बाद ‘दादा’ संबोधन भी खुबसुरत और स्वाभाविक सी लगने लगी थी ।
मुझे पोती हमेशा कहती हैं, “दादा, दादा ।” इस संबोधन में एक रिश्ता है, जिससे वंश की वृक्ष घनी होने की संकेत देती हैं । इससे मैं सन्तुष्ट हुँ । पोता पैदा होने के बाद तो पोता–पोतियों के अबोध बालसंसार में मैं रमने और पसंद करने लगा हुँ । काफी वरस पहले से गाना छोडा हुआ गाने फिर लयबद्ध आवाज में मेरे गले से तंरगित हो चला है । मैं अब भी गा सकता हुँ, पोते– पोतियों के अबोध बालसंसार में जवानो के जैसा गाने के सँग नाच भी सकता हुँ । मजे करता हुँ और याद करता हुँ । और फिर से मधुर जीवनका पुनरागमन होता है । पोते–पोतियों वाकई प्यार के काविल होते हैंँ, इसीलिए लोग मूलधनसे ज्यादा ब्याज प्यारा कहते हैं ।
मैं अपने पोते–पोतियों को संसार मे सबसे सुखी होता हुआ देखना चाहता हुँ । उन लोगो को जब मेरा बेटा बहुत पीटकर रुलाते, डाँटते, बुरा लगता हैं और मन के अंदर पता नही क्या–क्या सा हो जाता है । बेटा–बहुओं को डाँटते हुए मैं उन बच्चो को गोद में खिलाकर, उठाकर पुचकारने लगता हुँ । वह सब भी मेरे आड भरोसे का सहारा पाकर मेरे सीने सें चिपक जाने हैं , उस वक्त मैं सारा संसार भुल जाता हूँ । अपना ही रोग, शोक, पीडा और अपनी अवस्था भी भुल सा जाता हुँ । समझता हूँ संसार के सबसे सुखी आदमी मैं हु, जिसके कली समान पोते–पोतियाँ हैं ।
वक्त को कौन रोकने, बाधा उत्पन्न करने या वश में ही कर सका है? मैं वह नन्हे पोते–पोतियों के सँग अनंत काल तक खेल सकुं (?)वह लोग इतसे ही बडे और हमारा आत्मीय मजा कौतुकमय, क्रीडा हमेशा रही रहे । वह लोग हमेशा मुझ से खेलते रहे । मन आनन्द से हराभरा रहे, पर वैसा होता नही हैं ।
हम दादा–दादी लोगोको उन सबों को देखने के वक्त भरपुर खुशियाली होती थी । सम्पूर्ण सांसारिक मुश्किलें भुगतने को तैयार थे हम । वक्त के साथ मेरी प्यारी बीबी ने भी मेरा साथ छोड दिया । उनकी मौत की असहमय (असह्य)वेदना भी पोते–पोतियां का चेहरा देख कर वर्दाश्त कर गया । मुझ पर बूढापे की असमर्थता के साथ–साथ बहुत से रोग भी जुड गए । मैं परिवार के बीच में रहकर भी नितांत अकेला अकेला होता जा रहा हुँ । मेरे घर के अंदर की मेरे प्रमुख की शासन, डगमगाती हुई, हैकमभी समाप्त हो चली है मेरी सामाजिक, आर्थिक,सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियाँ भी तेजी से कम होती जा रही हैं । अब प्राय ः घर के बाहर की ऐसी क्रियाकलाप वगैरा शून्य सी हो चुकी है ।
कभी किसी वक्त दोस्तों का आना–जाना रहता था । घरमें मेरे दोस्तों कोउचित सम्मान, मान और आतिथ्य होनी बंद हो गई है । मैं अभी दोस्तों को यहाँ जाना छोड चुका हुँ । मुझे लगता हैं, पहले की तरह मैं भी किसी का मेहमान होने के वक्त खातिरदारी, स्वागत सत्कार होना बंद हो चुका है और में अपने कमरे के सन्नाटे में रहने का आदि हो चुका हुँ ।
जाउँ भी तो कहाँ?कर ही मैं क्या सकता हुँ? मैं चाहता हुँ खुद की हड्डी–चमडी घीसकर नजाने कितनी मुस्किलो कोसाथ पला हुआ मेरा बेटा उसको हर किसिम से मद्दत करुँ । लेकिन शारिरिक अशक्तता बाधा करती है । मैं चाहता हूँ बहुते से दशकों की लम्बी मेरी जिन्दगी के अनुभवों से मिली ज्ञान, शिल्प और समस्या समाधान के उपाय, मशंवरा, सुझाव वगैरा देकर पारिवारिक और अन्य समस्याओं मैं मैं सहयोगी बन सकुँ । पर मेरे जमा किए हुए अनुभव शिक्षा और मशंवरा कोई सुनना नही चाहता है, ‘तब की बात गई ।’ मैं उपयोगिताविहिन बुढ्ढा मेरा मशवरा सुझाव उन लोगो को अनावश्यक हस्तक्षेप जैसा लगता है । शायद यही ‘जेनरेसन ग्याप’ होता होगा ।
घर खर्चे दिन प्रतिदिन बढने लगी हैं ।महगांई का जमाना, फिर भी कुछ तो तडकभडक करना ही पडता हैं । दोस्त–याराें से कम भी नही रहना है । पार्टी, क्लब, शादी विवाह, बिजली, पानी, टेलिभिजन चेनल की महसुल, स्कूल की फिस और बहुत से खर्चे ....... मुझे भी पता है, झेल सकना मुश्किल हैं्र । कोने में बैठकर टुकुर–टुकुर देखने के सिवाय मैं कर ही क्या सकता हुँ ।
घर के खर्चे चलाने से लेकर घर के सभी निर्णय करते वक्त अब मुझसे नहीं पुछा जाता है । अब वैसे विषयों के साथ मेरा कोई सरोकार नही हैं । मैं कमरे मे बैठकर किताबें दोहराकर–तेहराकर पढते रहता हूँ । कहानी समझ सकने वाली पोती के आने पर तिलस्मी कहानियां पञ्चतन्त्र और इसपनीति की कहानियां सुनता हूँ । कहानी सुनाने में मुझे बडां मजा आता हैं । कहानी की प्रवाह खांसी की वजह से बीच बीच की रुकावट पर पोती खींझ सी जाती हैं ।
दद्दु के बगल में मत जाओ, खाँसी औरअन्य बीमारियां का संक्रमण हो सकती हैं” बहु ने पोती को कहते हुए फटाक से मैंं सुनता हुँ ।मन में तीर सी चुभने पर भी मैं अनसुना कर जाता हुँ । प्रतिकार करने की क्षमता मुझमें अब न रहा ।
“मैं घर में ही रहुँगी, दद्दुको छोडकर नहीं जाउँगी ।” चिल्ला रही थी पोती । बस्ता, सन्दूक और कुछ सामान के साथ जबरदस्ती मेरी बडी पोती को बोर्डिङ्ग स्कूल में बोडर्स में भेजा जा रहा है । उसकी चिल्लाहट से अचानक ही मेरी आँखे नम हो गई, बेचारी ......... मेरी नन्ही दोस्त भी मुझ से अलग हो गई ।
पोती की कमी पोता पुरा कर रहा होता हैं । वह मेरे कमरे में आकर बालसुलभ ढेर सारी बदमाशीयां करता है, मेरी पुरानी किताबें, कौपी को फाडना, चश्मा खराब कर देना, विस्तर में पेशाब कर देना इत्यादि बदमाशिंया । वह शैतानियाँउसके साथ खेलते, बैठते और हँसते बक्त मिलने बाली खुशी के सामने कुछ भी नही । वह मेरे साथ रहता खेलता और हंसता हँै । मैं उसको बहुत ही प्यार करता हुँ । वह मेरे साथ रहने के वक्त मैं सारा चील भुल जाता हुँ और चाहता हुँ वह हमेशा मेरे साथ बैठारहे, खेलता रहे । उसके साथ रहते हुँए, मुझे अपूर्व आनन्द मिलती जो खुशी हरएक दादाजी लोगो ने मात्र अनुभव किया होता हैं्र । वह अनुभव दादा होने बाली उमर तक जीने बाले मात्र प्राप्त करते हैं । मैं भी दादा हो पाने की वजह से गौरवान्वित होता हुँ और मेरे होठों मे मुस्कुराहट दौड पडती हैं ।
बेटे को बुलाकर हम दोनो की बहुत सारी पोज की फोटोएँ खिंचने को कहता हुँ । हम दोनो की ‘मूभी’ भी वह खिचता हैं । कमरा में ही उन फोटोओं को देखकर मैं फूला नहीं समाता हुँ । कहा “यह तस्वीरे प्रिंट कर के ला दो ।”
“मैं कम्प्यूटर में सेभ कर दुँगा । बाद मे एक साथ ही प्रिंट करवाएँगे ।” बेटा का जवाव था । पर उन तस्वीरों को मैं प्रिंट होता हुआ देख नही पाया हुँ ।
वक्त तो हवा की तरह नदी की तर या वक्त की तरह वहती ही रहती है । लैंडस्लाइड जैसी ढलती मेरी वृद्धावस्था दिन पर दिन और और ढालु की तरफ ढलती जा रही हैं । मैं कल से आज, आज से कल और पर और असथर्म, अशक्त और दयनीय वनता जा रहा हुँ । खेलने बोलने और मजाक करने बाले दोस्तो का न होना बूढापे में मुस्किल की स्थिति होती हैं, ऐसा महसुस मेरा पोता मोन्टेसरी के प्लेगु्रप में एडमीशन होकर पुरा दिन उधर ही बैठने पर होने लगा है । शनिवार छुट्टी के दिन में मात्र उसके साथ खेल पाता हूँ । उसके साथ मेरे खेलनेकी लालसा भी अधुरी होने लगी थी ।
एक दिन अचानक मेरे लिए नई पोशाक लेकर बेटा–बहु मेरे कमरे में आते हैं । मुझे “नई पोशाक फिट हुआ,नहीं हुआ, पहनकर ट्राई करने को कहा । मैं फुला न समाया, मेरा भी बेटा–बहु खयाल रखने लगे हैं ।
“बृद्धाश्रम, बाल आश्रम और हस्पिटलसब एक साथ हुए, ‘मानवसंसार’ उपयुक्त वृद्धाश्रम है, वहाँ रहने बाले बूढे लोगो को किसी किस्म की तकलीफ, पीडा भोगना नही पडता हैं । बेटा कहता हैं ।
पिताजी की थोडी सी आने वाली पेन्सन से मात्र वहाँका शुल्क चुकाकर रहन कम पडने की वजह से हरेक महिना कम पर्ने वाली अमाउण्ट जम्मा करवा दुँगा । सब बन्दोबस्त मिलवा चुका हँ ।”बहु उपर से कहती है ।
मै नौकरी के सिलसिले मे कभी कही–कभी कही जाना पडता रहता हैं । बहु को भी छोटी मोटी नोकरी मिली है । घर में पिताजी की देखरेख करने वाला कोई नही हैं । मानव संसार वृद्धाश्रम ही पिताजीके लिए ठीक रहेगा यह फैसला किया गया । कल से ही पिताजी को वहाँ रहना होगा, हम लोग आपको सबेरे ही पहुँचा देंगे । बेटा का फरमान ।
कितनी आसानी के साथ कह डाला उन लोगों ने । नए कपडे का मतलब साफ हुआ । मैं आसमान से गिरा । अब मेरा भी यह घर छोडने का वक्त आ गया है । मेरे मानने वा नमानने का कोई मायना नहोने ही की वजह से वह लोग मुझे वृद्धाश्रम भेजने का निर्णय कर चुके हैं । मेर अन्दर १२ रेक्टर स्केल की भूकम्प लाने वाली निर्णय सुनाकर वह लोग वाहर जा चुके हैं ।
आह १ यह घर, यह कमरा । कितनी मेहनत करके अपनी और पत्नी की पसन्द के मुताबिक यह घर बनाया था । इसी घर में हम लोगो ने वेटा–बेटियों को वडा किया । वह लोग आज स्वावलम्बी हो चुके हैं और मुझे अपनी निर्णय लादने की सक्षमता दिखा चुके हैं । यह आधुनिक युग का पैदा किया हुआ यांत्रिक, सांस्कृतिक और सामाजिक प्रचलन है क्या? अब मेरा वनाया हुआ इस घर को ‘मेरा है’ कहकर इसी में रहने की जिदं नहीं कर सकता । बेटा बहु के आदेश को जो हुकम करने के अलावा मेरो पास कोई दुसरा जरिया नही हैं ।
यह मेरा घर, मेरा कमरा, मेरी पलंग । कल से मेरे साथ यह कुछ भी रहने वाला नही हैँ । मैं इस घर में नही हुँगा । कई दशकों तक सुख, दुख के साथ पत्नी के सँग बिताया, हुआ यह पलङ्ग मेरे साथ नही रहेगा । हाय १ जीवित अवस्था में रहने के वक्त पत्नी कोे पुचकारतेहुए जैसै कमरे की दिवाल, पलंग, के अगल बगल सब तरफ पुचकारता हुँ । शैलानी अन्तिम वक्त में बिदाई माँगते हुए डबडबडाए आँखो से सबको देखके जी भरने तक मैं आज कमरा, पलंङ्ग और घर की सारी चीजों को देखता हुँ । आँखो से आँसुओ की नहर वहती है पर यह आँसुओकी क्या कीमत है? कमरे की सारी चिजों को छु–छुकर चुमता हुँ, अर्धविक्षिप्त जैसी सबको देखकर भावविहवल होता हुँ । मैं रातभर सो नही सका, सोचता हूँ–यह घर, कमरा और पलङ्ग का मेरा साथ आज तक ही रहेगा ।
रातभर मैं, मेरे और पत्नी की युगल तस्विर देखकर गुनगुनाते हुँए बातें करते रहता हुँ, “शोभना यहाँ का साथ आजतक ही रहा, तुम किस्मत वाली रही”, इस कमरे के पलङ्ग में मेरी गोद मे प्राण त्याग सकी । पर मैँ? तुम्हारे मृत्युवरण वाली पलङ्ग में मेरी भी प्राण जाए ऐसी चाहत थी । बदकिस्मत वाला मैं, मेरी उस छोटी सी चाहत को भी पुरा होने नही दिया ........... । ऐसे ही क्या क्या मैं मानों शोभना जिन्दा है जैसी उसकी तस्वीर के साथ रातभर बातें करता रहा । इस तरह गर मैं बाते न करता तो पागल हो सकता था या पागलो की तरह बातें करता रहता । मैं दिवाल में लटकी हुई हमारी युगल तस्विर निकालता हुँ और कल अपने साथ ले जाने का निर्णय करता हुँ और तस्वीर बाली शोभना से कहता हुँ, जिस जगह मैं मेरे जीवन की अन्तिम कालखण्ड में मैं रह नही पाया उस जगह हम लोगों की तस्विर की कोई इज्जत होनेवाली नहीं हैं ।”
मुझे ‘टोकरी’ लोककथा की याद आती हैं । वापने बूढे दादाजी को टोकरी में लादकर पहाडी की चोटी से दादाजी को फेंकने के वक्त पोता ने टोकरी लेकिन नफेंकना, वह टोकरी बाद में आपको फेंकने के प्रयोग मे आएगा कहा था और उस बाप के मन में सदबुद्धि जागकर दादा की जिन्दगी बची थी । उस कहानी कें जैसा मेरा पोता भी गर (अगर)बडा हुआ होता तो कहता कि “दद्दुको घर में ही रहने दो ।”
सबेरे मैं नयाँ कपडा पहनकर तैयार होता हुँ । बोर्डिङ्ग स्कूल जाने वाली मेरी पोती से भी कम सामानें गाडी में रखने के बाद बेटा–बहु भी बैठते हैं । मैं भी बैठता हुँ । पलट–पलटकर घर को देखता हूँ पर मेरा जी नही भरता हैं । सारी जिन्दगी बिताया हुआ इस घर का साथ छोडने पर मन–कलेजा मुँह को आता हैं ।
मृत्यु में सबसे अलग होना पडता है । पर मरने बाला व्यक्ति जो मर चुका होता है उसे कोई पीडाबोध नही होती हैं । पर मैं जिन्दा रहते हुए ही घर, परिवार और सबके साथ अलग हो रहा हुँ और मैं दर्दनाक पीडाबोध करने में विवश हुँ । जिन्दगी रहते हुए भी एक प्रकार से मेरी मृत्यु ही है जो मेरा सब–सब मुझसे छीनकर लिए जा रही है । मृत्यु में जैसे सब मुझसे विछड रहे हैं ।
“छुट्टी, मुझे और मेरे परिवार बालों को आश्रय देने वाला घर, अलविदा । मेरा बेटा, पोता परपोता, और सबों को शुम्भफाव्य हो ।” छुट्टी मांगता हुआ मेरा मन सबके कानो में आवाज पहुँचाते हुए कहता हैं ।
“बेटा मुझे पोतोंके साथ खिची हुई हमारी तस्वीर तो दो ।”
क्यों चाहिएँ आपको? वृद्धाश्रम की दिवालों में उसको टाँगने के लिए जगह नही है । आपको मिलने के लिए पोता–पोतियाँ आते रहेगें ना ।”
अब मेरी तस्वीर टांगने के लिए कोई दिवाल नहीं हैं । अब मुझे किसी तस्वीर की जरुरत नहीं है । मैं गाडी में बैठते हुए बेटा को अन्तिम बार पुछता हुँ,” सच्ची में मुझसे मिलने मेरा पोता वहाँ आएगा ना ।
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