Friday, August 29, 2025

ब्लैकबोर्ड, चाक और डस्टर

ब्लैकबोर्ड, चाक और डस्टर

 

लिखना, मिटाना, चाक की धूल में डूब जाना।
ब्लैकबोर्ड पर लिखते-लिखते उंगलियाँ खुद चाक बन जाती हैं।
बर्फ़ की तरह चाक की धूल बालों पर जम जाती है।
चैत्र की आँधी से उड़ती धूल की तरह वह चेहरे पर चिपक जाती है।

चाक की धूल से ढके चेहरे में सिर्फ़ दो आँखें होती हैं,
जो कक्षा भर घूमकर फिर ब्लैकबोर्ड पर टिक जाती हैं।
लिखे गए अक्षर मिट जाते हैं।
एक हाथ में डस्टर, दूसरे हाथ में चाक लिए
वह ऊँचे स्वर में पुकार रहा होता है,
और भी ऊँचे स्वर में, लगातार पुकार रहा होता है।

यह संसार है, हर किसी का एक छोटा संसार।
हर कोई अपने इस संसार को मधुर, सुंदर और भव्य बनाना चाहता है।
बर्फ़ पिघलती जाती है, पर हिमालय कभी खाली नहीं होता,
उसी तरह जीवन भी कल्पनाशून्य नहीं हो सकता।
बर्फ़ का पानी होना ही पड़ता है।

जीवन की सुंदरता है स्मृति,
और स्मृति सदा जीवित रहती है।
वह मनुष्य सबसे महान है
जिसे सबसे अधिक लोग याद करते हैं।

ब्लैकबोर्ड पर लिखे सुंदर अक्षर मिटा दिए जाते हैं।
कौन सोच सकता है—कुछ देर पहले वहाँ सुंदर अक्षर थे!
चाक भी जीवन की तरह है,
पूरा चाक चेतना में जीवित अर्थ को यथार्थ में बदलने के लिए
ब्लैकबोर्ड पर घिसते-घिसते छोटा होता जाता है।

जब वह इतना छोटा हो जाता है कि लिखना कठिन हो,
तो उसे दया भरी निगाहों से देखा जाता है,
जैसे कोई अधूरा सिगरेट का ठुटा,
जिसे मजबूरी में फेंकना ही पड़ता है।

वह चाक का टुकड़ा फेंक देता है,
पर उसे लगता है मानो वह स्वयं भी
उस चाक के टुकड़े की तरह फेंका गया हो।

वह अपने जीवन की तुलना चाक से करता है—
उसे कुछ समानताएँ मिलती हैं।
चाक का उद्देश्य पूरा हो चुका है,
पर उसका अपना उद्देश्य क्या है—वह समझ नहीं पाता।
भविष्य पर विश्वास रखने वाले विद्यार्थियों के चेहरों में
वह अपनी सृष्टि की छाया खोजता है।

वह ब्लैकबोर्ड पर खुद लिखे रेखाचित्रों को देखता है—
ब्लैकबोर्ड, चाक और डस्टर।
पर वह यह तय नहीं कर पाता कि
उसका अंत किस प्रयोजन के लिए हो रहा है।

कमरा, विद्यार्थी, खिड़की से दिखते हरे मैदान और वृक्ष
वह सब यूँ ही निहारता है,
मानो अपने ही विचारों में खो गया हो।
बगीचे में माली लगन से फूलों के पौधों की देखभाल कर रहा है।
फूल सबको प्रिय होते हैं,
पर फूलों से जुड़ा गरीब माली का श्रम और पसीना
उनकी सुंदरता में छिप जाता है।
अगर फूल की सुगंध में माली के पसीने की गंध आ जाए,
तो क्या लोग उन्हें उतना ही सुंदर मानेंगे?

कक्षा के एक कोने में विद्यार्थियों की धीमी बातचीत
उसे फिर से वास्तविकता में लौटा देती है।
कक्षा उसका संसार है—
और कहें तो उसका युद्धक्षेत्र।
उसके हथियार हैं—चाक, डस्टर, ब्लैकबोर्ड और आवाज़।
विद्यार्थियों की अज्ञानता उसका शत्रु है,
और उन्हें समझा पाना उसकी विजय।

वह फिर से पढ़ाना शुरू करता है।
पढ़ाते समय उसे लगता है—
वह नेता है, जो हजारों को अपने विचारों की ओर ले जा रहा है;
वह पिता है, जो बच्चों को ज्ञान के उपदेश दे रहा है;
वह अभिनेता है, जो रंगमंच पर खड़ा है।

उसे पूर्णता का अनुभव केवल तब होता है
जब वह कक्षा में खड़ा होता है।
उसके हाथ में चाक और डस्टर,
पीछे ब्लैकबोर्ड और सामने ध्यान से सुनते विद्यार्थी।
वह पीड़ाओं और अभावों से भरे वास्तविक संसार से
हजारों कोस दूर चला जाता है।


लिखना, मिटाना, चाक की धूल में डूब जाना।
ब्लैकबोर्ड पर लिखते-लिखते उंगलियाँ खुद चाक बन जाती हैं।
बर्फ़ की तरह चाक की धूल बालों पर जम जाती है।
चैत्र की आँधी से उड़ती धूल की तरह वह चेहरे पर चिपक जाती है।

चाक की धूल से ढके चेहरे में सिर्फ़ दो आँखें होती हैं,
जो कक्षा भर घूमकर फिर ब्लैकबोर्ड पर टिक जाती हैं।
लिखे गए अक्षर मिट जाते हैं।
एक हाथ में डस्टर, दूसरे हाथ में चाक लिए
वह ऊँचे स्वर में पुकार रहा होता है,
और भी ऊँचे स्वर में, लगातार पुकार रहा होता है।

यह संसार है, हर किसी का एक छोटा संसार।
हर कोई अपने इस संसार को मधुर, सुंदर और भव्य बनाना चाहता है।
बर्फ़ पिघलती जाती है, पर हिमालय कभी खाली नहीं होता,
उसी तरह जीवन भी कल्पनाशून्य नहीं हो सकता।
बर्फ़ का पानी होना ही पड़ता है।

जीवन की सुंदरता है स्मृति,
और स्मृति सदा जीवित रहती है।
वह मनुष्य सबसे महान है
जिसे सबसे अधिक लोग याद करते हैं।

ब्लैकबोर्ड पर लिखे सुंदर अक्षर मिटा दिए जाते हैं।
कौन सोच सकता है—कुछ देर पहले वहाँ सुंदर अक्षर थे!
चाक भी जीवन की तरह है,
पूरा चाक चेतना में जीवित अर्थ को यथार्थ में बदलने के लिए
ब्लैकबोर्ड पर घिसते-घिसते छोटा होता जाता है।

जब वह इतना छोटा हो जाता है कि लिखना कठिन हो,
तो उसे दया भरी निगाहों से देखा जाता है,
जैसे कोई अधूरा सिगरेट का ठुटा,
जिसे मजबूरी में फेंकना ही पड़ता है।

वह चाक का टुकड़ा फेंक देता है,
पर उसे लगता है मानो वह स्वयं भी
उस चाक के टुकड़े की तरह फेंका गया हो।

वह अपने जीवन की तुलना चाक से करता है—
उसे कुछ समानताएँ मिलती हैं।
चाक का उद्देश्य पूरा हो चुका है,
पर उसका अपना उद्देश्य क्या है—वह समझ नहीं पाता।
भविष्य पर विश्वास रखने वाले विद्यार्थियों के चेहरों में
वह अपनी सृष्टि की छाया खोजता है।

वह ब्लैकबोर्ड पर खुद लिखे रेखाचित्रों को देखता है—
ब्लैकबोर्ड, चाक और डस्टर।
पर वह यह तय नहीं कर पाता कि
उसका अंत किस प्रयोजन के लिए हो रहा है।

कमरा, विद्यार्थी, खिड़की से दिखते हरे मैदान और वृक्ष
वह सब यूँ ही निहारता है,
मानो अपने ही विचारों में खो गया हो।
बगीचे में माली लगन से फूलों के पौधों की देखभाल कर रहा है।
फूल सबको प्रिय होते हैं,
पर फूलों से जुड़ा गरीब माली का श्रम और पसीना
उनकी सुंदरता में छिप जाता है।
अगर फूल की सुगंध में माली के पसीने की गंध आ जाए,
तो क्या लोग उन्हें उतना ही सुंदर मानेंगे?

कक्षा के एक कोने में विद्यार्थियों की धीमी बातचीत
उसे फिर से वास्तविकता में लौटा देती है।
कक्षा उसका संसार है—
और कहें तो उसका युद्धक्षेत्र।
उसके हथियार हैं—चाक, डस्टर, ब्लैकबोर्ड और आवाज़।
विद्यार्थियों की अज्ञानता उसका शत्रु है,
और उन्हें समझा पाना उसकी विजय।

वह फिर से पढ़ाना शुरू करता है।
पढ़ाते समय उसे लगता है—
वह नेता है, जो हजारों को अपने विचारों की ओर ले जा रहा है;
वह पिता है, जो बच्चों को ज्ञान के उपदेश दे रहा है;
वह अभिनेता है, जो रंगमंच पर खड़ा है।

उसे पूर्णता का अनुभव केवल तब होता है
जब वह कक्षा में खड़ा होता है।
उसके हाथ में चाक और डस्टर,
पीछे ब्लैकबोर्ड और सामने ध्यान से सुनते विद्यार्थी।
वह पीड़ाओं और अभावों से भरे वास्तविक संसार से
हजारों कोस दूर चला जाता है।


“मुझे सरला की तरह फ्रॉक चाहिए, पापा।“मुझे नीली पैंट।”

“वो डॉक्टर ने जो दवा लिखी थी, उसे लाना मत भूलना।”

फ्रॉक, पैंट, दवा—अनगिनत ज़रूरतें।
सीमित और निश्चित वेतन, और इस भौतिकवादी संसार में
हर चीज़ को ठोस रूप दे पाना आवश्यक।

वह अपने परिवार से प्रेम करता है,
और उस प्रेम को फ्रॉक और पैंट में बदल पाना ज़रूरी है।
घर लौटने पर बीमार पत्नी खाँसते-खाँसते सो रही होती है।
दवा न मिलने पर चाय बनाने का सवाल ही नहीं उठता।
बूढ़ा पिता तम्बाकू न लाने पर गुस्से से भरा बैठा होता है।
बच्चों की बातें तो अलग ही हैं।

शिक्षक का बेटा पढ़ ही नहीं पाएगा क्या?
जानकर भी अनजान बनने का,
समझकर भी न समझने का नाटक करना पड़ेगा—
यही उसका वास्तविक संसार है।

ब्लैकबोर्ड पर बने चित्र को डस्टर से मिटा दिया जाता है।
वह फिर से लिख सकता है, फिर मिटा सकता है।
पर अपने माथे पर लिखे भाग्य को मिटा नहीं सकता।

कक्षा में वह चारों ओर विद्यार्थियों को देखता है—
मानो अपना खोया अस्तित्व खोज रहा हो।
कोई विद्यार्थी नोट्स लिखने में तल्लीन है,
तो कोई खिड़की से बाहर जाती युवतियों को देख रहा है।
सबका ध्यान आकर्षित करने के लिए वह और ज़ोर से चिल्लाता है।
चिल्लाना उसकी आदत बन चुकी है—
बड़बड़ाना, बेमतलब बोलते जाना।

वह ऐसे बड़बड़ाता है जैसे कोई पागल।
मानो झरने की तरह बोल रहा हो,
पर खुद ही अपनी बातें न समझ पा रहा हो।
पूरी कक्षा में हँसी का फव्वारा फूट पड़ता है।
वह स्वयं को मसखरा महसूस करता है।

सतर्क हो जाता है—कहीं सचमुच पागल तो नहीं?
वह अपने विषय को स्पष्ट करने के लिए
उदाहरणों का सहारा लेता है,
समझाता है, चिल्लाता है।
आवाज़ के उच्चतम स्तर तक पहुँचकर
उसे लगता है कि वह और बाजार में विज्ञापन करने वाले में कोई अंतर नहीं—
बस फर्क इतना है कि वह कमरे के भीतर चिल्ला रहा है,
और दूसरा बीच बाजार में।

बूढ़े शरीर में चिल्लाने से
शायद रक्त का संचार बढ़ जाता है,
और वह खुद को फिर जवान महसूस करता है।

उसे अपने विद्यार्थी जीवन की याद आ जाती है।
उसके सहपाठी कोई मंत्री बन गए,
कोई डॉक्टर, कोई उच्च अधिकारी।
और वह अब भी विद्यार्थियों के बीच
विद्यार्थी-सा ही दुखी है।

यहाँ तक कि उसके पढ़ाए हुए विद्यार्थी भी
आज बड़े अधिकारी बन चुके हैं,
बहुमंज़िला मकानों के मालिक हो चुके हैं।
पर उसकी हालत वैसी ही बनी हुई है।

आज उसे अपने विद्यार्थी जीवन की आकांक्षाएँ याद आती हैं—
कितनी ऊँची-ऊँची थीं उसकी इच्छाएँ!
दिल अचानक कसक उठता है,
पर अब तो दिल की बीमारी हो ही चुकी है,
इसलिए दिल का दुखना उसे साधारण लगता है।

खिड़की से बाहर देखता है—
आसमान बादलों से ढका हुआ है,
बारिश होने की संभावना है।

वह अपनी पूरी बुद्धि और तर्कशक्ति लगाकर
अपने विषय को स्पष्ट करने की कोशिश करता है।
अगर वह उसे समझा न पाया,
तो विद्यार्थी कभी भी नहीं समझ पाएँगे,
या समझने का अवसर ही नहीं मिलेगा।

पूरी कक्षा का भविष्य
उसकी मेहनत पर निर्भर करता है।
वह उनका भविष्य बना रहा है,
ज्ञान की राह पर उन्हें आगे बढ़ाते हुए।

उसे मालूम है—
विद्यार्थियों को समझा पाना ही उसका असली सार है,
वरना उसकी समझने की शक्ति का
कोई महत्व नहीं।

वह चिल्लाता ही जाता है,
उसकी गर्दन की नसें फूल जाती हैं।

घंटी बजती है।
हमेशा की तरह चाक और हाजिरी रजिस्टर हाथ में दबाकर
वह कक्षा से बाहर निकलता है।

उसे महसूस होता है—गला सूख गया है।
वह पानी पीता है।
कुछ पुराने किताबें बगल में दबाए
तेज़ी से घर की ओर निकल पड़ता है।

बारिश होने की आशंका है,
इसलिए सभी लोग तेज़-तेज़ चल रहे हैं।
लेकिन जैसे ही लोग उसे देखते हैं,
सड़क पर लोग मुस्कुराते हैं।

वह अपने शरीर को देखता है—
क्या कोई खराबी है?
कोट और जूतों पर चाक की सफ़ेद धूल जमी हुई है।
झाड़ने से भी कहाँ उतरती है चाक की धूल!

उसे याद आता है—
फ्रॉक, पैंट और दवा।
जेब टटोलता है—खाली।
उसे खाली हाथ ही लौटना होगा,
और वह खाली लौट आता है।

उसे लगता है—
लोग अब भी उसे देखकर हँस रहे हैं।
मानो वह ब्लैकबोर्ड पर रंग-बिरंगे चाक से बना
कोई हास्यास्पद कार्टून हो।
या मानो वह स्वयं एक ब्लैकबोर्ड हो,
जिस पर ढेर सारे व्यंग्यचित्र बनाए गए हों,
जिन्हें देखकर हर कोई हँसता हो।

हाँ—वह ब्लैकबोर्ड है,
चाक और डस्टर है।

लोगों की कठोर निगाहों से बचने के लिए
वह और तेज़ी से कदम बढ़ा देता है।




 

Saturday, January 18, 2025

किरात लोककथा हेछाकुप्पा प्रस्तुति – सरण राई टुहुरे हेछाकुप्पा को तायामा और खियामा बहनों ने पालन-पोषण शुरू किया। उनके माता-पिता न होने के कारण, चाक्लुङ्धिमा नामक राक्षसी ने उनकी सारी फसल और भंडार का अनाज खा लिया। इससे वे भूखे रहने लगे। जंगल से खोक्ली साक्की और गिठ्ठा भ्याकुर लाकर तायामा और खियामा अपने भाई को खिलाकर पाल रहे थे। जब चाक्लुङ्धिमा को यह पता चला, उसने खोक्ली साक्की को पाताल में धकेल दिया और गिठ्ठा भ्याकुर में जहरीला खक्पा छिड़ककर उसे खाने लायक नहीं छोड़ा। फिर बहनों ने ऐसेलु के रस लाकर भाई को देना शुरू किया, लेकिन उससे भी भाई जीवित नहीं रह सका। तायामा और खियामा लोहोरो उसिनी को बुचुकुलकुमा में रखकर खाने की चीजें खोजने जंगल चली गईं। हेछाकुप्पा, यह सोचकर कि खाना बन रहा है, लोहोरो को छूकर इंतजार करता रहा। जब तक इंतजार किया, खाना नहीं पका और वह भूख से बेहोश होकर गिर पड़ा। गिरने पर गरम पानी उसके शरीर पर गिर गया, जिससे वह बेहोश हो गया। दिनभर तायामा और खियामा जंगल में खाना खोजती रहीं, लेकिन कुछ नहीं मिला। शाम को, वे एक जंगली फल लेकर घर लौटीं और देखा कि हेछाकुप्पा मर चुका है, जिससे वे बहुत दुखी हो गईं। तायामा और खियामा ने हेछाकुप्पा को बाहु और केले के पत्तों पर रखकर दफनाया। भाई के शरीर के पास उन्होंने एक चाकू और एक केले का टुकड़ा रखा। उन्होंने भाई के नाम पर एक-एक फूल लगाने और एक-दूसरे की स्थिति जानने के लिए उन फूलों को देखने की योजना बनाई। उन्होंने नेवालाककला पहाड़ी पर जाकर पक्षी बनकर उड़ जाने का निर्णय लिया। तायामा पहले पहाड़ी की चोटी पर पहुंची और कई दिन इंतजार किया, लेकिन खियामा नहीं आई। कुछ अनहोनी की आशंका में तायामा भाई की कब्र तक पहुंची और वहां जाकर देखा कि खियामा द्वारा लगाया गया फूल मुरझा गया था। तायामा को शक हुआ कि कुछ बुरा हुआ है और उसने जंगल में बहन को हर जगह खोजा।

 

किरात लोककथा

हेछाकुप्पा
प्रस्तुति – सरण राई

टुहुरे हेछाकुप्पा को तायामा और खियामा बहनों ने पालन-पोषण शुरू किया। उनके माता-पिता न होने के कारण, चाक्लुङ्धिमा नामक राक्षसी ने उनकी सारी फसल और भंडार का अनाज खा लिया। इससे वे भूखे रहने लगे।

जंगल से खोक्ली साक्की और गिठ्ठा भ्याकुर लाकर तायामा और खियामा अपने भाई को खिलाकर पाल रहे थे। जब चाक्लुङ्धिमा को यह पता चला, उसने खोक्ली साक्की को पाताल में धकेल दिया और गिठ्ठा भ्याकुर में जहरीला खक्पा छिड़ककर उसे खाने लायक नहीं छोड़ा। फिर बहनों ने ऐसेलु के रस लाकर भाई को देना शुरू किया, लेकिन उससे भी भाई जीवित नहीं रह सका।

तायामा और खियामा लोहोरो उसिनी को बुचुकुलकुमा में रखकर खाने की चीजें खोजने जंगल चली गईं। हेछाकुप्पा, यह सोचकर कि खाना बन रहा है, लोहोरो को छूकर इंतजार करता रहा। जब तक इंतजार किया, खाना नहीं पका और वह भूख से बेहोश होकर गिर पड़ा। गिरने पर गरम पानी उसके शरीर पर गिर गया, जिससे वह बेहोश हो गया।

दिनभर तायामा और खियामा जंगल में खाना खोजती रहीं, लेकिन कुछ नहीं मिला। शाम को, वे एक जंगली फल लेकर घर लौटीं और देखा कि हेछाकुप्पा मर चुका है, जिससे वे बहुत दुखी हो गईं।

तायामा और खियामा ने हेछाकुप्पा को बाहु और केले के पत्तों पर रखकर दफनाया। भाई के शरीर के पास उन्होंने एक चाकू और एक केले का टुकड़ा रखा। उन्होंने भाई के नाम पर एक-एक फूल लगाने और एक-दूसरे की स्थिति जानने के लिए उन फूलों को देखने की योजना बनाई।

उन्होंने नेवालाककला पहाड़ी पर जाकर पक्षी बनकर उड़ जाने का निर्णय लिया। तायामा पहले पहाड़ी की चोटी पर पहुंची और कई दिन इंतजार किया, लेकिन खियामा नहीं आई। कुछ अनहोनी की आशंका में तायामा भाई की कब्र तक पहुंची और वहां जाकर देखा कि खियामा द्वारा लगाया गया फूल मुरझा गया था। तायामा को शक हुआ कि कुछ बुरा हुआ है और उसने जंगल में बहन को हर जगह खोजा।

Monday, December 23, 2024

क्या जीवन यही नाटक है?


क्या जीवन यही नाटक है?


वे यानी मेरे पति, जीवनसाथी, थके हुए दिखते हैं। मैं उन्हें देखकर स्वागत की खुशी दिखाते हुए मुस्कुराती हूँ। वे भी मुस्कुराते हैं, लेकिन वह मुस्कान यांत्रिक, व्यावसायिक, और नाटकीय होती है। मुस्कान जो वास्तविक और स्वाभाविक हो तो अमृत के समान होती है। मेरे जीवन का सपना, इच्छा, और प्रयास है कि उनके चेहरे पर ऐसी स्वाभाविक मधुर मुस्कान ला सकूं, और खुद भी एक बार ही सही, वह पा सकूं।

पति, बेटे-बहू, बेटी-दामाद, नाती-नातिन, घर-परिवार, दोस्त, और रिश्तेदारों के बीच घिरी हुई मैं खुद को एक तरह से रॉबिन्सन क्रूसो की तरह अकेली महसूस करती हूँ। मेरा किसी के साथ संवाद नहीं हो रहा है। कोई मुझे समझ नहीं पाया। मैं अकेली अपने पीड़ाओं, भावनाओं, इच्छाओं और सपनों को मन के अंदर दफनाकर बैठी हूँ। अंदर से खोखली, बेकार जीवन जी रही हूँ— अवास्तविक, कृत्रिम जीवन जिसमें चमकदार जोश, उत्साह और खुशी नहीं है। मुझे लगता है कि मुझे जो जीवन जीना चाहिए था, वह कुछ और ही होना चाहिए था।

हमारे तीन दशक के दांपत्य जीवन में, वे मुझे देखकर खुश दिखाई देते हैं। मेरे साथ रहते हुए मस्ती का दिखावा करते हैं। अलग होते समय उदासी का नाटक करते हैं। वे हर तरह से मुझे खुश रखने की कोशिश करते हैं। वे मेरे लिए एक पति के सभी कर्तव्य निभाते हैं। लेकिन मुझे हमेशा लगता है कि वे सब कुछ अभिनय कर रहे हैं।

उनकी मुस्कान, हँसी, प्रसन्नता, क्रियाशीलता, दायित्व निभाना आदि सब कुछ मुझे यांत्रिक और बनावटी लगता है। वे नाटक की तरह अभिनय कर रहे हैं। या शायद मैं ही नाटक देख रही हूँ। नाटक का मुख्य पात्र उनका अभिनय देख रही हूँ और दर्शक पत्नी हूँ।

 ***

मेरे मन में अचानक कई साल पहले की एक घटना का दृश्य सामने आता है। हम दोनों प्रेम में डूबे दो सुंदर युवा थे। मुझे लगता था कि मैं उनके बिना नहीं जी सकती, और उन्हें लगता था कि वे मेरे बिना नहीं जी सकते। इसलिए हम प्रेम या आकर्षक माया में बंध कर विवाह बंधन में बंध गए। मैंने सोचा कि हमारा प्रेम सफल हुआ, उन्होंने भी ऐसा ही कहा।

समय बीतते-बीतते, हमारे तीन बच्चे हो गए। अब तो मैं बेटे-बहू, बेटी-दामाद, और नाती-नातिनों की धनी हूँ। दूसरों की नजर में, हमारा दांपत्य प्रेम आदर्श लगता है, ईर्ष्या योग्य।

लोग समझते हैं कि हम दांपत्य प्रेम से सिंचित, सुखी, हराभरा जीवन जी रहे हैं। लेकिन क्या यह वास्तविकता है? मैं खुद से पूछती हूँ। विवाह के एक साल तक हम बहुत खुश थे। हमने एक साथ हंसी, रोई, और एक-दूसरे में एकाकार हो गए थे।

धीरे-धीरे, हमारा प्रेम व्यावहारिक जीवन की आग में झुलसने लगा। हमें एक-दूसरे में खोट और अपूर्णता नजर आने लगी। प्रेम में झगड़े, घृणा, और वैमनस्य भी बढ़ने लगे। एक शाम, मैं घर छोड़ कर चली गई।

उन्होंने कहा, ‘घर छोड़ कर मत जाओ। अगर गई तो वापस नहीं आ सकोगी।’

मैंने उनकी बात नहीं मानी और घृणा से थूकते हुए घर से बाहर चली गई। अगले दिन घर लौटी। गुस्से में, उन्होंने पूछा, ‘कहां गई थी? किसके साथ रात बिताकर आई हो?’

‘साथी मेनका के यहां रही थी,’ मैंने विनम्र होकर उत्तर दिया।

‘मेनका या विश्वामित्र? उस अशोक के साथ रात बिताई?’

अशोक वह युवक था जो मुझे शादी से पहले पसंद करता था। उनके इस संदेह से मैं गुस्से से आगबबूला हो गई। मैंने कहा, ‘मेरा मन, मेरा शरीर... मेरी खुशी। सोई भी थी तो क्या कर लोगे?’

उन्होंने कहा, ‘तुम्हें घर से निकाल दूंगा। तुरंत निकल जाओ।’

उन्होंने जबरदस्ती मुझे घर से बाहर निकाल दिया और दरवाजा बंद कर दिया। इसके बाद मेरे पास केवल समाज, मंडली, थाने और कोर्ट का ही सहारा था। कई दिन तक हम दोनों के बीच मेल-मिलाप के लिए सभा, कचहरी और विचार-विमर्श चलता रहा।

उस समय, मैं गर्भवती थी और हमारे बच्चे की वजह से अंत में हमारा मेल हो गया।

आज, तीन दशक का लंबा समय बीत चुका है। हमारे बीच का विश्वास कमजोर हो चुका था। हमें प्रेम का दिखावा करना पड़ा। हम सुखी और खुशहाल दिखने का नाटक कर रहे थे।

***

आज कई वर्षों से मैं खुद से पूछ रही हूँ—क्या मुझे सच्चा प्रेम मिला है? क्या मैंने प्रेम का स्वाद चखा है? क्या मुझे विपरीत लिंग से मिलने वाला प्रेम, सुख और जीवन का रस मिला है? क्या मैंने सच्ची हँसी और रोदन का वास्तविक स्वाद चखा है? जीवन नाटक नहीं होना चाहिए। आंतरिक गहराइयों में स्थित चेतना, विवेक और विश्वास जीवन को स्वाभाविक रूप से संचालित करने चाहिए। परन्तु कैसे इंसान यांत्रिक नाटकीय पात्र में बदल जाता है?

मेल-मिलाप के बाद, हमारे दांपत्य जीवन को देखकर ऐसा लगता था कि सब कुछ स्वाभाविक रूप से चल रहा है। एक पत्नी के सभी कर्तव्यों का पालन मैं कर रही थी और अब भी कर रही हूँ। वे भी पति के सभी दायित्व निभा रहे थे और अब भी निभा रहे हैं।

हम दो पतिपत्नी के रूप में साथ रह रहे हैं। हम एक-दूसरे को सभी हार्दिकता, प्रेम और दायित्व निभा रहे हैं। लेकिन प्रेम के प्यासे हम... मुझे क्यों लगता है कि वे जो प्रेम दिखाते हैं, दायित्व निभाते हैं, वह केवल एक नाटक में पति का किरदार निभाने जैसा है। वे मेरे साथ संतुष्ट, खुश और सुखी दिखाई देते हैं, लेकिन यह सब दिखावटी, बनावटी और कृत्रिम है। मुझे भीतर से ऐसा क्यों महसूस हो रहा है? इससे मेरा जीवन संपूर्ण ब्रह्मांड से भारी बोझ बन जाता है। जीवन असफल, नीरस, निष्फल सा लगता है।

मैं कई बार उनसे पूछ चुकी हूँ, ‘क्या तुम मुझसे संतुष्ट और खुश हो?’

‘मैं संतुष्ट हूँ, खुश हूँ,’ वे हमेशा जवाब देते हैं। ‘एक स्त्री से एक पुरुष को मिलने वाली सभी चीजें मुझे तुमसे मिली हैं।’

मुझे अभी भी लगता है कि वे झूठ बोल रहे हैं, वे नाटक कर रहे हैं। मैंने एक स्त्री के रूप में उन्हें पुरुष के प्रति सभी प्रेम, समर्पण, सुख और अन्य सब कुछ देने की कोशिश की। मैंने अपने पास सब कुछ दे दिया, लेकिन वे अभी भी मुझसे संतुष्ट, प्रसन्न और प्रफुल्लित नहीं लगते। वे हमेशा खुश, प्रसन्न और संतुष्ट होने का नाटक करते हैं।

जीवनभर की इस एक अप्रिय और विरस अनुभूति ने मेरे और उनके जीवन को खोखला बना दिया है। लगता है कि क्षणिक उत्तेजना में की गई छोटी गलती ने भी जीवन को मरुस्थल सा उजाड़, शुष्क और नीरस बना दिया है। सतर्क रहते हुए, यह खोखला कृत्रिमता और बनावट जीवन को नाटकीय बना रही है। यह खोखलापन मुझे पतझड़ सा बना रहा है।

जैसे गणित में, मान लो, अगर मैंने किसी और से विवाह किया होता? या किसी से विवाह ही नहीं किया होता? जीवन का कोई स्पष्ट अंतर दिखाई देता? लेकिन ऐसी कल्पना भी बेकार है, क्योंकि यह वास्तविकता में कोई महत्व नहीं रखती। फिर भी मन कभी-कभी भटक जाता है। भ्रम में आनंद का अनुभव होता है। कल्पना में जी रहे और नहीं जी रहे जीवन की तुलना होती है, जो फिर से अत्यधिक दुःख देती है—अगर जीवन को फिर से शुरू कर पाते...

जीवन फिर से भी ऐसा ही होता? आडंबर में फंसा रहता? आह... मैं क्या सोच रही हूँ? बेकार की बातों से क्या फायदा? नदुखी हुई चीजों की खोज, अनुभव की तृष्णा, पूर्णता प्राप्त करने का भ्रम, नियति की विडंबना, जीवन की मृगतृष्णा, अति महत्वाकांक्षा, लालसा... ये सब दुःख के स्रोत हैं क्या?

हम नकली प्रेम, माया और जीवन का अभिनय कर रहे हैं, मानो यही सर्वस्व हो।

उनके मन में सच में नहीं जा सकी। उनका मन समझ नहीं पाई। वे मेरे पूर्व प्रेमी थे। हमारी अस्वाभाविक कलह के बाद वे मेरे पति ही रह गए। एक पति के रूप में भी उनका मनपेट अभी तक नहीं समझ सकी। क्या यह मेरा दुर्भाग्य है कि इंसान का मन समझना असंभव है?

शायद मैं अभी भी पूरी तरह से उनके प्रति समर्पित नहीं हो सकी। वे भी मुझे प्रेमिका के रूप में नहीं देख सकते होंगे। इसलिए वे नकली प्रेम का अभिनय कर रहे हैं। या हो सकता है मैं ही भ्रम में हूँ। जो रूप, चित्र, स्वरूप या प्रकृति मैंने प्रेम की कल्पना की थी, वह अवास्तविक है।

यह जगत का क्षणभंगुर जीवन, किसने शाश्वत प्रेम पाया होगा?

प्रेमविहीन मेरा बीता हुआ शुष्क जीवन याद करके रोने का मन होता है। पर रोने से क्या फायदा? जो बीत गया, वह बीत चुका है। जीवन फिर से शुरू नहीं किया जा सकता। रोने, हँसने या पश्चात्ताप करने से उसमें सुधार नहीं किया जा सकता। नाटक की तरह नाटक करके मेरा अनमोल जीवन बीत रहा है।

हम बूढ़े हो चुके हैं और अब भी दूसरों के सामने नाटक कर रहे हैं, सुखी और प्रेममय होने का।

मैं उन्हें प्रेम कर रही हूँ, एक नारी का पुरुष के प्रति समर्पण का नाटक कर रही हूँ। वे पति होने के नाते एक पुरुष का नारी के प्रति प्रेम, दायित्व, त्याग और समर्पण का अभिनय कर रहे हैं। यहाँ सभी लोग नाटक में प्रेमी या प्रेमिका, पति या पत्नी, पिता या माता, पुत्र या पुत्री, मित्र या शत्रु के अनेक समयानुकूल विभिन्न पात्रों का कला रूपी अभिनय कर रहे हैं। सब नाटक कर रहे हैं। भ्रम के सागर में डूबकर लोग भ्रमवश पूछ रहे हैं—सत्य क्या है? यथार्थ क्या है?

विशुद्ध जीवन का अनुभव न कर पाने से मन चिढ़ता है। चिथड़े दिल से खून, पीप और आँसू बहते हैं। दुखता है, लेकिन रो नहीं सकते। हँसी का स्वांग बनाकर बचे रहने की बाध्यकारी स्थिति में थोड़ा अभिनय करने से दूसरों और खुद को फायदा होता है तो क्यों न करें?

जीवन-नाटक में विभिन्न पात्रों की भूमिका निभाने में क्या हर्ज है? शायद यही कारण है कि मेरे पति प्यारे पति की भूमिका निभा रहे हैं, मैं पत्नी की...

जीवन, आखिर जीवन है। नाटकीय कलाशिल्प अभिनय करते हुए समय बीत गया...

क्या जीवन यही नाटक है?

या ये दुनिया एक अधूरे-अधूरे जीवन की कृत्रिम कलाशिल्प मंचन करने वाला रंगमंच है?

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Saturday, December 14, 2024

छोटा घटना: बड़ा प्रभाव/A Small Incident: A Big Impact

 

छोटा घटना: बड़ा प्रभाव

बैंक में पैसे निकालने की लाइन में खड़ा हूं। दो सुंदर युवतियां मेरे पीछे खड़ी हैं। वे धीमे-धीमे बातें कर रही हैं। मुझे ऐसा लगा कि शायद वे मेरे बारे में कुछ कह रही हैं, तो मैंने पूछा, "क्या कहा आपने?"
उनके कहे को न समझ पाने पर मैंने फिर पूछा। उनमें से एक सुंदर युवती मेरे कान के पास आकर धीरे से कहती है, "स्वेटर का डिज़ाइन देख, यही अपनी दोस्त से कहा।"

मैंने जो स्वेटर पहन रखा है, वह मेरी दिवंगत पत्नी ने अपने हाथों से बुना था। उस पर बने डिज़ाइन बहुत सुंदर हैं। मेरा मन खुशी से भर जाता है और मुझे अपनी पत्नी की कला पर गर्व महसूस होता है।

लेकिन अचानक, मेरा मन भारी हो जाता है। वह स्वेटर बुनने वाली मेरी पत्नी अब कहां है... मैंने उन्हें बचाने के लिए सब कुछ किया, लेकिन उनकी उम्र उनके बस में नहीं थी। वे चली गईं। लेकिन उनका प्रेम उनके बस में था, जिसे वे दे गईं।
उनके प्रेम और मेहनत से बुना स्वेटर मैं आज भी पहनता हूं।

उन्हें जीने की कितनी चाह थी, लेकिन वे नहीं रहीं।
तभी मुझे अपना 16 वर्षीय भतीजा याद आता है, जिसने हाल ही में 10वीं कक्षा में पढ़ते हुए फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। मेरा मन विचलित हो जाता है। किसी को लंबी उम्र मिलती है, तो किसी को कुछ ही दिन जीने का अवसर...

मैं सोचता हूं कि छोटी-सी परेशानी के कारण कोई आत्महत्या नहीं करता। मैंने खुद जीवनभर अनगिनत दुख और कठिनाइयों का सामना किया है। मैं अब इन छोटी-बड़ी परेशानियों को सहने लायक परिपक्व हो चुका हूं। लेकिन कभी-कभी, मुझे भी कुछ दुख सहना बहुत कठिन लगता है।
किशोरावस्था में, छोटी सी परेशानी भी बड़ी लगती होगी।

दुख... दुख! मेरी आंखें भर आती हैं, लेकिन सार्वजनिक स्थान पर आंसू बहाना उचित नहीं।


English Translation:

A Small Incident: A Big Impact

I am standing in a queue at the bank to withdraw money. Two beautiful young women are standing right behind me, whispering to each other. I wonder if they are talking about me, so I ask, “What did you say?”
Not understanding what they meant, I ask again. One of the young women leans close to my ear and softly says, “I was telling my friend to look at the sweater pattern.”

I am wearing a sweater hand-knit by my late wife. The design is beautiful. My heart fills with joy, and I feel a sense of pride in my wife’s skill.

But suddenly, my heart sinks. The wife who knit this sweater is no longer here... I did everything I could to save her. Her lifespan wasn’t in her control; she left. But love was in her control, and she gave it abundantly.
The sweater, woven with her love and effort, is something I still wear.

She wanted to live so much, yet she is gone.
I am reminded of my 16-year-old nephew, who recently committed suicide by hanging, even while still in 10th grade. My mind becomes clouded. Some people are blessed with long lives, while others only get a few days to live...

I reflect that no one chooses suicide over a small worry. I’ve endured countless hardships throughout my life and have matured enough to withstand both minor and major troubles. But even for me, there are times when some sorrows feel unbearable.
In teenage years, even a small worry can feel enormous.

Sorrow... sorrow! My eyes well up, but crying in a public place isn’t appropriate.

सानो घटना ः ठूलो प्रभाव

 सानो घटना ः ठूलो प्रभाव
 
बैंकको पैसा लिने लाइनमा उभिरहेको छु । दुईजना सुन्दरी युवतीहरू मेरै पछाडि उभिएका छन् । खासखुस कुराकानी गर्छन् । मलाई नै केही भनेका हुन् कि भनेर सोध्छु— “के भन्नू भयो ?”
तिनले भनेको नबुझेर फेरि सोध्छु । कानछेउमै मुख ल्याएर सुन्दरी केटी सुस्तरी भन्छिन्— “स्वीटरको प्याटर्न नमुना हेर भनेर साथीलाई भनेको ।”
मैले मेरो दिवङ्गत पत्नीले हातले बुनेकी स्वीटर लगाएको छु । बुट्टा सुन्दर छन् । मेरो मन हर्षले गद्गद हुन्छ, गौरवानुभूति गर्छु पत्नीको सिपप्रति ।
तर अकस्मात मन हुडलिएर आउँछ स्वीटर बुन्ने पत्नी कहाँ छिन् र... पत्नीलाई बचाउन सबथोक गरेँ । आयु तिनको वशमा थिएन, छोडेर गइन् । माया तिनको वशमा थियो, दिएर गइन् । मायाले मिहिनत साथ तिनले बुनेकी स्वीटर अहिले पनि लगाईरहेको छु ।
तिनलाई बाँच्ने कति मन थियो तर मरीन् । भर्खरै १० कक्षामा पढ्दै गरेको १६वर्षका भतिजोले झु्ण्डिएर आत्महत्या गरेको सम्झदा मन एक तमासको भएर आउँछ । कसैलाई आयु धेर, कसैलाई केही दिन बाँच्न पाए...
सम्झन्छु सानो पीरले त मानिसले आत्महत्या रोज्दैन । म पो जीवनभर अनेकौं दुःख कष्ट भोगेर परिपक्व भएको छु । साना ठूला पीर पचाउन सक्ने भएर पनि कुनैकुनै पीर सहन मलाई पनि कति गाह्रो हुन्छ । टिनेजर, सानै पीर ठूलो लाग्यो होला ।
पीर... पीर ! आँखा टिलपिल हुन्छ तर सार्वजनिक स्थलमा आँसु झार्न भएन ।

क्या जीवन एक नाटक है?

 

क्या जीवन एक नाटक है?

सरण राइ

वह यानी मेरे पति, मेरे जीवनसाथी, थके हुए से दिखते हैं। मैं उन्हें देखकर स्वागत की खुशी दिखाते हुए मुस्कुराती हूँ। वे भी मुस्कुराते हैं, एक यांत्रिक, व्यावसायिक, नाटकीय कला वाली मुस्कान। मुस्कान जो यदि वास्तविक और स्वाभाविक हो तो अमृत के समान होती है। हृदय की गहराइयों से उठी सच्ची, अनुपम, अनमोल, आकर्षक, आनंददायक, स्वस्फूर्त, प्राकृतिक और मधुर मुस्कान की प्रतीक्षा में मेरा जीवन। मेरा सपना, इच्छा, कोशिश और प्रयास है कि ऐसी मुस्कान उनके चेहरे पर ला सकूँ, मैं भी एक बार ही सही, पा सकूँ और दे सकूँ।

पति, बेटे-बहू, बेटी-दामाद, नाती-नातिन, घर-परिवार, दोस्त, रिश्तेदार और परिचितों के बीच मैं। लगता है जैसे अकेलेपन में रॉबिन्सन क्रूसो की तरह जी रही हूँ। मेरा किसी से संवाद नहीं हो रहा है। किसी ने मुझे समझा नहीं। अपने दुःख, भावनाएँ, इच्छाएँ और सपने मन में ही दफनाए हुए अकेली हूँ। अंदर से खाली, व्यर्थ का जीवन जी रही हूँ— अवास्तविक, कृत्रिम, नीरस जीवन, जहाँ चमकदार जोश, उत्साह और खुशी नहीं है। जो चाहिए था वह नहीं मिला, न भोग रही हूँ, और न कृत्रिम दुनिया में भटक रही हूँ।

मुझे जिस जीवन को जीना चाहिए था, वह कुछ और होना चाहिए था।

हाँ, हमारे तीन दशक के दांपत्य जीवन में वे मुझे देखकर खुश नजर आते हैं। मेरे साथ रहते हुए मस्ती का दिखावा करते हैं। अलग होते समय उदास होने का नाटक करते हैं। वे मुझे हर तरह से खुश रखना चाहते हैं। मेरे लिए एक पति को जो कुछ भी करना चाहिए, वे सब कुछ करते हैं। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि वे सब कुछ कर रहे हैं, लेकिन सब कुछ वास्तविकता के बिना, नाटक का हिस्सा लगते हैं।

उनकी मुस्कान, हँसी, प्रसन्नता, क्रियाशीलता, दायित्व निभाना, सब कुछ मुझे वास्तविक, प्राकृतिक और स्वाभाविक नहीं लगता। लगता है जैसे वे नाटक कर रहे हैं, बनावटी। वे नाटक कर रहे हैं, अभिनय कर रहे हैं।

या शायद मैं केवल एक दर्शक हूँ, जो नाटक देख रही हूँ। नाटक के मुख्य पात्र उनके अभिनय को देख रही हूँ, और नाटक की दर्शक पत्नी हूँ।

***

मेरे मन के पर्दे पर अचानक वर्षों पहले की एक घटना का दृश्य दिखाई देता है। मैं और वे प्रेम में डूबे दो सुंदर युवा। मुझे लगता था कि मैं उनके बिना नहीं जी सकती। उन्हें भी लगता था कि वे मेरे बिना नहीं जी सकते। इसलिए, हम प्रेम या आकर्षक माया में बंध कर विवाह बंधन में बंध गए। विवाह के बाद मैंने सोचा कि हमारा प्रेम सफल हो गया। उन्होंने भी कहा था कि हमारा प्रेम और सपना पूरा हो गया।

समय के अविरल प्रवाह में बहते हुए मैं तीन बच्चों की माँ बन गई। अब तो मैं बेटे-बहू, बेटी-दामाद, और नाती-नातिनों की धनी हूँ।

दूसरों की नजर में हमारा दांपत्य प्रेम आदर्श लगता है, ईर्ष्या योग्य। लोग समझते हैं कि हम दांपत्य प्रेम से सिंचित, सुखी, हरे-भरे, सफल जीवन का आनंद ले रहे हैं। जीवन में प्राप्त करने योग्य प्रेम पाकर धन्य हो गए हैं। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही है? मैं अपने आप से सवाल करती हूँ।

विवाह के एक वर्ष तक हम इतने खुश और सुखी थे कि वह एक वर्ष जीवनभर के लिए यादगार बन गया। हम एक साथ हंसते, रोते थे। हम दो शरीर एक प्राण बन गए थे, जैसे हम एक में एकाकार हो गए थे।

धीरे-धीरे, हमारा प्रेम व्यावहारिक जीवन की आग में झुलसने लगा। हमारे बीच के प्रेम में खोट आ गई। हमारा अमर प्रेम विश्वास क्षणभर में राख हो गया। दिन-रात हम एक-दूसरे में खोट और अपूर्णता देखने लगे। जितना हम एक-दूसरे से प्रेम करते थे, उतनी ही घृणा, तिरस्कार, झगड़ा और वैमनस्यता भी करते थे। सहनशीलता की भी एक सीमा होती है। सहन न कर पाकर एक शाम मैं घर छोड़ कर चली गई। वे कह रहे थे, 'घर छोड़ कर मत जाओ। अगर चली गई तो फिर कभी लौट कर नहीं आ सकोगी।'

मैंने उनकी बात नहीं मानी। घृणा से थूकते हुए मैं घर से बाहर चली गई। अगले दिन घर लौटी। उन्होंने गुस्से में पूछा, 'कहाँ गई थी? किसके साथ रात बिताकर आई हो?'

'साथी मेनका के यहाँ रही थी,' मैंने विनम्र होकर उत्तर दिया।

'मेनका या विश्वामित्र? उस अशोक के साथ रात बिताई?' अशोक एक युवक था जो विवाह से पहले मुझे पसंद करता था। मेरे चरित्र पर ऐसा संदेह? मैं गुस्से से आगबबूला हो गई।

मैंने उन्हें जवाब दिया, 'मेरा मन, मेरा शरीर... मेरी खुशी। सोई भी थी तो क्या कर सकते हो?' उन्होंने कहा, 'तुम्हें घर से निकाल दूंगा। तुरंत निकल जाओ।' उन्होंने जबरदस्ती मुझे घर से बाहर निकाल कर दरवाजा बंद कर दिया और फिर अंदर नहीं आने दिया।

मनुष्य का स्वभाव। मैं चाहती थी कि वे जलें, लेकिन ऐसा परिणाम नहीं चाहती थी। मैंने किसी पुरुष के साथ संबंध नहीं बनाया था। वे मुझ पर झूठा आरोप लगाकर मुझे नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे थे। इसके बाद मेरे पास केवल समाज, मंडली, थाने और कोर्ट का ही सहारा था। मेरे पिताजी, मायके वाले, रिश्तेदार और मित्र हमारे बीच मेल-मिलाप के लिए सभा, कचहरी और विचार-विमर्श में लगे रहे।

उस समय मैं अलग भी रह सकती थी। अलग न होने का कारण मेरे गर्भ में उनका बच्चा बढ़ रहा था। इसलिए, अंत में हमारा मेल हो गया। दूसरों की नजर में बिगड़ा हुआ संबंध फिर से जुड़ गया। हमारा दांपत्य जीवन फिर से आगे बढ़ने लगा।

जब आँख झपकती है, तीन दशक का लंबा समय बीत चुका है। अहा, तीन दशक का हमारा दांपत्य जीवन, मैं और वे। प्रेम विश्वास की नींव पर टिका होता है। हमारा विश्वास और भरोसा टूट चुका था, फीका हो चुका था। दिखावे के लिए हम प्रेम में डूबे दांपत्य जीवन का आडंबर करते थे। सुखी और खुशहाल दिखने का नाटक कर रहे थे।

***

आज कई वर्षों से मैं खुद से पूछ रही हूँ—क्या मुझे सच्चा प्रेम मिला है? क्या मैंने प्रेम का स्वाद चखा है? क्या विपरीत लिंग से मिलने वाला प्रेम, सुख और जीवनरस मुझे मिला है? क्या सच्ची हँसी और रोदन का वास्तविक स्वाद चखने का मौका मिला है? जीवन नाटक नहीं होना चाहिए। आंतरिक गहराई में स्थित चेतना, विवेक और विश्वास जीवन को स्वचालित रूप से चलायमान करने चाहिए। फिर इंसान यांत्रिक नाटकीय पात्र में कैसे बदल जाता है?

मेल-मिलाप के बाद हमारे दांपत्य जीवन को देखकर ऐसा लगता था कि सब कुछ स्वाभाविक रूप से चल रहा है। एक पत्नी के सभी कर्तव्यों का पालन मैं कर रही थी और अब भी कर रही हूँ। वे भी पति के सभी दायित्व निभा रहे थे और अब भी निभा रहे हैं।

हम दो पतिपत्नी के रूप में साथ रहते हैं। हम एक-दूसरे को सभी हार्दिकता, प्रेम या दायित्व निभा रहे हैं। लेकिन प्रेम के प्यासे हम... मुझे क्यों लगता है, वे जो प्रेम दिखाते हैं, दायित्व निभाते हैं, वह केवल एक नाटक में पति का किरदार निभाने जैसा है। वे मेरे साथ संतुष्ट, खुश और सुखी दिखाई देते हैं, लेकिन यह सब दिखावटी, बनावटी और कृत्रिम है। मुझे भीतर से ऐसा क्यों महसूस हो रहा है? इससे मेरा जीवन संपूर्ण ब्रह्मांड से भारी बोझ बन जाता है। जीवन असफल, नीरस, निष्फल सा लगता है।

मैं कई बार उनसे पूछ चुकी हूँ, ‘क्या तुम मुझसे संतुष्ट और खुश हो?’

‘मैं संतुष्ट हूँ, खुश हूँ,’ वे हमेशा जवाब देते हैं। ‘एक स्त्री से एक पुरुष को मिलने वाली सभी चीजें मुझे तुमसे मिली हैं।’

मुझे अभी भी लगता है कि वे झूठ बोल रहे हैं, वे नाटक कर रहे हैं। मैंने एक स्त्री के रूप में उन्हें पुरुष के प्रति सभी प्रेम, समर्पण, सुख और अन्य सब कुछ देने की कोशिश की। मैंने अपने पास सब कुछ दे दिया, लेकिन वे अभी भी मुझसे संतुष्ट, प्रसन्न और प्रफुल्लित नहीं लगते। वे हमेशा खुश, प्रसन्न और संतुष्ट होने का नाटक करते हैं।

जीवनभर की इस एक अप्रिय और विरस अनुभूति ने मेरे और उनके जीवन को खोखला बना दिया है। लगता है कि क्षणिक उत्तेजना में की गई छोटी गलती ने भी जीवन को मरुस्थल सा उजाड़, शुष्क और नीरस बना दिया है। सतर्क रहते हुए, यह खोखला कृत्रिमता और बनावट जीवन को नाटकीय बना रही है। यह खोखलापन मुझे पतझड़ सा बना रहा है।

जैसे गणित में, मान लो, अगर मैंने किसी और से विवाह किया होता? या किसी से विवाह ही नहीं किया होता? जीवन का कोई स्पष्ट अंतर दिखाई देता? लेकिन ऐसी कल्पना भी बेकार है, क्योंकि यह वास्तविकता में कोई महत्व नहीं रखती। फिर भी मन कभी-कभी भटक जाता है। भ्रम में आनंद का अनुभव होता है। कल्पना में जी रहे और नहीं जी रहे जीवन की तुलना होती है, जो फिर से अत्यधिक दुःख देती है—अगर जीवन को फिर से शुरू कर पाते...

जीवन फिर से भी ऐसा ही होता? आडंबर में फंसा रहता? आह... मैं क्या सोच रही हूँ? बेकार की बातों से क्या फायदा? नदुखी हुई चीजों की खोज, अनुभव की तृष्णा, पूर्णता प्राप्त करने का भ्रम, नियति का विडंबना, जीवन की मृगतृष्णा, अति महत्वाकांक्षा, लालसा... ये सब दुःख के स्रोत हैं क्या?

हम नकली प्रेम, माया और जीवन का अभिनय कर रहे हैं, मानो यही सर्वस्व हो।

उनके मन में सच में नहीं जा सकी। उनका मन समझ नहीं पाई। वे मेरे पूर्व प्रेमी थे। हमारी अस्वाभाविक कलह के बाद वे मेरे पति ही रह गए। एक पति के रूप में भी उनका मनपेट अभी तक नहीं समझ सकी। क्या यह मेरा दुर्भाग्य है कि इंसान का मन समझना असंभव है?

शायद मैं अभी भी पूरी तरह से उनके प्रति समर्पित नहीं हो सकी। वे भी मुझे प्रेमिका के रूप में नहीं देख सकते होंगे। इसलिए वे नकली प्रेम का अभिनय कर रहे हैं। या हो सकता है मैं ही भ्रम में हूँ। जो रूप, चित्र, स्वरूप या प्रकृति मैंने प्रेम की कल्पना की थी, वह अवास्तविक है।

यह जगत का क्षणभंगुर जीवन, किसने शाश्वत प्रेम पाया होगा?

प्रेमविहीन मेरा बीता हुआ शुष्क जीवन याद करके रोने का मन होता है। पर रोने से क्या फायदा? जो बीत गया, वह बीत चुका है। जीवन फिर से शुरू नहीं किया जा सकता। रोने, हँसने या पश्चात्ताप करने से उसमें सुधार नहीं किया जा सकता। नाटक की तरह नाटक करके मेरा अनमोल जीवन बीत रहा है।

हम बूढ़े हो चुके हैं और अब भी दूसरों के सामने नाटक कर रहे हैं, सुखी और प्रेममय होने का।

मैं उन्हें प्रेम कर रही हूँ, एक नारी का पुरुष के प्रति समर्पण का नाटक कर रही हूँ। वे पति होने के नाते एक पुरुष का नारी के प्रति प्रेम, दायित्व, त्याग और समर्पण का अभिनय कर रहे हैं। यहां सभी लोग नाटक में प्रेमी या प्रेमिका, पति या पत्नी, पिता या माता, पुत्र या पुत्री, मित्र या शत्रु के अनेक समयानुकूल विभिन्न पात्रों का कला रूपी अभिनय कर रहे हैं। सब नाटक कर रहे हैं। भ्रम के सागर में डूबकर लोग भ्रमवश पूछ रहे हैं—सत्य क्या है? यथार्थ क्या है?

विशुद्ध जीवन का अनुभव न कर पाने से मन चिढ़ता है। चिथड़े दिल से खून, पीप और आँसू बहते हैं। दुखता है, लेकिन रो नहीं सकते। हँसी का स्वांग बनाकर बचे रहने की बाध्यकारी स्थिति में थोड़ा अभिनय करने से दूसरों और खुद को फायदा होता है तो क्यों न करें?

जीवन-नाटक में विभिन्न पात्रों की भूमिका निभाने में क्या हर्ज है? शायद यही कारण है कि मेरे पति प्यारे पति की भूमिका निभा रहे हैं, मैं पत्नी की...

जीवन, आखिर जीवन है। नाटकीय कलाशिल्प अभिनय करते हुए समय बीत गया...

क्या जीवन यही नाटक है?

या ये दुनिया एक अधूरे-अधूरे जीवन की कृत्रिम कलाशिल्प मंचन करने वाला रंगमंच है?

 

के जीवन नाटक हो ?

 के जीवन नाटक हो ?


उनी अर्थात् मेरा श्रीमान्, जीवनसाथी, पतिदेव, प्राणेश्वर वा लोग्ने निकै थाकेर आएजस्ता देखिन्छन् । म उनलाई देखेर स्वागतम् किसिमको प्रसन्नता देखाउ“दै मुस्कुराउ“छु । उनी पनि मुस्कुराउ“छन्, एउटा यान्त्रिक, व्यावसायिक, नाटकीय कलापूर्ण मुस्कान । मुस्कान  जो वास्तविक एवं स्वाभाविक भए अमृतसमान हुन्छ । हृदयको गहिराइदेखि उठेको सा“चो, अतुलनीय, अमूल्य, आकर्षक, आनन्ददायी, स्वस्फूर्त, प्राकृतिक एवं स्वाभाविक मधुर मुस्कानको प्रतीक्षारत मेरो जिन्दगी ।  मेरो सपना, चाहना, कोसिस र प्रयत्न त्यस्तो मुस्कान उनको अनुहारमा ल्याउन सकू“, म पनि (एकै पटक मात्र भए पनि) पाउन सकू“  र दिन सकू“ ।
पति, छोराबुहारी, छोरीज्वाइ“, नातिनातिना, घरपरिवार, साथी, आफन्त र चिनारुहरूको बीचमा≤ यति धेरै मान्छेहरूको बीचमा घेरिएर बा“चिरहेकी म । मलाई लाग्छ, एक्लै बेग्लै एक प्रकारले  रबिन्सन क्रुसो जस्तो बा“चिरहेकी छु ।  मेरो कसैसित संवाद भइरहेको छैन । मलाई कसैले बुझेका छैनन् ।  म एक्लो विकल आÏनो पीर, भाव, इच्छा र सपना मनभित्रै थुपारेर, पुरेर बसेकी छु । म भित्रभित्रै खोक्रोरित्तो पुङमाङ जस्तो छु र व्यर्थै बा“चिरहेकी छु— अवास्तविक कृत्रिम, रुखो जीवन, जहा“ चम्किलो जोसजा“गर, उत्साह र प्रसन्नता छैन । पाउनुपर्ने मैले केके नपाएको, नभोगिरहेको र बनावटी दुनियामा नै भट्किरहेको महसुस सधैं भइरहन्छ ।
मैले बा“च्न पाउनुपर्ने जीवन अर्कै खालको हुनुपर्ने हो ।
हो, उनी हाम्रो तीन दशक लामो दाम्पत्य जीवनमा मलाई देख्दा खुसी जस्तो हुन्छन् । मस“ग बस्दा रमाएजस्तो देखिन्छन् । छुट्टि“दा विरसिलो जस्तो मान्छन् । मलाई उनी हरतरहले सुखी र खुसी पार्न चाहेजस्तो गर्छन् । मेरा लागि एउटा पतिले पत्नीप्रति गर्नुपर्ने सबै कार्यहरू गर्छन् । तर ती सब उनले खुसी भइटोपलेको, हा“सेजस्तो गरेको, प्रसन्न भएजस्तो गरेको र सबैथोक गरेको गरेजस्तो मात्र गरेको हो भन्ने मलाई लागिरहन्छ ।
उनको मुस्कान, हा“सो, प्रसन्नता, क्रियाशीलता, दायित्ववहन आदि ती सब उनका क्रियाकलाप वास्तविक, प्राकृतिक र स्वाभाविक जस्तो मलाई लाग्दैन । लाग्छ ती सब उनी नाटकमा झै“ अभिनय गरिरहेका छन् । एकदम कृत्रिम, बनावटी । उनी स्वाङ पारिरहेका छन्, नाटक खेलिरहेका छन् ।
अथवा म नाटक हेरिरहेकी दर्शक मात्र हु“ । नाटकको प्रमुख पात्र उनको अभिनय हेरेर नाटकीयतामा रमाउने फगत दर्शक पत्नी हु“ म ।
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मेरो मानसपटमा अचानक धेरै वर्षपहिले घटेको हाम्रो जीवनको एउटा दृश्य देखा पर्छ । म र उनी प्रेममा फसेका दुई सुन्दर युवाहरू । मलाई लागेको थियो म उनीबिना बा“च्न सक्तिन“ । उनलाई पनि लागेको थियो, उनी मबिना बा“च्न सक्तैनन् । तसर्थ प्रेममा अथवा बैंसालु आकर्षक मायाप्रीतिमा फसेका हामी विवाहबन्धनमा बा“धिन्छौ“ । यस्तो बन्धनमा बा“धि“दा मैले सम्झेको थिए“ हाम्रो प्रेम सफल भयो । उनले पनि त्यस्तै भनेका थिए, हाम्रो प्रेम र सपना साकार भयो ।
समयको अविरल प्रवाहमा बग्दाबग्दै म तीन छोराछोरीकी आमा भए“ । अहिले त म छोराबुहारी, छोरीज्वाइ“, नातिनातिनाहरूको धनी भइसकेकी छु ।
अरूले देख्दा हामी बीचको दाम्पत्य प्रेम आदर्शमय देखिन्छ, इष्र्यायोग्य देखिन्छ ।
मानिसहरू सम्झन्छन्, हामी दाम्पत्य प्रेमले प्रचुर मात्रामा  सिंञ्चित हराभरा सफल जीवन गुजारीरहेका आदर्श जोडी हौ“ । जीवनमा प्राप्त गर्नु पर्ने प्रेम पाएर धन्यधन्य भएका छौ‘ । तर वास्तविकता वा यथार्थ त्यस्तै छ त ? मनमनै सोध्छु आफै‘लाई ।
विवाह भएको एक वर्षसम्म हामी यति धेरै खुसी र सुखी थियौ“ कि त्यही एक वर्ष जीवनभरि बा“च्न र कल्पनाको लागि सामल बन्यो । हामी त्यतिबेला एकसाथ हा“स्थ्यौ“, रुन्थ्यौ“ एकसाथ । हामी दुई शरीर एक प्राण भएका थियौ“ मानौ“ हामी दुई एकमा एकाकार भएका थियौ“ ।
बिस्तारैबिस्तारै हाम्रो प्रेम व्यावहारिक जीवनको ज्वालामा परेर ओइलिनखुइलिन थाल्यो । प्रेममा कहा“ प्वाल प¥यो, किरा लाग्यो कि ? हामीबीच जीवनपर्यन्त अमर प्रेम रहन्छ भन्ने विश्वास क्षणभरमै खरानी भयो । दिनरात हामी एकअर्कामा खोट र अपूर्णता देख्न थालेका थियौ“ । प्रेम जति मजाले पूर्णतासाथ एकअर्कालाई ग¥यौ“, घोचपेच, घृणा, तिरस्कार, झगडा र वैमनस्यता पनि पूर्णताका साथ नै ग¥यौ“ । सहनुको पनि सीमा हुन्छ । सहन नसकेर एक सा“झ म घर छोडेर निस्किए“ । उनी भन्दै थिए, ‘घर छोडेर नजाऊ । जान्छौ भने फेरि कहिल्यै फर्केर आउन पाउन्नौ ।’
मैले उनको कुराको वास्ता गरीन“ । घृणाको थुक थुक्दै म घरबाहिर निस्किए“ । भोलिपल्ट  घर फर्किए“ । रिसले काम्दै उनले सोधे, ‘कहा“ गएकी थियौ ? कोसित रातभर सुतेर फर्कियौ ?’
‘साथी मेनकाकहा“ बसेर आएकी छु ।’ नम्र भएर जवाफ दिएको थिए“ ।
‘मेनका कि विश्वमित्र ? त्यो अशोकेस“ग रातभर खुब रङरेलिया मनायौ ?’
अशोक विवाहअगाडि मलाई मन पराउने एउटा युवक थियो । मेरो चरित्रमाथि त्यत्रो आशङ्का ? म रिसले आगो भए“ । जङ्गिएर भने“, ‘मेरो मन, मेरो शरीर... मेरो खुसी । सुते“ नै भने पनि के गर्न सक्छौ ?’
‘म तिमीलाई घरबाट निकाल्छु । तुरुन्तै निस्किहाल ।’ मलाई उनले जबरजस्ती घर बाहिर निकालेर  ढोका लगाए । फेरि घर भित्र पस्न दिएनन् ।
मान्छेको चित्त । म उनी इष्र्याले जलेको हेर्न चाहन्थे‘, तर म त्यस्तो परिणामको आशा गरिरहेकी थिइन“ । म कुनै पुरुषस“ग लागेकी थिइन“ । उनी मलाई अर्को लोग्नेमान्छेस“ग लागेको लाञ्छना लगाएर नीचा देखाउने कोसिस गरिरहेका थिए । त्यसपछि मेरो उपाय समाज, मण्डली, ठाना, कचहरी मात्र थियो । मेरा बाबु, माइती, नातागोता, इष्टमित्र र साथीभाइहरूको निकै दिन हामी दुईको मेल गराउन सभा, कचहरी र छलफलमा बित्यो ।
म त्यो समयमा छुट्टिएर बस्न पनि सक्थे“ । छुट्टिन नसक्नुको कारण मेरो गर्भमा उनको सन्तान बढिरहेको म दुई जीउकी गर्भवती थिए“ । त्यसै हुनाले पनि अन्तमा हाम्रो मेल भयो । अरूले देख्दा बिग्रेर रोकिएको गाडी फेरि चल्न थाल्यो । हाम्रो दाम्पत्य जीवन अगाडि बढ्न थाल्यो ।
 झिमिक्क आ“खा गर्दाझै“ आज सम्झ“दा तीन दशकको लामो समय बिति सकेछ । अहा, तीन दशक लामो हाम्रो दाम्पत्य जीवन, म र उनी । प्रेम विश्वासको जगमा अवस्थित हुन्छ । एकअर्का प्रतिको हाम्रो  विश्वास र भरोसा मक्किसकेको थियो, फिका भइसकेको थियो । देखाउनका लागि हामी  प्रेमले भिजेको दाम्पत्य जीवन गुजारिरहेको आडम्बर गथ्यौ“ । सुखी र खुसी देखिनेदेखाउने नाटक खेलिरहेका हुन्थ्यौ“ ।

आज धेरै वर्षदेखि म आफैलाई सोधिरहेकी छु— के मैले चोखो प्रेम पाएकी छु ? प्रेमको स्वाद चाखेकी छु ? विपरीतलिङ्गीबाट पाइने प्रेम, सुख र जीवनरस पाएकी छु ? सा“चो हा“सो र रोदनको वास्तविक स्वाद चाख्न पाएकी छु ? जीवन नाटक नहुनुपर्ने हो । भित्री  अन्तरकुन्तरको गहिराइभित्र अवस्थित चेत, विवेक र विश्वासले जीवनलाई स्वगति दिइ स्वचालित चलायमान गर्नुपर्ने हो । तर कसरी मानिस यन्त्रवत नाटकीय पात्रमा रूपान्तरित हु“दो रहेछ ?
मेल भइसकेपछि हाम्रो दाम्पत्य जीवन हेर्दादेख्दा स्वाभाविक रूपमा चलेको लाग्थ्यो । एउटा पत्नीले गर्नुपर्ने सम्पूर्ण कर्तव्यहरू म पालना गरिरहेकै थिए“ र छु । उनी पनि पतिले पालना गर्नुपर्ने सबै दायित्वहरू पूरा गरिरहेकै थिए र छन् ।
हामी दुई पतिपत्नीको रूपमा एकसाथ बसिरहेका छौ“ । एकले अर्कोलाई देखाउनुपर्ने सबै हार्दिकता, प्रेम वा दायित्व निर्वाह गरिरहेका छौ“ । तर प्रेमका काकाकुल हामी ....। मलाई किनकिन लागिरहेको हुन्छ, उनी मसित जुन प्रेम गर्छन्, दायित्वनिर्वाह गर्छन् त्यो एउटा नाटकमा पतिपात्रले निर्वाह गर्नु पर्ने भुमिका जस्तो मात्र हो । उनी मसित सन्तुष्ट, खुसी र सुखी भएजस्तो देखिन्छन्, बनावटी र देखावटी हो, कृत्रिम हो । किन मलाई त्यस्तो अनुभूति भित्री हृदयको अन्तरकुन्तरमा अज्ञात रूपमै भए पनि भइरहेको छ ? त्यसले मलाई मेरो जीवन सारा ब्रम्हाण्डभन्दा गरुङ्गो बोझ बनेजस्तो लाग्छ । जीवन असफल, निरस, निष्फल भएको भान गराउ“छ । म भित्रभित्र जलिरहेको करुण भावलाई शीतलता प्रदान गर्न नसक्दा छट्पटिएर कोहीबेला रु“दै, कहिले हा“स्दै, कहिले गम्भीर हु“दै उनलाई मैले धेरै पल्ट सोधेकी छु, ‘के तिमी मसित सन्तुष्ट र सुखी छौ ?’
‘म सन्तुष्ट छु । सुखी छु ।’ उनी सधैं जवाफ दिन्छन् । ‘एक स्त्रीबाट एक पुरुषले पाउने सम्पूर्ण कुराहरू मैले भन्दा बढी अरू कसले पाएको होला र ?’
मलाई अझै लागिरहेको छ, उनी ढा“टिरहेका छन्, उनी नाटक गरिरहेका छन् । पति प्रेमी वा आÏनो एक मात्र पुरुष मानेर उनलाई मैले एउटी स्त्रीले दिनुपर्ने पुरुषप्रतिको सम्पूर्ण प्रेम, समर्पण, सुख र अरू सबथोक दिने कोसिस गरे“ । आफूसित भएको दिन सकिने सबथोक दिए“ । तर उनी अझै मसित  सन्तुष्ट, प्रसन्न र प्रफुल्लित भएझै“ लाग्दैन । उनी सधैं प्रसन्न, प्रफुलित र सन्तुष्ट भएको स्वाङ पार्छन्, नाटक गर्छन् ।
जीवनभरिको यो एउटा नमीठो, अप्रिय र विरसिलो अनुभूतिको भावले मेरो र उनको जीवन खोक्रो बनाइदिएको छ ।  मलाई सधैं यस्तो लागिरहन्छ, क्षणिक उत्तेजनामा गरेको सानो गल्तीले पनि जीवन मरुतुल्य उजाड, शुष्क र निरस बनाउन सक्तो रहेछ । झुक्किएर पनि गल्ती नहोस भनेर सजग हु“दा, भइरह“दा जीवन झन्झन् आडम्बरी, कृत्रिम, बनावटी,  नक्कली र नाटकीय बन्दै गइरहेछ । यो खोक्रो नक्कलीपनले झन्झन् मलाई पतझड बनाइरहेको छ । किन मलाई यस्तो लागिरहन्छ ?
गणितमा जस्तै  मानिलिउ“m, मैले अर्कै मानिसस“ग विवाह गरेको भए ? कसैसित विवाह नै नगरेको भए ? जीवनको कुनै स्पष्ट भिन्नता  देखा पथ्र्यो होला ? मानिलिउ“m, मानिलिऊ“को यथार्थमा कुनै मतलव हु“दैन तसर्थ त्यसरी कल्पना गर्नु पनि व्यर्थ छ,  तर पनि मन कुनैकुनै बेला बहकिन्छ । बहकि“दा मृगतृष्णाको आनन्द अनुभव हुन्छ । कल्पनामै भोगिरहेको र नभोगेको जिन्दगीको तुलना हुन्छ जसले फेरि असाध्य दुःखी बनाउने गर्छ— जीवन फेरि सुरु गर्न पाए †
जीवन फेरि पनि यस्तै हुन्थ्यो ? जीवन फेरि पनि आडम्बरभित्र अल्झेकै हुन्थ्यो ? आ“... म यो केके सोचिरहेकी ? बेकार  नदुखेको कपाल चोयाले बॉधेर दुखाउनु । नभएको नपाएको कुराहरूको सोधीखोजी, नभोगेको अनुभवको तिर्सना, पूर्णता प्राप्तिको भ्रम, नियतिको बिडम्बना, जीवनको मृगमरीचिका, अति महŒवाङ्क्षा, लालसा जस्ता कुराहरू दुःखका स्रोत रहेछन् क्या र ?
भएकोपाएकोलाई नै सर्वस्व मानेर सांसारिकतामा क्रियाशील भइरहनु उत्तम भनेर नै नक्कली प्रेमको, मायाको, जीवनको नक्कल अभिनय गरिरहेका हुन्छॉै हामीहरू.।
उनको मनभित्र सा“च्चै म पस्न सकेकी छैन । बुझ्न सकेकी छैन उनको मन । उनी मेरा पूर्वप्रेमी थिए । हामीबीचको अस्वाभाविक कलहपछि उनी मेरा पति मात्र रहन गए । प्रेमीसमेत रहिसकेका  पतिको मनपेट अझै मैले बुझ्न सकेकी छैन । कस्तो यो मेरो दुर्भाग्य † मान्छेको मन बुझ्न असम्भव हु“दो रहेछ ।
सायद अझै पनि म पूर्ण रूपले उनी प्रति समर्पित हुन सकेकी छैन । उनीमा समाहित हुन सकेकी छैन । मन अनौठो हुन्छ । नचाहेको कुरो ठ्याम्मै गर्न मान्दैमान्दैन ।  म पनि त उनलाई प्रेमीको रूपमा हेर्न सक्तिन“ । उनी पनि मलाई प्रेमिकाको रूपमा हेर्न सत्तैmनन् होला  र त उनी नक्कली प्रेमको अभिनय गरिरहेका छन्  अथवा हुन सक्छ म नै भ्रान्तिमा छु । मैले जुन मानवप्रेमको रूप, चित्र, स्वरूप वा प्रकृतिको कल्पना गरेकी छु त्यो अवास्तविक छ । यो जगतको क्षणभङ्गुर जीवनमा कसले पो त्यस्तो शाश्वत प्रेम पाएको होला र ?
प्रेमविहीन मेरो बितेको शुष्क जीवन सम्झ“दा रुन मन लाग्छ । तर रोएर नि के फायदा ? जो बित्यो, बितिसक्यो । जीवन फेरि प्रारम्भ गर्न सकिने होइन । रोएर, हा“सेर वा पश्चात्ताप गरेर त्यसमा सुधार गर्न सकिने होइन । नाटक जस्तै नाटक गरेर मेरो अनमोल जीवन  तुरीन लागेको छ । वृद्ध भइसकेका हामी अझै पनि अरूहरूका अगाडि नाटक खेलिरहेका छौ“ देखिनका लागि सुखी हुनुुको, प्रेममय हुनुको ।
म उनलाई प्रेम गरिरहेकी, एक नारीले पुरुषलाई गर्ने समर्पण गरिरहेकी नाटक गरिरहेकी छु । उनी पति भएकोले एक पुरुषले नारीप्रति गरिने प्रेम, दायित्व, त्याग र समर्पण गरिरहेको अभिनय गरिरहेका छन् । यहा“ सबै मानिसहरू नाटकमा झै“ प्रेमी वा प्रेमिकाको, पति वा पत्नीको पिता वा आमाको, छोरा वा छोरीको, साथी वा दुस्मनको अनेकौ“ समयानुकूल विभिन्न पात्रहरूको कलात्मक अभिनय गरिरहेका छन् । सब नाटक खेलिरहेका छन् । भ्रान्तिको सागरमा रुमल्लिएर मानिसहरू भ्रमवश सोधिरहेका छन्— सत्य के हो ? यथार्थ के हो ?  
विशुद्ध जीवन चाख्नभोग्न नपाएकोमा मन चाउरिन्छ । चिथोरिएको हृदयको घाउबाट रगत, पीप र आ“सु बहन्छ । दुख्छ, दुखेर पनि रुन सकिन्न । हा“सिरहेको, बा“चिरहेको स्वाङ पार्नैपर्ने बाध्यकारी परिस्थितिमा थोरै अभिनय गर्दा अरूलाई र आफूलाई पनि फायदा हुन्छ भने किन नगर्ने ? किन जीवन–नाटकमा विविध पात्रहरूको भुमिका नखेल्ने ? त्यसैले होला मेरा पति  मायालु पतिको भुमिका मन नलागिनलागि पनि निभाइरहेका छन् । म पत्नीको... । च्च...च्च...जीवन, कठै बरा बिचरा † नाटकीय कलाशिल्प अभिनय गर्दागर्दै हेर्दाहेर्दै लहैलहै र ख्यालख्यालमा बितेछ †
के जीवन यस्तै नाटक हो ?
कि संसारै अधुरोअपुरो जीवनको कृत्रिम कलाशिल्प मञ्चन गर्नेे एउटा रङ्गमञ्च हो ?


Saturday, December 7, 2024

फुली

 

फुली

 

सरण राई

 

लकरमा रखे हुए सोने के गहनों में से एक छोटी फुली ने मेरा पूरा ध्यान खींच लिया। 

उस फुली को देखते ही हमारे पूरे वैवाहिक जीवन के सुख-दुख के सभी दृश्य मेरी आँखों के सामने झलझलाने लगते हैं। मानो वह फुली हमारे जीवन के प्रेम का प्रतीक, साक्षी, प्रमाण, प्रत्यक्ष सहभागी और प्रत्यक्षदर्शी बनकर हमारे जीवन की कहानी सुना रही हो। सभी दृश्य चलचित्र की तरह मेरी आँखों के सामने दिखने लगते हैं... 

"मेरे मरने के बाद मेरे गहनों को अपने पास रखना, अगर दुख हो तो बेचकर खाना। मेरे नाम की मधेस की जमीन भी अपने नाम पर रखना। मेरा मोबाइल सेट किसी को मत देना, अपने पास रखना आदि आदि..." रातभर रोते हुए जीवन के अंतिम समय में अविरल आँसू बहाते हुए उन्होंने कहा था। उनकी इच्छा के अनुसार मैंने उनके गहनों को अपने पास रखा है। उन गहनों में से फुली ने ही मुझे क्यों आकर्षित किया और मन को झकझोर कर रुला दिया है?! 



टमक मिलती हुई काया, अबोध ग्रामीण बाला, लावण्यता और सुंदरता से प्रदीप्त निर्दोष श्रृंगारविहीन प्राकृतिक आकर्षक हंसमुख दीप्तिमान चेहरा और काम व्यायाम से कस्सी हुई छरहरी कसरती शरीर। दूसरी ओर चमकती हुई नाक की फुली की तरह हंसते हुए मिलती हुई चमकती सफेद दंत पंक्ति। सोचा हुआ, कल्पना किया हुआ उससे भी सुंदर उन्हें पहली बार देखते ही मेरा हृदय झंकृत हो गया और मैं मोहित हो गया। 

मैंने शादी के लिए लड़की मांगने की बात पर सहमति जताई। प्रक्रिया शुरू हुई लेकिन लड़की ने मना कर दिया तो बात रुक गई। रात हो चुकी थी इसलिए उस रात लमी और मैं उनके पड़ोसी के घर में ठहरे। शराब पीते हुए बातें करते और गाने गाते हुए रात काफी देर तक बैठे रहे। लड़की के मना करने के बाद खट्टे मन से मैंने भी बहुत शराब पी ली। 

"सुबह उठकर किसी को देखे बिना जाना है।" मैंने कहा था। 

लमी ने भी "ठीक है" कहा था। 

सुबह देर से ही मैं जागा। देखा लमी नहीं है। रास्ते की ओर देखा तो वह ही हलचल करते हुए पड़ोसी से बात करते हुए गागरी में पानी भरकर डोको में लेकर लौट रही थीं। आँखें मिलीं, मुझे गुस्सा भी आया, शर्म भी आई। सोचा— 'मुझसे शादी करने के लिए नहीं मानीं। क्यों?' 

कुछ देर बाद लमी भी आ गए। 

"बात बनती दिख रही है, सगाई की प्रक्रिया आगे बढ़ाएं?" पूछा। 

मैंने "ठीक है" कहा। 

सगाई की प्रक्रिया शुरू हुई। उसी बीच उनके पिता ने बेटी से पूछा— "राजी हो?" 

"राजी हूँ।" उन्होंने कहा। 

तब मैं खुशी से अनजाने में हंस पड़ा। शादी के बाद उन्होंने बताया कि मैंने हंसी क्यों। इस तरह वह मेरी जीवन संगिनी बन गईं। 

मेरी पत्नी बनने के बाद मैंने उनसे पूछा— "पहले दिन क्यों नहीं मानीं?"

 "कभी न देखे हुए आदमी, क्या और कैसा है? कैसे मानूं? बाद में सोचा कि इतना लड़का ठीक है, फिर मान गई।" उनका सीधा जवाब। निश्छल, पवित्र और साफ मन उनका। मेरा मन संतुष्ट हो गया। वह मेरी सर्वस्व बन गईं। 



शादी में दुल्हन को देने वाले सोने के गहनों के बारे में पारिवारिक चर्चा हुई। घरवालों और मायके वालों ने भी सोने के गहने, पोते, चूड़ा, धागा और कपड़े दुल्हन को दिए। उनकी नाक में लगी छोटी फुली के बारे में मायके और घरवालों ने कोई चर्चा नहीं की, कोई ध्यान नहीं दिया। 

शादी से पहले कन्या रहते हुए ही उन्होंने जो फुली पहनी थी, उसके बारे में मैंने कभी कोई ध्यान नहीं दिया और फुली के बारे में कभी बात नहीं हुई। 

"कब से फुली पहन रही हो?" यह कभी नहीं पूछा। अब किससे पूछूं! किस उम्र से, किस समय से उन्होंने यह फुली पहनी? फुली और उनके जीवन की अविच्छिन्न घनिष्ठता कब से जुड़ी? पता नहीं चला। 

शादी से पहले कन्या रहते हुए ही उन्होंने जो फुली पहनी थी, वही शादी में दुल्हन बनते समय भी पहनी थी। इस तरह फुली शादी से पहले से शादी के दिन तक और मृत्यु तक जीवनभर उनकी नाक में ही रही। 



शादी के बाद के कुछ साल स्वाभाविक रूप से रमणीय होते हैं। मेरे लिए, खुद को पूरी तरह समर्पित एक नारी मेरे साथ अपना जीवन जोड़कर सुख-दुख भोगने के लिए राजी होकर मुझे सब कुछ सर्वस्व समझकर हर पल मेरे साथ रहने वाली जीवन साथी है, यह अनुभूति मुझे हर्षित और गर्वित करती थी। प्रेम में समर्पण का पता न होने पर मैंने पहली बार प्रेम क्या है? कैसा होता है? यह जाना। विपरीत लिंग से मिलने वाला प्रेम, माया-मोह, असीम मानसिक और शारीरिक सुख उनसे पाकर मैं प्रसन्न था। वह भी प्रसन्न थीं। अद्वितीय पूर्ण प्रेम में पूर्ण मिलन से हम दोनों एक-दूसरे में विलीन हो गए थे। सालों का पता ही नहीं चला। रमणीय वैवाहिक जीवन! इंसान इस तरह सुख के दिनों में इंद्रधनुषी रंगों से रंगे प्रेमिल संसार में खो जाता है और खुद को सबसे सुखी महसूस करता है। 

मैं माता-पिता का इकलौता बेटा होने के कारण बचपन से ही लाड़-प्यार में पला और बढ़ा स्वाभिमानी सीधा युवक था। शादी के बाद भी उन्होंने मुझे अपना पूरा प्यार और साथ देकर 41 साल यानी अपनी मृत्यु तक लाड़-प्यार में ही रखा। आनंददायक और प्रभावोत्पादक अपार यौवन सुख और जीवन सुख दिया। एक प्रेमिका और पत्नी से मिलने वाले सभी सुख, प्रेम, माया, मोह और साथ देने वाली उनके जैसी प्रेमिका-पत्नी पाकर मेरा जीवन सार्थक हो गया। 

तीन बेटे साल-दर-साल पैदा हुए। उनके जन्म से परिवार में खुशी की बारिश हुई। हमारा पारिवारिक जीवन सफल और पूर्ण हो गया। फिर भी हमेशा पैसे की कमी से गरीबी का जीवन। शिक्षक की कम तनख्वाह, घर खर्च चलाने के लिए उधार लिए बिना महीना काटना मुश्किल। संपत्ति की कमी के बावजूद प्यारी पत्नी का असीम प्रेम, विश्वास, मनोहर मुस्कान और साथ पाकर मैं वैवाहिक जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं का सामना करने में सक्षम था। वह और मैं! हम एक-दूसरे में घुल-मिलकर एक हो गए थे। प्रेम में पूरी तरह भीग गए थे, और बह रहे थे अविरल जीवन की धारा में एक समय नदी की एक ही बूंद की तरह... 



एक साली थीं हंसमुख, फस्र्याइली और हक्की। जब हमारी शादी हुई थी, उन्होंने कहा था, "तीन बच्चे साल-दर-साल पैदा किए और अब परिवार नियोजन कर लिया है। अब तो निश्चिंत!" हम तीनों ने खूब हंसी की थी। 

साली के जाने के बाद उन्होंने कहा— "मैं भी बहन की तरह ही करूंगी।" 

"ठीक है।" मैंने भी सहमति जताई थी। 

निश्चित रूप से दो बेटे 14 महीने के अंतराल में पैदा हुए। एक और पेट में है, महीना पूरा होने वाला है। उस समय धरान के घर में हम पति, पत्नी और छोटे बेटे रहते थे। 

"अब तीसरा बच्चा पैदा होने वाला है, क्या करें?" उनका सवाल। 

"उन छोटे बच्चों को मधेस में माता-पिता के पास छोड़कर बिराटनगर अस्पताल प्रसूति के लिए जाना।" 

हमारी सलाह के अनुसार बेलबारी तक बस में गए। उस समय मधेस जाने के लिए कोई साधन नहीं था, पैदल चलने के अलावा कोई उपाय नहीं था। बेलबारी में उतरकर छोटे बच्चों को लेकर लगभग चार घंटे पैदल चलकर बोराबान पहुंचे। उस समय ऐसा था कि सभी लोग पैदल ही चल रहे थे। रास्ते में लोग देखते थे— 2 साल 8 महीने और 1 साल 6 महीने के छोटे बच्चों को लेकर चल रहे हम दोनों, उनका बड़ा पेट। 

अगले दिन सुबह तीन घंटे पैदल चलकर बिराटनगर पहुंचे। जैसे भी संकट समस्या आई, हिम्मत न हारने वाली साहसी वह, छोटे बच्चों को मधेस छोड़कर एक और बच्चा पाने के लिए पैदल ही अस्पताल पहुंचीं। बिराटनगर अस्पताल में सबसे छोटे बेटे के जन्म से हमारी खुशी चरम पर पहुंच गई थी। वह समय हमारा सबसे सुखद, संतोषजनक, सुख और आनंद का समय था। 



पांच साल से कम उम्र के बच्चों को पालने के लिए सुबह से देर रात तक खाना बनाना, बच्चों को खिलाना, जूठे बर्तन धोना, पानी भरना, कपड़े धोना आदि कई काम करते हुए भी थकान न होने पर जब मैं काम से लौटता तो मोहक मृदु मुस्कान के साथ मुझे इंतजार करती थीं। उनसे मिलते ही  मैं इतनी खुशी महसूस करता कि सभी अभाव, गरीबी और दुख भूल जाता। उनके साथ होने पर मुझे सबकुछ मिल जाता। सांसारिक जीवन में 'प्रेम है और प्रेम मिला', इससे सर्वोत्तम सुंदर और क्या हो सकता है, क्या चाहिए! मेरे होने पर उन्हें भी कुछ और नहीं चाहिए होता। वह हमेशा घर के अनेक कामों के बोझ से दब जाती थीं। लेकिन मैं मीटिंग का बहाना बनाकर ताश के खेल में भटक जाता। 

उनका मुझ पर इतना विश्वास था कि मुझे जितना भी वेतन मिलता, वह सब रखतीं और कठिनाई से घर चलातीं। मैं ताश खेलने के लिए कुछ पैसे छुपाकर रखता, लेकिन उन्होंने कभी शक नहीं किया। 

उस समय अभी-अभी टेलीफोन आया था। मोहल्ले में केवल हमारे घर में टेलीफोन था, इसलिए टेलीफोन की तेज घंटी बजते ही घर और पड़ोस के सभी लोग सुनने के लिए तैयार हो जाते थे। 

"किसका फोन है?" वह पूछतीं। 

"दोस्त का", कहकर मैं झूठ बोलता। लेकिन जब बार-बार फोन आने लगा तो मैंने सच बता दिया। ताश खेलते समय लिए गए उधार की रकम काफी बड़ी हो गई थी और उधार देने वाला व्यक्ति टेलीफोन पर तकाजा कर रहा था। "ताश खेलते समय लिए गए उधार का तकाजा फोन पर हो रहा है।" 

"कितना है?" 

मैंने रकम बताई। 

"अगर आप ताश खेलना छोड़ देंगे तो मैं अपने गहने गिरवी रखकर वह उधार चुका दूंगी।" उन्होंने कहा। 

उधार देने वाले व्यक्ति के दिन-रात के तकाजे और कचकच, बेइज्जती का डर था। मैंने कहा, "छोड़ दूंगा"। उन्होंने गहने गिरवी रखकर उधार चुका दिया। ताश के व्यसन से मैं मुक्त हो गया। फिर ताश के समय को अध्ययन की ओर केंद्रित कर दिया। 

अगर उन्होंने गुस्सा करके झिड़क दिया होता, तो शायद मैं ताश खेलना नहीं छोड़ता। लेकिन उनके प्रेमपूर्ण व्यवहार और मेरे कर्ज को चुका देने के बाद मैं ताश खेलने की आदत नहीं रख सका।

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ताश छोड़ने के बाद मुझमें दूसरी बुरी लत शराब पीने की लग गई। दिनभर काम में व्यस्त रहता, लेकिन शाम होते ही किसी न किसी दोस्त के साथ शराब पी ही लेता। मेहमान आते रहते थे और मेहमान को शराब पिलाने की परंपरा थी, इसलिए घर में भी वह शराब रखतीं। मेहमानों को शराब नहीं पिलाई जाती तो मेहमानों को भी और हमें भी अजीब लगता। बाहर शराब पीकर आने के बाद भी घर में पहुंचने के बाद थोड़ा बहुत शराब पीना ज़रूरी हो जाता था। जवान होने की वजह से शराब हजम हो जाती थी। 

लेकिन एक बार मेहमानों के साथ देर रात तक शराब और मांस खाकर सो गया। रात में नींद में ही जोर से चिल्ला कर मैंने मिर्गी के रोगी की तरह आंखें पलट लीं और बेहोश हो गया। वह भी जवान थीं, इसलिए मजबूत थीं। उन्होंने मुझे उठाते हुए झकझोरा और बेहोश मुझे हाथ-पैर, शरीर की मालिश की। घर में छोटे बालक बच्चे थे। मदद करने के लिए कोई बड़ा आदमी नहीं था। आधे घंटे के बाद मुझे होश आया। सुबह उन्होंने यह सारी बातें बताईं। रात की उस घटना की मुझे कोई जानकारी नहीं थी। अगर उनकी मदद नहीं मिलती, तो शायद मैं नींद में ही मर गया होता। 

सुबह डॉक्टर के पास गए। डॉक्टर ने मुझे सिलीगुड़ी के डॉक्टर के पास भेज दिया। सीटी स्कैन की रिपोर्ट देखकर डॉक्टर ने बताया कि दिमाग में सिस्ट है। उच्च रक्तचाप की दवा तुरंत शुरू की। एमआरआई के बाद रिपोर्ट देखकर कहा— “एक महीना दवा खानी होगी, दवा से आराम नहीं हुआ तो ऑपरेशन करना पड़ेगा।” 

शिक्षक की कम तनख्वाह, हमेशा पैसों की कमी। मैं मधेस में रहने वाले मां-पिता से मदद मांगने गया। मां को सब बताया। मां ने असमर्थता जताई, तो निराश और हताश होकर उसी दिन धरान लौट आया। 

“घबराओ मत, काजी। मैं अपने गहने बेचकर भी आपको ठीक करूंगी। आपको अलावा मुझे और कुछ नहीं चाहिए।” उन्होंने कहा। उनके प्रेमपूर्ण दिलासा और त्याग ने मुझे रुला दिया। 

अगले दिन पिता आए। मेरा मन उत्साहित हुआ— उपचार के खर्च देंगे कि !

“जन्म लेने के बाद हर किसी को मरना होता है, चिंता मत करो। सबको मरना पड़ता है।” पिता ने कहा। मेरी उम्मीद टूट गई। मां-पिता ने मुझसे माया छोड़ दी थी। वे सोचते थे कि मैं, उनका एकमात्र बेटा, अब नहीं बचेगा। इतना कहकर पिता लौट गए। 

उन्होंने अपने गहनों को गिरवी रखकर खर्च की व्यवस्था की। उस समय मेरी बोली भी लड़खड़ाने लगी थी। मृत्यु के भय और जीवन के अंत के अनुभव से उदास मन, यह सोचकर कि जीवित रहूं, सहारा खोजता था। मृत्युबोध कितना कष्टकारी होता है, मैंने उस समय अनुभव किया। दवा से ही ठीक हो गया, ऑपरेशन नहीं कराना पड़ा। पत्नी होने के बावजूद उन्होंने उस समय मेरी मदद की, जिससे मैं और उनके करीब हो गया और उनके साथ एकाकार हो गया। मेरा पूरा जीवन और आत्मा उनके लिए है, और हम एक-दूसरे के लिए ही पैदा हुए हैं और एक-दूसरे के सर्वस्व हैं। एक साथ सहे हुए सुख-दुख ने हमें एक एकल इकाई में बदल दिया, कि हम एक-दूसरे के बिना एकाकी अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते। 

जीवन में इस तरह की घटनाएं— बीमारी, दुर्घटना, झगड़े, मुकदमे, जन्म, नामकरण, छेवर, पास्नी, विवाह, मृत्यु, और मृत्यु संस्कार आदि— को हमने एक साथ सहा और झेला। 

मेरे सुख में वह मुझसे दोगुनी खुश और मेरे दुख में मुझसे दोगुनी दुखी थीं। 

लेकिन एक बार वह दो-तीन दिन के लिए देवरानी को भी साथ लेकर मायके गई थीं। हमारे विवाह के बाद ससुर ने दूसरी शादी की थी। 

रात में किसी बात पर विवाद हुआ, कहासुनी हुई और पिता के हाथों से शादी कर चुकी उनकी बेटी को मार पड़ी। अगले दिन वह वापस आईं और रात में रोते हुए मुझे सुनाया। गुस्सा, घृणा और पीड़ा से मैं इतना आहत हुआ कि सोचा— ससुर ने मेरी शादीशुदा बेटी को एक दिन मायके आने पर मारना नहीं चाहिए था! उस रात उन्हें दिलासा देते हुए मन में उठे आक्रोश को प्रेम में बदल कर उन्हें पूरी तरह से भिगो कर वह घटना भूलने को कहा। इसके बाद मायके जाने की भी संख्या कम हो गई। हम और करीब होकर एक-दूसरे में पूरी तरह से समर्पित हो गए। 

ऐसे क्षण कितने आए, गए, जो यादों में संग्रहित हो गए हैं। उन सबका साक्षी हमेशा उनकी नाक में रही वह फुली थी और ...फुली को देखकर अब अकेला मैं उन सबको याद कर रहा हूं। कभी-कभी आधी रात या रात के किसी पहर में उनकी याद आने पर दिल चीर जाता है, उठकर बैठ जाता हूं और गुमसुम हो जाता हूं। लेकिन एकल जीवन में... “काजी, क्या हुआ?” पूछने वाली वह कहां हैं!



बचपन में, जब मैं काठमांडू में पढ़ रहा था, एक विवाहित मित्र ने मुझे अपनी पत्नी के लिए हीरे की फुली खरीदने के लिए दुकान पर साथ ले गए। उस समय उन्होंने 400 रुपये में हीरे की फुली खरीदी थी। उस समय होटल महीने भर का खाना 100 रुपये में देते थे। उस दुकान को याद करते हुए, मैंने उन्हें कहा था— "मैं तुम्हारे लिए हीरे की फुली खरीदूंगा।" 

"ठीक है!" उन्होंने प्रसन्न होकर कहा था। 

मैंने सोचा था कि पहले जिस दुकान से मित्र ने हीरे की फुली खरीदी थी, वह अब भी होगी। उस समय 400 रुपये में मिलने वाली हीरे की फुली अब अधिकतम 4000 रुपये में मिलेगी। पैसे का इंतजाम करके हम पति-पत्नी उस दुकान वाले स्थान पर पहुंचे। किस दुकान की बात करते हैं! वह दुकान नहीं थी। कहीं और हीरे की फुली की दुकान ढूंढी, नहीं मिली। हीरे की फुली खरीदने का विचार हमेशा के लिए टल गया। हीरे की फुली ने उनकी फुली को विस्थापित करने का विचार खो दिया। हमेशा पहनी रहने वाली फुली मृत्यु तक उनके साथ रही। 



जब संकट आता है, तो तूफान की तरह आता है। बच्चों की स्कूल फीस, ड्रेस, दवाई, टेलीफोन बिल, बिजली, पानी आदि के अनेक खर्चे। संभालना मुश्किल हो रहा था। इसके अलावा परिवार के किसी सदस्य के बीमार होने पर सोना गिरवी रखकर उपचार कराने की मजबूरी। सिक्के, मंगलसूत्र, अंगूठी चूड़ा आदि फुली को छोड़कर सभी सोने के गहने गिरवी रख चुके थे। निकाल नहीं पाए, तो बिक गए। बेचने की इच्छा नहीं होने के कारण गिरवी रखा था। 'पैसे आने पर निकाल लेंगे' सोचते रहे और सूद बढ़ता गया, निकाल नहीं पाए। 

बेचारी उनकी नाक-कान बुच्चे। गरीब शिक्षक की पत्नी! शादी के निमंत्रण आते थे, जाने से मना कर देती थीं। कई विवाह में नहीं गई, तो मैंने सोचा— 'क्यों नहीं जातीं।' शादी में औरतें सोने से सजी हुई आती थीं। दोस्तों के सामने शर्मिंदगी की सोचकर शादी में जाने से मना करती थीं। लाहुरे भाई छुट्टी में आते तो गहने खरीद देते थे। अगली बार आते तो बहन के नाक-कान बुच्चे। 

हमेशा पैसे की कमी, गहने नहीं हैं। रूखा-सूखा जीवन होने पर भी उन्होंने मुझसे 'गहने नहीं खरीदे, जो थे वे भी खत्म हो गए और कभी पैसा नहीं कमा पाए' कहकर शिकायत नहीं की। सुबह से रात तक घर खर्च चलाने के लिए कई मुश्किलें झेलती थीं। साहूकार से ऊन लाकर मजदूरी में स्वेटर बुनती थीं। जंगल से लकड़ी लाकर लकड़ी का खर्च बचाती थीं। मुर्गी पालन, भैंस पालन, बीड़ी फैक्ट्री, गारमेंट, बैग फैक्ट्री, क्या नहीं किया? कड़ी मेहनत करती थीं, परिवार के लिए बहुत त्याग करती थीं, लेकिन समय ने साथ नहीं दिया। फिर भी हमने कभी हिम्मत नहीं हारी। हम दोनों स्वस्थ रहने तक कभी दुखी नहीं हुए। वे होतीं तो मेरी दुनिया रंगीन होती, मैं होता तो उनकी खूबसूरत दुनिया। 

हमारे बीच पैसे की कमी होते हुए भी प्यार, विश्वास और साथ की कमी नहीं थी। हर आर्थिक समस्या को हंसते-हंसते झेलते थे। माता-पिता, मैं और पत्नी, बच्चे, बहू-बेटे, फिर पोते-पोतियां, हमारा सुखी परिवार! उनके रहते मेरे सुख के दिन...। 

मुझसे पहले और मेरे साथ रहते हुए भी उनकी फुली हमेशा उनकी नाक में थी। उन्होंने अकेले और हमने साथ मिलकर सुख-दुख झेले। वह छोटी फुली मेरे सामने आकर पुरानी यादों में ले जाती है। 

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2015 के आम चुनाव में हारने के बावजूद, पिता जी राजनीति में सक्रिय थे। लेकिन 2017 में राजा ने संसद भंग कर बहुदलीय व्यवस्था समाप्त करने की घोषणा की और दल प्रतिबंधित हो गए। 

इसके बाद, पिता जी पहाड़ छोड़कर मधेस में आ गए। नए खुले झोडा में खेती शुरू की। सौभाग्य से, हमने जो झोडा खेती की थी, वह भूमि पिताजी और मेरे नाम पर दर्ज हो गई। हम दस बीघा जमीन के मालिक बन गए। 

उस समय राजमार्ग नहीं बने थे। बरसात में हर जगह कीचड़, पानी, कच्ची सड़क पर चलना मुश्किल होता था। अमीर लोग घोड़े पर चलते थे। गांवों में घोड़ा ही एकमात्र साधन था। पिता जी ने भी घोड़ा खरीदा था। फिर पूर्व-पश्चिम राजमार्ग, सड़कें, रास्ते बने। साइकिल आ गई। साइकिल ने घोड़े को विस्थापित कर दिया। घोड़ा गायब हो गया। 

पिता जी ने भी साइकिल चलाना शुरू कर दिया। जीवन भर साइकिल चलाते-चलाते 76 साल की उम्र में उन्होंने मोटरसाइकिल चलाने की इच्छा व्यक्त की। मोटरसाइकिल खरीदी और सीखते समय ही दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। 

पिता जी की मृत्यु के बाद, मधेस में खेती की देखभाल के लिए माँ अकेली रहने लगीं। धरान में हमारे साथ रहने के लिए तैयार नहीं हुईं। 

बेटे एसएलसी पास कर गए। हमारी खुशी की सीमा नहीं रही। मंझला और छोटा बेटा आईए में ही रुक गए। शिक्षक के बेटे होने के बावजूद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। 

पढ़ाई छोड़ने का कारण नशा था। नशे की लत में पड़ने का पता चलने तक देर हो चुकी थी। माँ ने कहा— "एक अंडा सड़ा हुआ है, फेंक दो।" बहनें छी-छी कर रही थीं। रिश्तेदार मुंह बनाते और मजाक उड़ाते। 

"मत घबराओ माइजू, एक दिन सब ठीक हो जाएगा।" एक भतीजे के विश्वास ने उन्हें जीवन भर प्रेरणा दी। 

नशे की लत में परिवार का एक ही सदस्य पड़ जाए, तो परिवार की स्थिति कितनी करुणामय हो जाती है? यह हमने भुगता। घर का सामान गायब हो जाता, जेब के पैसे गायब हो जाते। मेहमान आते तो डर लगता, किस समय मेहमान का सामान गायब हो जाएगा? घर के अंदर तो अशांति फैलती ही, मन में भी अशांति, पीड़ा, आक्रोश और निराशा व्याप्त हो जाती थी कि 'सपने सब उड़ा ले गई आंधी।' 

कितना भी बिगड़ जाए और कुछ भी हो, लेकिन दिल से प्यारे बच्चे... उनकी शरारतें सहनी ही पड़ीं। माँ का विश्वास और दिल। कर्ज लेकर सुधार केंद्र भेजा। बहादुर वे, उन्होंने बच्चों को सुधारने के लिए क्या नहीं किया? उनके परिश्रम, विश्वास, मेहनत और लगन ने बिगड़े बच्चों को सुधारा। 

वही बिगड़े बच्चे, उनके जीवन के अंतिम समय में, उन्हें देखभाल और सेवा करते थे। धन्य वे! उनकी मृत्यु से पहले, मैं लाश को नहलाने वाले दो भाइयों से कहा— "तुम्हारे सुधारने से ही तुम्हारी माँ मरीं।" 

लाश ने जिंदा आदमी की तरह नहीं सुना। लेकिन उस समय तक उनकी लाश की नाक में वही फुली थी और जब मैंने यह कहा, तो वह फुली देखकर याद आता है। 

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बड़ा बेटा ठीक से पढ़ रहा था। बीच के और छोटे बेटे सुधरने के बाद भी हमारी आर्थिक स्थिति नहीं सुधरी, बल्कि और खराब हो गई। हम कर्ज में डूबे हुए थे। पिताजी के निधन के बाद भी माँ अकेली मधेस की खेती देख रही थीं। 

कर्ज से उबरने के लिए किस्तों पर कर्ज लेकर मैंने, पत्नी और दो बेटों ने मधेस में खेती करने का फैसला किया। हमें उम्मीद थी कि ट्रैक्टर के जरिए अपने दस बीघा जमीन पर खेती करके कर्ज चुका पाएंगे। 

“अगर तुम लोग मधेस में खेती करने रहोगे तो मैं घर छोड़कर चली जाऊंगी, घर में नहीं रहूंगी।” माँ ने कहा और साथ ही घर छोड़कर मायके चली गईं। पत्नी और मैंने फैसला किया कि माँ को दुखी करके खेती नहीं करेंगे और मधेस में नहीं रहेंगे। नए ट्रैक्टर ने हमारे लिए कोई काम नहीं किया।

 वह अगले दिन ही धरान लौट गईं। मैं उन्हें बेलबारी तक छोड़ने गया, उन्होंने कहा, “चाय पीकर विदा हो जाएं।” 

मैंने कहा, “मेरे पास पैसे नहीं हैं।” 

उन्होंने कहा, “मेरे पास हैं।” और चाय पीकर वह धरान चली गईं। मैं बोराबान लौट आया, मन में विदाई की कड़वाहट लिए। मैं अब भी वह बात याद करता हूं। उस समय की विदाई मृत्यु से कहां तुलना कर सकती है! कुछ दिन बाद मेरा जन्मदिन था और उनके न होने पर वह बहुत फीका लगा। अब तो मेरे सभी दिन उनके बिना फीके हो गए हैं। 

पिताजी के जीवित रहते हुए ही हमने सात बीघा पर गन्ने की खेती के लिए कर्ज मंजूर कराया था। बाद में, केवल चार बीघे पर खेती होने की वजह से पूरा मंजूर किया गया कर्ज नहीं मिल सका। गन्ने की खेती में भी हम सफल नहीं हो सके। संपत्ति होते हुए भी उसे अपनी इच्छा के अनुसार कभी उपयोग नहीं कर पाए। 

वैवाहिक जीवन हमेशा एकसमान नहीं होता है। इसमें सुख और दुख के पल आते हैं। प्यार और स्नेह में भी ईर्ष्या, घृणा और अनादर शामिल होते हैं। थोड़ा सा इधर-उधर हुआ तो प्यार घृणा में बदल सकता है। हमारे वैवाहिक जीवन में भी उतार-चढ़ाव आए। कई घटनाओं ने प्रेम की परीक्षा ली, लेकिन उनके निधन तक हमारा प्यार अटल रहा। 

सबके वैवाहिक जीवन में आने वाले कई आरोह-अवरोह हमारे जीवन में भी आए। प्यार में ईर्ष्या भी होती है, यह एक छोटी घटना से साबित हुआ। सुंदर होने के कारण सभी उन्हें पसंद करते थे। कहीं मुझे धोखा तो नहीं दे रही? शक के इसी उन्माद में एक बार मैंने उन्हें मारा, काटने की कोशिश की। वह चुपचाप देखती रहीं, कोई जवाब नहीं दिया। मैंने उन्हें मारकर घर छोड़ दिया। दो दिन बाद लौटने पर उनका होंठ सूजा हुआ था। लेकिन उन्होंने मेरे लिए केले की शुद्ध शराब बनाई थी। पहले भी उन्होंने असोज के फूल, आंवला और किम्बू की स्वादिष्ट शराब बनाई थी। उन्होंने मुझे केले की शराब पीने दी, जिससे मेरा सिर शर्म से झुक गया। मैंने उन्हें मारने का असली कारण ईर्ष्या था। मैंने उन्हें डराने के लिए काटने की कोशिश की। बिना वजह मारने पर मुझे शर्म आई। माफी मांगने की जरूरत नहीं पड़ी। उन्होंने मुझे माफ कर दिया और हमारा प्यार और मजबूत हो गया। हमारे बीच का अज्ञात आंतरिक प्रेम और प्रबल हो गया और सतह पर भी दिखने लगा। एक रेडियो कार्यक्रम में सुना था कि 'मारने वाले पति को पत्नियां ज्यादा प्यार करती हैं।' शायद ऐसा ही लगा। इसके बाद वह घटना कभी दोहराई नहीं गई। उन्होंने भी उस घटना के बाद कभी बात नहीं की। कोई मौका न आने पर मैंने भी कभी यह पुष्टि नहीं कर पाया कि उस समय मैं सच में गुस्से में नहीं था, सिर्फ नाटक कर रहा था। कई बातें मुझे कहनी थीं, लेकिन कह नहीं सका। मुझे अब भी पछतावा है कि मैंने उन्हें नहीं सिखाया कि कैसे वे मेरे अत्यधिक विचलित होने पर मन को संभालें। अब कहां सिखाने को पाऊंगा! 

सबके वैवाहिक जीवन में घटित होने वाली घटनाएं हमारे जीवन में भी घटित हो सकती हैं। हमारे बीच के विश्वास और मजबूत प्यार ने सभी को सह लिया, जिसका साक्षी फुली है। 

धरान में अनेक छोटे काम करके घर चलाने में उन्होंने काफी मेहनत की। घर के काम, खाना पकाना, कौन सी सब्जी बनानी है? कैसे परिवार में सुख-शांति बनाए रखना है? ऐसी समस्याओं में आम गृहिणियों की तरह उनका जीवन बीता! मधुमेह रोग के बढ़ने से उनके गुर्दे खराब हो गए और डायलिसिस करते-करते उनका प्राणांत हो गया। मेहनती अगर खेती कर पातीं, तो खेती से होने वाला व्यायाम मधुमेह को इतनी जल्दी नहीं बढ़ने देता! पड़ोसी मेरे साथी अभी भी खेती करते हुए जीवित हैं, सोचता हूं कि शायद वह भी जीवित रहतीं। लेकिन अब कल्पना का कोई अर्थ नहीं है। 

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 "मैं तुम्हें ताजमहल घुमाने ले जाऊंगा।" नजदीक का ताजमहल दिखाने का हिम्मत करके मैंने पत्नी से कहा था।

 "मैं तुम्हें मेरे पुश्तैनी गांव ले जाऊंगा।" मैंने कहा था, लेकिन समय कभी अनुकूल नहीं हुआ। 

पत्नी को मधुमेह हुए कई साल हो चुके थे। मधुमेह ने अपनी ताकत दिखाना शुरू कर दी थी, मूत्र संक्रमण ठीक हो जाता फिर उभर आता, बुखार, उल्टी और कमजोरी के लक्षण होने लगे। क्रिएटिनाइन बढ़ने लगा था। 

समय पर शौच नहीं होती, भूख नहीं लगती और शारीरिक समस्याएं होने लगीं, तो हम स्थानीय अस्पताल गए। मैं और वह दोनों पैदल ही गए थे। अस्पताल में भर्ती होकर दो दिन बाद ही उनकी हालत ऐसी हो गई कि उठ भी नहीं पा रही थीं। बेहोशी जैसी स्थिति में ही उन्हें काठमांडू ले गए। 

प्राइवेट अस्पताल की पहली प्रतिक्रिया थी— "कैसा अस्पताल है? शौच तो करा सकते थे।" 

उनका पेट फूला हुआ था, हाथ-पैर भी सूजे हुए थे। उन्होंने खाना छोड़ दिया था और बेहोशी जैसी हालत में थीं। अस्पताल ने उन्हें दवाई दी और शौच कराया। 

"कैसा लग रहा है?" दीदी ने पूछा, "अब ठीक लग रहा है।" उन्होंने कहा। 

दो हफ्ते अस्पताल में रहने के बाद छुट्टी मिली। पूरी तरह ठीक होने तक सालो के घर पर रुकने का फैसला किया। बहन और भाभी मिलने आए थे। शनिवार को दोपहर 11 बजे के आसपास भूकंप आ गया। बच्ची को गोद में झूला झूलाने जैसा था, दूसरी मंजिल पर बैठे हम झटके पर झटके महसूस कर रहे थे। भागने का मौका नहीं था। अब रुक जाएगा, सोचकर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर बैठे रहे। आखिरकार, यह रुका। साली लोग उन्हें पकड़कर नीचे ले आए। खुली जगह में सारे लोग जमा हो गए।

 सुनने में आया कि धरहरा गिर गया। सात मंजिला इमारत गिर गई और 40 लोग मारे गए। सिन्धुपाल्चोक और काठमांडू में सबसे ज्यादा लोग मारे गए। पूरे देश में भूकंप आया, हमने भी काठमांडू में रहते हुए इसे महसूस किया। 

अब हमारी दिनचर्या में नियमित रूप से अस्पताल जाना शामिल हो गया। शुगर, क्रिएटिनाइन, पोटैशियम, सोडियम, फॉस्फोरस आदि की अनेक रक्त जांच कराना और डॉक्टर को दिखाना और डॉक्टर से दवा लेना। दवा के सहारे जीने की मजबूरी थी, लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी। ऐसी स्थिति में ताजमहल घूमने और पुश्तैनी गांव जाने की बात भी बेमानी हो गई। मुझे वह इच्छा अब भी है... लेकिन अब क्या हो सकता है!

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"अगर जिंदा लौट आई, तो अगली बार भी नाचना पड़ेगा।" उन्होंने धरान के घर में आखिरी साखेवा के दौरान कहा था। ऐसा कहते हुए उन्होंने जबरदस्ती मुस्कुराने की कोशिश की थी। अंदर के दर्द को छिपाने के लिए जब दूसरी ओर मुड़ीं, तो उनकी नाक की फुली पर सूरज की किरणें पड़ने से वह चमक उठी। फुली को देखते ही वह क्षण अभी भी ताजा लगता है। 

"बचेंगे, बचेंगे। नाचेंगे, नाचेंगे!" नाचने वालों ने कहा था। 

उसी साल का वह नाच उनका आखिरी नाच बन गया। 

हम अस्पताल गए, उनकी तबीयत ठीक थी। लेकिन कमरे में वापस आने के बाद उल्टी शुरू हो गई। फिर अस्पताल गए। "पोटैशियम बढ़ गया है, इससे किसी भी समय दिल बंद हो सकता है।" डॉक्टर ने कहा, और उन्हें भर्ती कर लिया। 

उनकी हालत गंभीर हो गई, और 15 दिनों तक आई.सी.यू. में रखा गया। डायलिसिस नियमित रूप से हफ्ते में तीन बार हो रही थी। डायलिसिस आई.सी.यू. में ही होती थी। गंभीर स्थिति में वे कुछ भी बोलने लगीं। 

डॉक्टर ने कहा कि जब किडनी काम करना बंद कर देती है, तो दूषित पानी मस्तिष्क में चला जाता है, जिससे मरीज बहकने लगता है।

 "काजी, काजी!" चिल्लाकर वे आई.सी.यू. को हिलाती थीं। नाक की पाइप और अन्य उपकरण खींचकर निकालने की कोशिश करती थीं, इसलिए उन्हें बांधकर रखा गया। 

आई.सी.यू. में मरीजों से मिलने का निश्चित समय था। उस समय मिलने पर वह रो रही थीं और बोलीं, "काजी, मैं..." आगे कुछ नहीं कह पाईं। मन भारी हो गया, लेकिन उनके सामने रोकर, उन्हें आंसू दिखाकर कमजोर नहीं करना चाहता था। मैंने कहा, "मैं तुम्हें ठीक करके सौराहा, चंद्रागिरी घुमाने ले जाऊंगा। घर लौटते समय इस बार जनकपुर भी घूमेंगे।" उन्होंने ध्यान से सुना। जीवन और मृत्यु के बीच झूलती उनकी आंखों से आंसू पोंछ दिए। वह रुमाल अब भी मेरे पास है। 

15 दिनों में थोड़ी ठीक होकर वार्ड में शिफ्ट किया गया। लेकिन मानसिक स्थिति वही रही। कुछ भी बोलने लगतीं, दूसरों की बातें सुनकर उसी में कुछ और जोड़ देतीं। 

आई.सी.यू. से ही खाना खाने की स्थिति नहीं थी। नाक से इरिगेशन पाइप द्वारा खाना और दवाईयां पीसकर पानी के साथ दी जा रही थीं। वहाँ वार्ड में एक वृद्ध व्यक्ति से दवाई पीसने का सामान ढूंढते समय मुलाकात हुई। उसने पूछा, "ऐसे खाना खिलाते हुए कितने दिन हुए?" 

"30 दिन हुए।" 

"ओह, मेरे आज पूरे 100 दिन हो गए नाक से खिलाते हुए। आपका तो बोल रही है। मेरा तो कोई हरकत नहीं करता, बोलता भी नहीं है।" निराश उस व्यक्ति ने कहा। 

कुछ दिन बाद, जब पता चला कि उस व्यक्ति ने अपने मरीज को चितवन घर भेज दिया, तो वहाँ काम करने वाली दीदी से पूछा, "ठीक होकर ले जा रहे हैं?" 

"क्यों ले जाते? माया मारकर ही..." दीदी ने कहा। 

मेरा भी दिल ठंडा हो गया। मेरी मरीज की हालत भी वही है। वह भी बहककर कुछ भी बोलने लगतीं। डॉक्टरों ने कहा था कि "डायलिसिस से ही ठीक हो जाएंगी।" लेकिन उस स्थिति में भी वे मुझे बुलाती रहतीं— "काजी, काजी!" मैं हमेशा उनके पास बैठा रहता और मुझे लगता कि वह ठीक हो जाएंगी। 

उसी समय, उनका भाई और भाभी ब्रिटेन से आ गए। 'सरप्राइज' देने बिना बताए आए। बहकती बहन के सामने खड़े होकर भाई ने पूछा— "मैं कौन हूँ?" 

"माइलांग।" कुछ देर निहारने के बाद उन्होंने कहा। भाई को वह माइलांग कहती थीं। ऐसी मानसिक स्थिति में भी "काजी काजी" कहकर अस्पताल हिलाती थीं और फिर भी मुझे, ननद और साली को हमेशा पहचानती थीं। 

अभी भी नाक से इरिगेशन पाइप द्वारा खाना और दवाईयां पीसकर पानी के साथ दी जा रही थीं। वह उस पाइप को खींचकर निकालने की कोशिश करतीं। दो तीन बार निकाल भी चुकी थीं। फुली के बिना नाक के छेद में पाइप डाला गया था। उन्होंने फिर पाइप खींचकर निकाल दिया।

 "क्यों निकाला?" मैंने डांटते हुए कहा। 

वह चुपचाप बैठ गईं। उसी समय फुली निकालने की कोशिश बेटों और सिस्टरों ने की, ताकि पाइप डाला जा सके। लेकिन फुली नहीं निकाल पाईं। फुली उनकी नाक में ही रही। 

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एक महीने की अस्पताल में रहने के बाद वे कुछ ठीक हुईं और डिस्चार्ज होकर हम बेटे के कमरे में रहने लगे। उनके भाई और भाभी वापस ब्रिटेन लौट चुके थे। 

उस साल का दशहरा और तिहार ही उनके साथ बिताया मेरा आखिरी दशहरा तिहार था। दशहरा भी उनकी खराब सेहत के कारण खास आनंदित नहीं हुआ। उन्हें विभिन्न तरीकों से उत्साहित करने की कोशिश करता लेकिन वे कोई उत्साह नहीं दिखाती थीं। जब मृत्यु का भय मन में होता है, तो कहाँ आनंद का स्थान होता है जीवन में? 

तिहार में भाई आएंगे या नहीं, यह उम्मीद उनके मन में रही होगी। हम भी नए लौटे भाई को तिहार में आने के लिए कह नहीं पाए। तिहार से कुछ दिन पहले, मैंने फेसबुक पर देखा कि भाई-भाभी स्विट्जरलैंड की यात्रा कर रहे हैं, और उनसे पूछा, "देखना चाहोगी?" उन्होंने मना कर दिया। उन्हें उम्मीद थी कि जैसे अस्पताल में 'सरप्राइज' दिया था, वैसे तिहार में भी वे टुप्लुक्क आ जाएंगे। पहले साल की तरह तिहार भाई के साथ बिताने की उम्मीद पूरी नहीं हुई। उनका अंतिम तिहार और भी फीका हो गया। 

तिहार के बाद, भांजे और भांजी उनसे मिलने आए। बातें करते हुए, उन्हें उल्टी होने लगी। उन्होंने मुझे पुलुक्क देखा। जब वे गंभीर हो जाती थीं, तो मुझे सहारा के लिए देखती थीं। मैं भी उनके गंभीर होते ही अस्पताल के इमरजेंसी में जाने के लिए हमेशा तैयार रहता था। 

"अस्पताल जाना होगा।" झोलों में जल्दबाजी में अस्पताल के कागजात, दवाइयां रखकर कहा। बेटा भी तैयार रहता था। अस्पताल गए। 

"रक्तचाप बहुत कम है। रक्तचाप बढ़ाने की मशीन आई.सी.यू. में ही है, इसलिए आई.सी.यू. में रखना होगा।" डॉक्टर ने कहा। दो दिनों बाद आई.सी.यू. में थोड़ा ठीक हुआ। 

वार्ड में ले गए। वार्ड में ले जाने के बाद, मैं कपड़े बदलने बेटे के कमरे में गया। एक प्लास्टिक झोले में चॉकलेट के रैपर ही रैपर थे। ठंड का मौसम होने के कारण जब वे बाहर धूप में होती थीं, तो मैं कंप्यूटर पर व्यस्त रहता था। उन दिनों में, धूप में अकेले बैठकर उन्होंने इतनी मीठी चॉकलेट खाई कि उन रैपरों को देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गया। 

डायबिटीज और डायलिसिस करने वाले मरीज अगर खाना छोड़ देते हैं, तो यह समझा जाता है कि वे अस्वस्थ जीवन से थककर शरीर छोड़ना चाहते हैं। कई डायलिसिस करने वाले मरीजों ने खाना छोड़कर मृत्यु वरण किया है। मैंने भी सोचा, क्यों उन्होंने इतना चॉकलेट छुपाकर खाया? 

खांसी होती रहती थी, खांसी रोकने के लिए विक्स, हर्बल चॉकलेट एक-दो देने की अनुमति थी। विक्स, हर्बल चॉकलेट थोड़ी देर खांसी रोकती थीं। वे मुझे इतना प्यार करती थीं कि मेरे हर सुख-दुःख में साथ देना चाहती थीं। लेकिन उन्हें देखभाल करते हुए मेरा दुख देखकर मुझे उससे मुक्ति देने और मुझे एक स्वतंत्र जीवन जीने देने के लिए उन्होंने इतना चॉकलेट खाया होगा। 

स्वस्थ रहते हुए उन्होंने कहा था— "अगर बीमार होकर दुख होगा, तो मैं जहर खा लूंगी।" 

"बीमार होने पर जहर कहाँ मिलेगा।" मैंने मजाक समझकर पूछा। 

"पहले ही खरीद कर रख लूंगी।" उन्होंने कहा। 

डायलिसिस करने वाले डायबिटीज के मरीज के लिए मीठी चॉकलेट जहर ही है। उन्होंने सोचा होगा कि मुझे सुख देने का एकमात्र तरीका अपने बीमार शरीर को त्याग कर मुझे उससे छुटकारा देना है। 

मुझे अर्नेस्ट हेमिंग्वे की आत्महत्या की घटना याद आती है— दो बार के विमान दुर्घटना से मुश्किल से बचने वाले लेकिन गंभीर रूप से घायल हुए नोबेल पुरस्कार विजेता अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने अपने बाकी जीवन को पूरी पीड़ा में बिताया। उन्होंने उस पीड़ा को और सहन न कर पाने के कारण अपने सिर में गोली मारकर आत्महत्या कर ली थी। 

डायलिसिस करते समय, बचे रहने के सारे आधार खत्म हो जाने के भान से हतोत्साहित होकर उन्होंने जहर के रूप में इतना चॉकलेट खाया होगा! 

उन्होंने ताकतवर खाने की चीजें नहीं खानी चाहिए थीं। थोड़ा खाना कम-ज्यादा होने पर ही गंभीर बीमार हो जाती थीं, अपने जीवन से भी ऊब चुकी थीं! सबसे निराशाजनक और दुखद बात यह थी कि उन्होंने जिसे सबसे अधिक प्यार किया, उन्हें अपने कारण दुख पहुंचाना, पैसे का भी खर्च होना। वे बार-बार पूछती थीं, "कितने पैसे हैं?"

 "घडेरी बेचने के पैसे हैं। बैंक में इतने हैं, और साथ में इतने हैं। पैसों की चिंता मत करो, हार मत मानो! मैं हूँ, तुम्हारे लिए सब कुछ करूंगा। ट्रांसप्लांट के लिए मुझे किडनी देने को तैयार हूँ, लेकिन दिल की बीमारी के कारण संभव नहीं हुआ।" मैं कहता था। मैं चाहता था कि उन्हें किसी भी प्रकार की चिंता न हो। 

उन्हें लगता था, "अब मैं ज्यादा नहीं जीऊंगी।" मुझे देख कर दुखी होकर कहतीं— "मैंने सोचा था कि आपको जीवन भर साथ दूंगी। लेकिन काजी, काजी..." आगे कुछ नहीं कह पाईं, रो पड़ीं और आंसू बहाए। 

"मत रोओ, मत रोओ! मैं हूं, खुद को कमजोर मत बनाओ। हार मत मानो। मैं हूँ..." मैंने कहा था। 

"डॉक्टर रमणी ने कहा कि 'दिल बहुत कमजोर हो गया है, मैंने सब कुछ कर दिया है। अब मैं कुछ नहीं कर सकती।' इसलिए अब मैं नहीं बचूंगी, काजी! मैं मरने के बाद मेरे सभी गहने अपने पास रखना, दुख हो तो बेचकर खाना। मधेस की मेरी जमीन भी अपने नाम पर रखना। मेरा मोबाइल हमेशा अपने साथ रखना। मैं मरने के बाद शादी की साड़ी पहनाना।"

 "मैं वह साड़ी नहीं पहचानता।" मैंने कहा।

 "मैंने ननद को बता दिया है, वही पहनाएगी।" उन्होंने कहा। 

उस रातभर वह रोती रहीं। मुझे अभी भी उम्मीद थी कि वह कुछ महीने और जीएंगी। 

अस्पताल के वार्ड में, बेबस वह और बेबस मैं एक-दूसरे को देखकर जी रहे थे। दिनभर रिश्तेदार लोग देखने आते थे और चले जाते थे। रात होने पर हम दोनों अकेले। थकान या कुछ और, जैसे ही फुर्सत मिलती, उनके बिस्तर के पास छोटे बेंच-बेड पर सो जाता था। मुझे हमेशा सोते हुए देखकर वह कहतीं "कितना सोते हो? मेरे मरनेके बाद खूब सोना!" 

अब समझ में आता है, उन्होंने ऐसा क्यों कहा? वह चाहती थीं कि उनके अंतिम समय में मैं उनकी बातें सुनूं और अपनी बातें कहूं, लेकिन 'दवा लो', 'खाना लो', 'रोगी को उठाओ, सुलाओ', देखभाल करते हुए जैसे ही फुर्सत मिलती, सो जाता। अब पछतावा होता है कि मृत्यु के पूर्व आभास से विचलित उनके मन को मैंने सुनकर या कुछ कह कर दिलासा देना चाहिए था! सांत्वना देनी चाहिए थी! उस समय उस कर्तव्य से मैं चूक गया। 

पोटैशियम, ग्लूकोज, सोडियम, फॉस्फोरस आदि कई रक्त जांच। ट्रोपोनिन पॉजिटिव आने के बाद मैंने बेटों से कहा— "तुम्हारी माँ जितने दिन जिएं, हंसी-खुशी के साथ जीने दो!" मैंने उन्हें उन रिपोर्टों के बारे में जानकारी नहीं दी, लेकिन अपने शारीरिक अवस्था और दिल के डॉक्टर की बातों से उन्होंने मृत्यु का पूर्वानुमान कर लिया था। जब हम दोनों अकेले होते, मेरी ममता और अपने नजदीक आ रहे देहावसान की पीड़ा से वह रोती थीं। मैं क्या कर सकता था! केवल चुपचाप देखता रहना। कितने बेबस थे हम! 

दिनभर मेरे पास बैठे देखकर मंझला बेटा कहता— "मैं रात को रहूंगा, आप कमरे में जाइए।" 

वह मना कर देतीं। रोते हुए कहतीं— "तेरा पिता ही रहना चाहिए।" जितने दिन जिएं, वह अंतिम क्षण तक मेरे साथ रहना चाहती थीं, मेरे साथ मरना चाहती थीं। मैं भी जितने दिन वह जिएं, उनके साथ रहना चाहता था। अब साथ रहने के बहुत दिन नहीं बचे हैं, इस चेतना के साथ खिन्नता के साथ-साथ एक-दूसरे के प्रति समर्पण, आकर्षण और प्रेम माया का उबाल हमारे मन, दिल और दिमाग को अस्थिर बना कर हर क्षण उमड़ते बाढ़ की तरह बह रहा था। "मैं रहूंगा" भावुक होकर कहता और रात में भी मैं ही पहरेदार बनता। मुझे देखकर और मेरे साथ रहकर वह जो सुरक्षा, साथ, संतोष और मिलन का अनुभव करतीं— वह उनके अंतिम समय में अमूल्य था। मेरे लिए भी उनका वह साथ अमूल्य था। हमें साथ रहने के बहुत दिन नहीं बचे हैं, इस अहसास ने हमें मन, दिल और दिमाग की गहराई तक छू लिया था,

हम दोनों को यह अहसास हो चुका था कि हमारे पास साथ रहने के लिए ज्यादा दिन नहीं बचे हैं। यह अहसास हमारे दिल, दिमाग और आत्मा की गहराइयों तक छू गया था। हम बस एक-दूसरे को देखे जा रहे थे। मैं उन्हें देखता रहता था और वह मुझे।

उन्हें उठाने, बैठाने और सुलाने की जरूरत पड़ रही थी। वह खुद से उठ-बैठ नहीं सकती थीं, लेकिन उनकी वाणी और दिमाग एक स्वस्थ व्यक्ति की तरह पूरी तरह सक्रिय थे। वह मुझे अपने मन की बातें सुनाती रहतीं—“काजी, मुझे हमारी घूमी हुई जगहें याद आ रही हैं...”

उनकी बातों में उनके भीतर की गहरी पीड़ा थी, एक आर्तनाद, एक चीत्कार, और दिल का चीत्कार गूंज रहा था। उस समय उन्होंने जो दुख, दर्द, और कष्ट झेले, उसका वर्णन कर पाना असंभव है। अब वह जा चुकी हैं, उनका अस्तित्व नहीं है। उस समय उन्होंने जो पीड़ा झेली, वह बड़ी थी, या आज मैं उनके बिछड़ने के बाद जो दुख और दर्द झेल रहा हूं, वह बड़ा है?

सारा प्रेम, स्नेह, लगाव, ममता, आदर, सुख, आनंद, ऐश्वर्य, विलास, शांति, और साथ ही दर्द, पीड़ा, कष्ट, आंसू, घृणा, लालच, बिछड़ने और वियोग की भावना—यह सब केवल जीते जी तक ही सीमित हैं। मरने के बाद सब समाप्त हो जाता है! सब खत्म हो जाता है, हमेशा के लिए। लेकिन उस समय, जब वह मृत्यु की ओर बढ़ रही थीं, मुझ पर उनका जो अगाध और असीम प्रेमभाव था, उसे अब मैं गहराई से महसूस कर रहा हूं। मरने वाले के लिए सभी अनुभव मृत्यु के साथ समाप्त हो जाते हैं, लेकिन जीने वाले अपने खोए हुए प्रियजनों की यादों में जो पीड़ा, कष्ट और बिछड़ने का दुख सहते हैं, वह पूरी दुनिया में व्याप्त है। जीने वाले मरने वालों को जीवनभर भुला नहीं सकते, और शायद भुलाना भी नहीं चाहते। यह भी जीवन का एक अनोखा नियम है।

उनके साथ बिताए 41 वर्षों का सुखद, मधुर, और स्वर्णिम दांपत्य जीवन यदि मैं भूल जाऊं, तो जीवन के इस अंतिम पड़ाव में मेरे पास याद करने के लिए कौन सी घटनाएं, स्मृतियां या अनुभव बचेंगे? केवल एक खोखला जीवन...।

उनकी मृत्यु से पहले मैं एक सुखी व्यक्ति था और मैं दुखविहीन इंद्रधनुषी रंगीन दुनिया में खोया हुआ था। उनकी मृत्यु ने मुझे विछोह की आश्चर्यजनक चोट, असहनीय पीड़ा और असीमित दर्द दिया और मैं रोया। रोती आँखों से मैंने जो शून्यता देखी, वह मेरे जीवन का आठवां रंग है। उनकी मृत्यु के बाद, मैं अनेक दुख, दर्द, कठिनाइयों, रिक्तता, अभाव, पीड़ा, चोट, संताप, यातना, विछोह, वियोग की असहनीय परिस्थितियों में भी जीना चाह रहा हूँ। यह जीवित रहने की अद्भुत, रहस्यमय और अदृश्य नौवां रंग में मैं अभी हूँ और नौ रंगों वाला जीवन जी रहा हूँ। अपने इस नौ रंगी जीवन में मैं उन्हें यादों में अमर बनाना चाहता हूँ। उन्हें अमर कैसे बनाऊं? यह अमर बनाने का प्रयोजन मेरे लिए जीने की प्रेरणा बन गया है। बिना जीवित रहे उन्हें अमर नहीं बना सकता यह बोध मेरी सक्रियता का कारण बना है।

मैंने उस समय कहा था, "चिंता मत करो! मैं तुम्हें ठीक कर के उन जगहों पर फिर से घुमाऊंगा।" लेकिन कहां घुमा सका!

उनकी अंतिम अवस्था हो चुकी बात डॉक्टर ने बताई तब मुझे पता चला— "बीमार व्यक्ति को अपने शरीर के बारे में जानकारी होती है, उसकी अंतिम इच्छा होगी। उन्हें किसी भी समय कुछ भी हो सकता है।"

अब लगा कि उन्हें जीवित धरान घर ले जाऊंगा। बेटों से सलाह की और हवाई जहाज के टिकट का बंदोबस्त किया। धरान घर लौटने की बात पर वे अत्यंत प्रसन्न हो गईं। मंझले बेटे ने उन्हें अस्पताल जैसा बेड खरीदने का वादा किया था। उन्होंने खुशी से कहा, "मंझले ने धरान में अस्पताल जैसा बेड खरीदने का वादा किया है। धरान घर लौटने पर व्हील चेयर खरीदनी पड़ेगी।" व्हील चेयर पर घूमने की उनकी इच्छा! निराशा मन में दबाकर कहा, "ठीक है, खरीद देंगे।" जीवन के अंतिम क्षण में भी जीने की उनकी आशा! 22 तारीख को ही लौटने की मेरी योजना थी, पर उन्होंने एंटीबायोटिक इंजेक्शन लगवाने की वजह से कहा, "26 तारीख को पूरा लगाकर लौटेंगे।" कहीं जीऊंगी सोचते हुए मैंने कहा, "ठीक है।" और 27 तारीख को लौटने का बंदोबस्त किया।

हम 27 तारीख को लौटेंगे, यह सुनकर रिश्तेदार, मित्र सब मिलने आए। दिनभर मिलने वालों की भीड़। सभी से विदा मांगते हुए कहतीं, "जिंदा रहे तो फिर मिलेंगे।" नर्स, डॉक्टर और अन्य डायलिसिस करने वाले मरीजों को भी, "जिंदा रहे तो फिर मिलेंगे।" कहकर सभी से विदा मांग रही थीं।

24 तारीख की रात को उनके भाई ने इंग्लैंड से फोन किया। उन्होंने बात करने से मना कर दिया। मैंने जबरन बात करने को कहा। उन्होंने कहा, "माइलांग, मिलना नहीं हो पाएगा।" और फोन पर रो पड़ीं। मैंने उनका रोना रोकने के लिए "अच्छे से रहाे।" कहने को कहा। उन्होंने ऐसा ही कहा। वह फोन वार्ता ही भाई-बहन का अंतिम संवाद बना। इसके बाद उन्होंने मुझे अपनी बहन और ननद को बुलाने के लिए कहा। मैंने उन्हें बुलाया। क्यों बुलाया, आज मुझे समझ में आया— मृत्यु का सामना करने के लिए व्यक्ति को अपने प्रियजन और रिश्तेदारों का सहारा चाहिए होता है। बहन और ननद को अंतिम सहारे के लिए बुलाया था।

24 तारीख की सुबह ही वे दोनों आ गईं। दिनभर बातचीत में बिताया। शाम को वे लौट गईं। रात में डायलिसिस करवाना था इसलिए मंझले बेटे को भी वहां रहने को कहा। बेटे ने उन्हें डायलिसिस कराने के बाद मुझे जगाया।

"यह आदमी कितना सोता है? डायलिसिस में एक बार भी देखने नहीं आया।" उन्होंने शिकायत की। पिछले हर डायलिसिस में मैं कई बार देखने जाता था। वह मुझे पानी, खाने और अन्य चीजें लाने के लिए कहती थीं। वह आखिरी डायलिसिस रात में काफी देर से हुआ था। 

बिस्तर पर सोने के बाद उन्होंने कहा, "मुझे चॉकलेट दो।" 

"खाना मना है। नहीं दूंगा।" मैंने कहा। 

"सिर्फ एक खाऊंगी।" विनती के स्वर में कहा। 

"सिर्फ एक ही खाओगी?" "सिर्फ एक ही खाऊंगी।" उन्होंने कहा, तो मैंने एक चॉकलेट दी। कितनी मीठी तरह से खाई। अत्यंत प्रसन्न होकर कहा, "एनेमा लगाओ।" एनेमा लगाकर मैं बाथरूम में सामान लेने गया। लौटकर देखा, वे अनंत यात्रा पर जा चुकी थीं! पलक झपकते ही उनकी मृत्यु! मेरा सब कुछ खत्म!! सर्वनाश!!! 

चिल्लाकर नर्स और बेटे को बुलाया। डॉक्टर और नर्स ने अंतिम प्रयास किए। वे जा चुकी थीं। कुछ समय पहले चॉकलेट खाकर खुश हुईं वे अब मृत हो चुकी थीं। रोकर चिल्लाने से क्या होता? चॉकलेट मेरे हाथ से खाकर उन्होंने मृत्यु को गले लगाया। मेरा सब कुछ खत्म हो गया, मेरी सुखी दुनिया धूल-धूसरित हो गई। 

अगर मैंने चॉकलेट नहीं दी होती और बिना खाए वे मर गई होतीं, तो मैं जीवन भर पछताता और खुद को माफ नहीं कर पाता। बड़े बेटे, बहू, बहन, साली, रिश्तेदार, मित्र, सबको फोन कर सूचित किया। उनकी इच्छा अनुसार धरान में ही संस्कार करना तय हुआ और 25 तारीख की रात को उनके शव के साथ धरान पहुंचे। उस रात हमारी ससुराल वाले कमरे में ही उनके शव को रखा गया। सफाई कर गोबर से लीपे हुए फर्श पर उनके शव को रखा गया। मैं शव के पास और आसपास बेटे शव को घेरे हुए बैठे रहे। मैं उनके शव के पास सोया, वह मेरा अंतिम साथ और सुकून था। उनकी नाक में फुली थी। वह फुली उनके जीवन के हर पल में उनके साथ रही थी। उन्होंने अकेले में और मेरे साथ रहते हुए जो सुख-दुख सहे, उसका साक्षी थी। 26 तारीख की सुबह बेटे ने शव का अंतिम संस्कार करने से पहले उनकी नाक से फुली को आसानी से निकाला। अस्पताल में नर्स और मंझले बेटे ने जिसे नहीं निकाल पाया था, उसे बड़े बेटे ने आसानी से निकाला। बहन ने उनकी इच्छा अनुसार शादी का कपड़ा शव को पहनाया। उनके शरीर को झकाझक दुल्हन की तरह सजाया गया... सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार हुआ। मृत्यु के समय व्यक्ति को सब कुछ छोड़कर जाना होता है। छोटी सी फुली भी उन्होंने छोड़ दी। आखिर कुछ भी अपने साथ ले जाना संभव नहीं होता। आज वह फुली देखकर मैं सोच रहा हूँ— अन्य गहनों के बजाय फुली ने मुझे क्यों अधिक आकर्षित किया और रुलाया? खुद ही जवाब दिया, अन्य गहने उन्होंने खास नहीं पहने थे। शादी में पहने गए गहने जैसे मंगलसूत्र, अंगूठी, सिकड़ी आदि कर्ज चुकाने में चले गए थे। अन्य गहने उनकी बीमारी के इलाज के लिए बेचे गए जमीन के पैसों से खरीदे गए थे। उनमें विशेष रुचि नहीं थी। लेकिन... फुली! कई बार उनके आँसुओं से भीगी थी और कई बार फूल, अक्षता, अबीर से रंगी थी! उनकी मधुर मुस्कान के साथ चमकी थी! आनंदित मुस्कान के साथ चमकी थी! प्रेमी पति का चुंबन भी उस फुली ने अनुभव किया था! उनके और मेरे जीवन का साक्षी फुली उनकी नाक में हमेशा रही थी। मैं न होने पर भी फुली उनके साथ रहती थी। मैंने नहीं देखे कई सुख-दुख, आँसू, पीड़ा, अनुभव, भावनाएँ, फुली जानती थी। फुली और नाक एक थे। नाक और फुली की तरह वे और मैं 41 साल के दाम्पत्य जीवन में एक होकर अनेक उतार-चढ़ाव, सुख-दुख साथ भोगे... साथ हँसे, साथ रोए। इन सबका साक्षी फुली हमारे सुख-दुख का साक्षी, प्रमाण, प्रतिबिंब बना है। हम दोनों के प्रेम का प्रतीक वह छोटी सी फुली! पानी से निकाले गए मछली की तरह छटपटाते हुए जीने को मजबूर अकेला मैं... नाक से निकाली गई और पहनने के लिए नाक नहीं रही अकेली फुली! अब वह फुली पहनने वाली मेरी पत्नी लक्ष्मी नहीं है। लेकिन अभी भी उनके द्वारा पहनी गई फुली मेरे पास है। उनकी याद दिलाने वाली वह छोटी सी फुली! पहनने वाले के बिना... फुली!



तुम्हारे विछोह और वियोग में, आँसुओं के सागर में तैरते हुए, मैंने तुम्हारे प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने और (स्पष्ट रूप से) खुद को संभालने के लिए, अत्यधिक दुखी मन को समझाने के लिए लिखा है... 

तुम्हारे द्वारा स्नेहपूर्वक संभाले गए ‘मैं’ को संभालना है

सबसे मुश्किल काम है... तुम्हें याद करके रोने वाले मन को समझाना है!

सुंदर इंद्रधनुषी रंगों ने मुझे सजाया

प्रेम के आकाश में साथ-साथ उड़ाया

तुम अभी भी मेरे दिल में हो, साथ हाे 

नौ रंगी जीवन में भी तुम साथ हो, साथसाथ हाे

असीम प्रेम से भिगोने वाली तुम अजर, अमर, अजन्मरी हो!!

 

मैं तुम्हारे विछोह और वियोग में नौ रंगी जीवन का अनुभव कर रहा हूं। 

जब व्यक्ति दुखविहीन होता है, तो वह इंद्रधनुषी रंगीन दुनिया में खो जाता है। इंद्रधनुष के रंग होते हैं सात रंग, और दो रंग और होते हैं? डाँफे के नौ रंग। वे क्या होते हैं? सात रंगों के अलावा दो रंग होते हैं— जब असहनीय शोक व्यक्ति के जीवन में आता है, वह रंगहीन अनुभवों के साथ एक शून्यता महसूस करता है। रोती आँखों से जो रंग दिखता है, वह आठवां रंग है। नौवां रंग अनेक दुख, दर्द, कठिनाइयों, रिक्तता, अभाव, पीड़ा, चोट, संताप, यातना, विछोह और वियोग की असहनीय परिस्थितियों में भी जीने की इच्छा है। यह जीवित रहने की अद्भुत, रहस्यमय, अदृश्य रंग नौवां है। 

इस तरह जीवन नौ रंगी होता है।

नौ रंगी जीवन में भी तुम साथ हो, तुम साथसाथ हो।

 वे सपनों में आती हैं। क्या सपनों में आना, सपनों में मिलना, मेरे नौ रंगी जीवन में उनका साथ देना है? 

जब मैं अत्यधिक निराश और उदास होता हूं, पलायन की मुक्ति को सोचता हूं, तब वे सपनों में आती हैं। एक बार सपने में मैंने उन्हें हल्के सुनहरे रंग की चमकदार, सुहावनी पोशाक पहने हुए देखा, वह इतनी प्रसन्न थीं, जैसे चाँदनी की तरह चमक रही थीं और हंस रही थीं! मैंने उन्हें जीवित अवस्था में ऐसा कभी नहीं देखा था। प्रसन्न होकर और खुशी से जागा। मुझे लगा, वह जीवित हैं और कहीं गई हैं। सपने में देखा वह उज्ज्वल, हंसमुख रूप मेरे वास्तविक जीवन के मुरझाए मन-फूल को ताजा करता है। मेरे भीतर जीवित रहने की अद्भुत, रहस्यमय, अदृश्य नौवां रंग खिल उठता है।

 सपने का निर्माता कौन है? चाहकर तो सपने नहीं देखे जाते। सपने में उन्हें देखकर और मिलकर मैं कुछ और दिन जी पा रहा हूं। एकल जीवन में सपनों में भी उनकी उपस्थिति... सपने भी जीवित रहने की प्रेरणा देते हैं। 

“काजी! काजी...” 

“हां...” प्रसन्नता के साथ मेरे मुख से जवाब निकलता है। 

क्या फुली ने बोला? 

नहीं, निर्जीव फुली कैसे बोल सकती है?! 

मुझे मेरे पारिवारिक नाम 'काजी' से बुलाने वाले मेरे परिवार के तीन ही लोग थे— पिता, माता और पत्नी। माँ 93 साल की हैं, सुन नहीं सकतीं और हमारे बीच बातचीत नहीं होती। पिता और पत्नी का देहांत हो चुका है। 

साधारण आम लोगों के आँसुओं के सागर में दुनिया तैर रही है। उस सागर में मेरे भी आँसू मिले हैं। चाहे कितना भी अकिंचन, नगण्य हो, कोई न कोई किसी के लिए अत्यधिक प्रिय और अपरिहार्य होता है। वह मेरे लिए ऐसी ही थीं। 

“काजी! काजी...” मैं सुनता हूं। पत्नी लक्ष्मी ने ही बुलाया। चारों ओर देखता हूं, कोई नहीं है। कहीं यह भ्रांति है या...! सपना है या! पर मैं जाग रहा हूं। “

काजी! काजी...” मुझे स्पष्ट सुनाई दे रहा है। वे ही बुला रही हैं... 

जीवित लोग हमेशा यहाँ नहीं रह सकते। यह जीवन का नियम है! 

शायद अब मुझे भी फुली को पत्नी की तरह यहीं छोड़ कर जाने का समय आ गया है...! 

अंतिम क्षण! जैसे वह रोईं, वैसे ही मैं भी अपने अधूरे, अपूर्ण जीवन के अंत और उन्हें याद कर धुरुधुरु रो रहा हूं और विदा मांग रहा हूं... “

फुली! विदा...!