Saturday, December 7, 2024

फुली

 

फुली

 

सरण राई

 

लकरमा रखे हुए सोने के गहनों में से एक छोटी फुली ने मेरा पूरा ध्यान खींच लिया। 

उस फुली को देखते ही हमारे पूरे वैवाहिक जीवन के सुख-दुख के सभी दृश्य मेरी आँखों के सामने झलझलाने लगते हैं। मानो वह फुली हमारे जीवन के प्रेम का प्रतीक, साक्षी, प्रमाण, प्रत्यक्ष सहभागी और प्रत्यक्षदर्शी बनकर हमारे जीवन की कहानी सुना रही हो। सभी दृश्य चलचित्र की तरह मेरी आँखों के सामने दिखने लगते हैं... 

"मेरे मरने के बाद मेरे गहनों को अपने पास रखना, अगर दुख हो तो बेचकर खाना। मेरे नाम की मधेस की जमीन भी अपने नाम पर रखना। मेरा मोबाइल सेट किसी को मत देना, अपने पास रखना आदि आदि..." रातभर रोते हुए जीवन के अंतिम समय में अविरल आँसू बहाते हुए उन्होंने कहा था। उनकी इच्छा के अनुसार मैंने उनके गहनों को अपने पास रखा है। उन गहनों में से फुली ने ही मुझे क्यों आकर्षित किया और मन को झकझोर कर रुला दिया है?! 

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टमक मिलती हुई काया, अबोध ग्रामीण बाला, लावण्यता और सुंदरता से प्रदीप्त निर्दोष श्रृंगारविहीन प्राकृतिक आकर्षक हंसमुख दीप्तिमान चेहरा और काम व्यायाम से कस्सी हुई छरहरी कसरती शरीर। दूसरी ओर चमकती हुई नाक की फुली की तरह हंसते हुए मिलती हुई चमकती सफेद दंत पंक्ति। सोचा हुआ, कल्पना किया हुआ उससे भी सुंदर उन्हें पहली बार देखते ही मेरा हृदय झंकृत हो गया और मैं मोहित हो गया। 

मैंने शादी के लिए लड़की मांगने की बात पर सहमति जताई। प्रक्रिया शुरू हुई लेकिन लड़की ने मना कर दिया तो बात रुक गई। रात हो चुकी थी इसलिए उस रात लमी और मैं उनके पड़ोसी के घर में ठहरे। शराब पीते हुए बातें करते और गाने गाते हुए रात काफी देर तक बैठे रहे। लड़की के मना करने के बाद खट्टे मन से मैंने भी बहुत शराब पी ली। 

"सुबह उठकर किसी को देखे बिना जाना है।" मैंने कहा था। 

लमी ने भी "ठीक है" कहा था। 

सुबह देर से ही मैं जागा। देखा लमी नहीं है। रास्ते की ओर देखा तो वह ही हलचल करते हुए पड़ोसी से बात करते हुए गागरी में पानी भरकर डोको में लेकर लौट रही थीं। आँखें मिलीं, मुझे गुस्सा भी आया, शर्म भी आई। सोचा— 'मुझसे शादी करने के लिए नहीं मानीं। क्यों?' 

कुछ देर बाद लमी भी आ गए। 

"बात बनती दिख रही है, सगाई की प्रक्रिया आगे बढ़ाएं?" पूछा। 

मैंने "ठीक है" कहा। 

सगाई की प्रक्रिया शुरू हुई। उसी बीच उनके पिता ने बेटी से पूछा— "राजी हो?" 

"राजी हूँ।" उन्होंने कहा। 

तब मैं खुशी से अनजाने में हंस पड़ा। शादी के बाद उन्होंने बताया कि मैंने हंसी क्यों। इस तरह वह मेरी जीवन संगिनी बन गईं। 

मेरी पत्नी बनने के बाद मैंने उनसे पूछा— "पहले दिन क्यों नहीं मानीं?"

 "कभी न देखे हुए आदमी, क्या और कैसा है? कैसे मानूं? बाद में सोचा कि इतना लड़का ठीक है, फिर मान गई।" उनका सीधा जवाब। निश्छल, पवित्र और साफ मन उनका। मेरा मन संतुष्ट हो गया। वह मेरी सर्वस्व बन गईं। 

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शादी में दुल्हन को देने वाले सोने के गहनों के बारे में पारिवारिक चर्चा हुई। घरवालों और मायके वालों ने भी सोने के गहने, पोते, चूड़ा, धागा और कपड़े दुल्हन को दिए। उनकी नाक में लगी छोटी फुली के बारे में मायके और घरवालों ने कोई चर्चा नहीं की, कोई ध्यान नहीं दिया। 

शादी से पहले कन्या रहते हुए ही उन्होंने जो फुली पहनी थी, उसके बारे में मैंने कभी कोई ध्यान नहीं दिया और फुली के बारे में कभी बात नहीं हुई। 

"कब से फुली पहन रही हो?" यह कभी नहीं पूछा। अब किससे पूछूं! किस उम्र से, किस समय से उन्होंने यह फुली पहनी? फुली और उनके जीवन की अविच्छिन्न घनिष्ठता कब से जुड़ी? पता नहीं चला। 

शादी से पहले कन्या रहते हुए ही उन्होंने जो फुली पहनी थी, वही शादी में दुल्हन बनते समय भी पहनी थी। इस तरह फुली शादी से पहले से शादी के दिन तक और मृत्यु तक जीवनभर उनकी नाक में ही रही। 

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शादी के बाद के कुछ साल स्वाभाविक रूप से रमणीय होते हैं। मेरे लिए, खुद को पूरी तरह समर्पित एक नारी मेरे साथ अपना जीवन जोड़कर सुख-दुख भोगने के लिए राजी होकर मुझे सब कुछ सर्वस्व समझकर हर पल मेरे साथ रहने वाली जीवन साथी है, यह अनुभूति मुझे हर्षित और गर्वित करती थी। प्रेम में समर्पण का पता न होने पर मैंने पहली बार प्रेम क्या है? कैसा होता है? यह जाना। विपरीत लिंग से मिलने वाला प्रेम, माया-मोह, असीम मानसिक और शारीरिक सुख उनसे पाकर मैं प्रसन्न था। वह भी प्रसन्न थीं। अद्वितीय पूर्ण प्रेम में पूर्ण मिलन से हम दोनों एक-दूसरे में विलीन हो गए थे। सालों का पता ही नहीं चला। रमणीय वैवाहिक जीवन! इंसान इस तरह सुख के दिनों में इंद्रधनुषी रंगों से रंगे प्रेमिल संसार में खो जाता है और खुद को सबसे सुखी महसूस करता है। 

मैं माता-पिता का इकलौता बेटा होने के कारण बचपन से ही लाड़-प्यार में पला और बढ़ा स्वाभिमानी सीधा युवक था। शादी के बाद भी उन्होंने मुझे अपना पूरा प्यार और साथ देकर 41 साल यानी अपनी मृत्यु तक लाड़-प्यार में ही रखा। आनंददायक और प्रभावोत्पादक अपार यौवन सुख और जीवन सुख दिया। एक प्रेमिका और पत्नी से मिलने वाले सभी सुख, प्रेम, माया, मोह और साथ देने वाली उनके जैसी प्रेमिका-पत्नी पाकर मेरा जीवन सार्थक हो गया। 

तीन बेटे साल-दर-साल पैदा हुए। उनके जन्म से परिवार में खुशी की बारिश हुई। हमारा पारिवारिक जीवन सफल और पूर्ण हो गया। फिर भी हमेशा पैसे की कमी से गरीबी का जीवन। शिक्षक की कम तनख्वाह, घर खर्च चलाने के लिए उधार लिए बिना महीना काटना मुश्किल। संपत्ति की कमी के बावजूद प्यारी पत्नी का असीम प्रेम, विश्वास, मनोहर मुस्कान और साथ पाकर मैं वैवाहिक जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं का सामना करने में सक्षम था। वह और मैं! हम एक-दूसरे में घुल-मिलकर एक हो गए थे। प्रेम में पूरी तरह भीग गए थे, और बह रहे थे अविरल जीवन की धारा में एक समय नदी की एक ही बूंद की तरह... 

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एक साली थीं हंसमुख, फस्र्याइली और हक्की। जब हमारी शादी हुई थी, उन्होंने कहा था, "तीन बच्चे साल-दर-साल पैदा किए और अब परिवार नियोजन कर लिया है। अब तो निश्चिंत!" हम तीनों ने खूब हंसी की थी। 

साली के जाने के बाद उन्होंने कहा— "मैं भी बहन की तरह ही करूंगी।" 

"ठीक है।" मैंने भी सहमति जताई थी। 

निश्चित रूप से दो बेटे 14 महीने के अंतराल में पैदा हुए। एक और पेट में है, महीना पूरा होने वाला है। उस समय धरान के घर में हम पति, पत्नी और छोटे बेटे रहते थे। 

"अब तीसरा बच्चा पैदा होने वाला है, क्या करें?" उनका सवाल। 

"उन छोटे बच्चों को मधेस में माता-पिता के पास छोड़कर बिराटनगर अस्पताल प्रसूति के लिए जाना।" 

हमारी सलाह के अनुसार बेलबारी तक बस में गए। उस समय मधेस जाने के लिए कोई साधन नहीं था, पैदल चलने के अलावा कोई उपाय नहीं था। बेलबारी में उतरकर छोटे बच्चों को लेकर लगभग चार घंटे पैदल चलकर बोराबान पहुंचे। उस समय ऐसा था कि सभी लोग पैदल ही चल रहे थे। रास्ते में लोग देखते थे— 2 साल 8 महीने और 1 साल 6 महीने के छोटे बच्चों को लेकर चल रहे हम दोनों, उनका बड़ा पेट। 

अगले दिन सुबह तीन घंटे पैदल चलकर बिराटनगर पहुंचे। जैसे भी संकट समस्या आई, हिम्मत न हारने वाली साहसी वह, छोटे बच्चों को मधेस छोड़कर एक और बच्चा पाने के लिए पैदल ही अस्पताल पहुंचीं। बिराटनगर अस्पताल में सबसे छोटे बेटे के जन्म से हमारी खुशी चरम पर पहुंच गई थी। वह समय हमारा सबसे सुखद, संतोषजनक, सुख और आनंद का समय था। 

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पांच साल से कम उम्र के बच्चों को पालने के लिए सुबह से देर रात तक खाना बनाना, बच्चों को खिलाना, जूठे बर्तन धोना, पानी भरना, कपड़े धोना आदि कई काम करते हुए भी थकान न होने पर जब मैं काम से लौटता तो मोहक मृदु मुस्कान के साथ मुझे इंतजार करती थीं। उनसे मिलते ही  मैं इतनी खुशी महसूस करता कि सभी अभाव, गरीबी और दुख भूल जाता। उनके साथ होने पर मुझे सबकुछ मिल जाता। सांसारिक जीवन में 'प्रेम है और प्रेम मिला', इससे सर्वोत्तम सुंदर और क्या हो सकता है, क्या चाहिए! मेरे होने पर उन्हें भी कुछ और नहीं चाहिए होता। वह हमेशा घर के अनेक कामों के बोझ से दब जाती थीं। लेकिन मैं मीटिंग का बहाना बनाकर ताश के खेल में भटक जाता। 

उनका मुझ पर इतना विश्वास था कि मुझे जितना भी वेतन मिलता, वह सब रखतीं और कठिनाई से घर चलातीं। मैं ताश खेलने के लिए कुछ पैसे छुपाकर रखता, लेकिन उन्होंने कभी शक नहीं किया। 

उस समय अभी-अभी टेलीफोन आया था। मोहल्ले में केवल हमारे घर में टेलीफोन था, इसलिए टेलीफोन की तेज घंटी बजते ही घर और पड़ोस के सभी लोग सुनने के लिए तैयार हो जाते थे। 

"किसका फोन है?" वह पूछतीं। 

"दोस्त का", कहकर मैं झूठ बोलता। लेकिन जब बार-बार फोन आने लगा तो मैंने सच बता दिया। ताश खेलते समय लिए गए उधार की रकम काफी बड़ी हो गई थी और उधार देने वाला व्यक्ति टेलीफोन पर तकाजा कर रहा था। "ताश खेलते समय लिए गए उधार का तकाजा फोन पर हो रहा है।" 

"कितना है?" 

मैंने रकम बताई। 

"अगर आप ताश खेलना छोड़ देंगे तो मैं अपने गहने गिरवी रखकर वह उधार चुका दूंगी।" उन्होंने कहा। 

उधार देने वाले व्यक्ति के दिन-रात के तकाजे और कचकच, बेइज्जती का डर था। मैंने कहा, "छोड़ दूंगा"। उन्होंने गहने गिरवी रखकर उधार चुका दिया। ताश के व्यसन से मैं मुक्त हो गया। फिर ताश के समय को अध्ययन की ओर केंद्रित कर दिया। 

अगर उन्होंने गुस्सा करके झिड़क दिया होता, तो शायद मैं ताश खेलना नहीं छोड़ता। लेकिन उनके प्रेमपूर्ण व्यवहार और मेरे कर्ज को चुका देने के बाद मैं ताश खेलने की आदत नहीं रख सका।

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ताश छोड़ने के बाद मुझमें दूसरी बुरी लत शराब पीने की लग गई। दिनभर काम में व्यस्त रहता, लेकिन शाम होते ही किसी न किसी दोस्त के साथ शराब पी ही लेता। मेहमान आते रहते थे और मेहमान को शराब पिलाने की परंपरा थी, इसलिए घर में भी वह शराब रखतीं। मेहमानों को शराब नहीं पिलाई जाती तो मेहमानों को भी और हमें भी अजीब लगता। बाहर शराब पीकर आने के बाद भी घर में पहुंचने के बाद थोड़ा बहुत शराब पीना ज़रूरी हो जाता था। जवान होने की वजह से शराब हजम हो जाती थी। 

लेकिन एक बार मेहमानों के साथ देर रात तक शराब और मांस खाकर सो गया। रात में नींद में ही जोर से चिल्ला कर मैंने मिर्गी के रोगी की तरह आंखें पलट लीं और बेहोश हो गया। वह भी जवान थीं, इसलिए मजबूत थीं। उन्होंने मुझे उठाते हुए झकझोरा और बेहोश मुझे हाथ-पैर, शरीर की मालिश की। घर में छोटे बालक बच्चे थे। मदद करने के लिए कोई बड़ा आदमी नहीं था। आधे घंटे के बाद मुझे होश आया। सुबह उन्होंने यह सारी बातें बताईं। रात की उस घटना की मुझे कोई जानकारी नहीं थी। अगर उनकी मदद नहीं मिलती, तो शायद मैं नींद में ही मर गया होता। 

सुबह डॉक्टर के पास गए। डॉक्टर ने मुझे सिलीगुड़ी के डॉक्टर के पास भेज दिया। सीटी स्कैन की रिपोर्ट देखकर डॉक्टर ने बताया कि दिमाग में सिस्ट है। उच्च रक्तचाप की दवा तुरंत शुरू की। एमआरआई के बाद रिपोर्ट देखकर कहा— “एक महीना दवा खानी होगी, दवा से आराम नहीं हुआ तो ऑपरेशन करना पड़ेगा।” 

शिक्षक की कम तनख्वाह, हमेशा पैसों की कमी। मैं मधेस में रहने वाले मां-पिता से मदद मांगने गया। मां को सब बताया। मां ने असमर्थता जताई, तो निराश और हताश होकर उसी दिन धरान लौट आया। 

“घबराओ मत, काजी। मैं अपने गहने बेचकर भी आपको ठीक करूंगी। आपको अलावा मुझे और कुछ नहीं चाहिए।” उन्होंने कहा। उनके प्रेमपूर्ण दिलासा और त्याग ने मुझे रुला दिया। 

अगले दिन पिता आए। मेरा मन उत्साहित हुआ— उपचार के खर्च देंगे कि !

“जन्म लेने के बाद हर किसी को मरना होता है, चिंता मत करो। सबको मरना पड़ता है।” पिता ने कहा। मेरी उम्मीद टूट गई। मां-पिता ने मुझसे माया छोड़ दी थी। वे सोचते थे कि मैं, उनका एकमात्र बेटा, अब नहीं बचेगा। इतना कहकर पिता लौट गए। 

उन्होंने अपने गहनों को गिरवी रखकर खर्च की व्यवस्था की। उस समय मेरी बोली भी लड़खड़ाने लगी थी। मृत्यु के भय और जीवन के अंत के अनुभव से उदास मन, यह सोचकर कि जीवित रहूं, सहारा खोजता था। मृत्युबोध कितना कष्टकारी होता है, मैंने उस समय अनुभव किया। दवा से ही ठीक हो गया, ऑपरेशन नहीं कराना पड़ा। पत्नी होने के बावजूद उन्होंने उस समय मेरी मदद की, जिससे मैं और उनके करीब हो गया और उनके साथ एकाकार हो गया। मेरा पूरा जीवन और आत्मा उनके लिए है, और हम एक-दूसरे के लिए ही पैदा हुए हैं और एक-दूसरे के सर्वस्व हैं। एक साथ सहे हुए सुख-दुख ने हमें एक एकल इकाई में बदल दिया, कि हम एक-दूसरे के बिना एकाकी अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते। 

जीवन में इस तरह की घटनाएं— बीमारी, दुर्घटना, झगड़े, मुकदमे, जन्म, नामकरण, छेवर, पास्नी, विवाह, मृत्यु, और मृत्यु संस्कार आदि— को हमने एक साथ सहा और झेला। 

मेरे सुख में वह मुझसे दोगुनी खुश और मेरे दुख में मुझसे दोगुनी दुखी थीं। 

लेकिन एक बार वह दो-तीन दिन के लिए देवरानी को भी साथ लेकर मायके गई थीं। हमारे विवाह के बाद ससुर ने दूसरी शादी की थी। 

रात में किसी बात पर विवाद हुआ, कहासुनी हुई और पिता के हाथों से शादी कर चुकी उनकी बेटी को मार पड़ी। अगले दिन वह वापस आईं और रात में रोते हुए मुझे सुनाया। गुस्सा, घृणा और पीड़ा से मैं इतना आहत हुआ कि सोचा— ससुर ने मेरी शादीशुदा बेटी को एक दिन मायके आने पर मारना नहीं चाहिए था! उस रात उन्हें दिलासा देते हुए मन में उठे आक्रोश को प्रेम में बदल कर उन्हें पूरी तरह से भिगो कर वह घटना भूलने को कहा। इसके बाद मायके जाने की भी संख्या कम हो गई। हम और करीब होकर एक-दूसरे में पूरी तरह से समर्पित हो गए। 

ऐसे क्षण कितने आए, गए, जो यादों में संग्रहित हो गए हैं। उन सबका साक्षी हमेशा उनकी नाक में रही वह फुली थी और ...फुली को देखकर अब अकेला मैं उन सबको याद कर रहा हूं। कभी-कभी आधी रात या रात के किसी पहर में उनकी याद आने पर दिल चीर जाता है, उठकर बैठ जाता हूं और गुमसुम हो जाता हूं। लेकिन एकल जीवन में... “काजी, क्या हुआ?” पूछने वाली वह कहां हैं!

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बचपन में, जब मैं काठमांडू में पढ़ रहा था, एक विवाहित मित्र ने मुझे अपनी पत्नी के लिए हीरे की फुली खरीदने के लिए दुकान पर साथ ले गए। उस समय उन्होंने 400 रुपये में हीरे की फुली खरीदी थी। उस समय होटल महीने भर का खाना 100 रुपये में देते थे। उस दुकान को याद करते हुए, मैंने उन्हें कहा था— "मैं तुम्हारे लिए हीरे की फुली खरीदूंगा।" 

"ठीक है!" उन्होंने प्रसन्न होकर कहा था। 

मैंने सोचा था कि पहले जिस दुकान से मित्र ने हीरे की फुली खरीदी थी, वह अब भी होगी। उस समय 400 रुपये में मिलने वाली हीरे की फुली अब अधिकतम 4000 रुपये में मिलेगी। पैसे का इंतजाम करके हम पति-पत्नी उस दुकान वाले स्थान पर पहुंचे। किस दुकान की बात करते हैं! वह दुकान नहीं थी। कहीं और हीरे की फुली की दुकान ढूंढी, नहीं मिली। हीरे की फुली खरीदने का विचार हमेशा के लिए टल गया। हीरे की फुली ने उनकी फुली को विस्थापित करने का विचार खो दिया। हमेशा पहनी रहने वाली फुली मृत्यु तक उनके साथ रही। 

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जब संकट आता है, तो तूफान की तरह आता है। बच्चों की स्कूल फीस, ड्रेस, दवाई, टेलीफोन बिल, बिजली, पानी आदि के अनेक खर्चे। संभालना मुश्किल हो रहा था। इसके अलावा परिवार के किसी सदस्य के बीमार होने पर सोना गिरवी रखकर उपचार कराने की मजबूरी। सिक्के, मंगलसूत्र, अंगूठी चूड़ा आदि फुली को छोड़कर सभी सोने के गहने गिरवी रख चुके थे। निकाल नहीं पाए, तो बिक गए। बेचने की इच्छा नहीं होने के कारण गिरवी रखा था। 'पैसे आने पर निकाल लेंगे' सोचते रहे और सूद बढ़ता गया, निकाल नहीं पाए। 

बेचारी उनकी नाक-कान बुच्चे। गरीब शिक्षक की पत्नी! शादी के निमंत्रण आते थे, जाने से मना कर देती थीं। कई विवाह में नहीं गई, तो मैंने सोचा— 'क्यों नहीं जातीं।' शादी में औरतें सोने से सजी हुई आती थीं। दोस्तों के सामने शर्मिंदगी की सोचकर शादी में जाने से मना करती थीं। लाहुरे भाई छुट्टी में आते तो गहने खरीद देते थे। अगली बार आते तो बहन के नाक-कान बुच्चे। 

हमेशा पैसे की कमी, गहने नहीं हैं। रूखा-सूखा जीवन होने पर भी उन्होंने मुझसे 'गहने नहीं खरीदे, जो थे वे भी खत्म हो गए और कभी पैसा नहीं कमा पाए' कहकर शिकायत नहीं की। सुबह से रात तक घर खर्च चलाने के लिए कई मुश्किलें झेलती थीं। साहूकार से ऊन लाकर मजदूरी में स्वेटर बुनती थीं। जंगल से लकड़ी लाकर लकड़ी का खर्च बचाती थीं। मुर्गी पालन, भैंस पालन, बीड़ी फैक्ट्री, गारमेंट, बैग फैक्ट्री, क्या नहीं किया? कड़ी मेहनत करती थीं, परिवार के लिए बहुत त्याग करती थीं, लेकिन समय ने साथ नहीं दिया। फिर भी हमने कभी हिम्मत नहीं हारी। हम दोनों स्वस्थ रहने तक कभी दुखी नहीं हुए। वे होतीं तो मेरी दुनिया रंगीन होती, मैं होता तो उनकी खूबसूरत दुनिया। 

हमारे बीच पैसे की कमी होते हुए भी प्यार, विश्वास और साथ की कमी नहीं थी। हर आर्थिक समस्या को हंसते-हंसते झेलते थे। माता-पिता, मैं और पत्नी, बच्चे, बहू-बेटे, फिर पोते-पोतियां, हमारा सुखी परिवार! उनके रहते मेरे सुख के दिन...। 

मुझसे पहले और मेरे साथ रहते हुए भी उनकी फुली हमेशा उनकी नाक में थी। उन्होंने अकेले और हमने साथ मिलकर सुख-दुख झेले। वह छोटी फुली मेरे सामने आकर पुरानी यादों में ले जाती है। 

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2015 के आम चुनाव में हारने के बावजूद, पिता जी राजनीति में सक्रिय थे। लेकिन 2017 में राजा ने संसद भंग कर बहुदलीय व्यवस्था समाप्त करने की घोषणा की और दल प्रतिबंधित हो गए। 

इसके बाद, पिता जी पहाड़ छोड़कर मधेस में आ गए। नए खुले झोडा में खेती शुरू की। सौभाग्य से, हमने जो झोडा खेती की थी, वह भूमि पिताजी और मेरे नाम पर दर्ज हो गई। हम दस बीघा जमीन के मालिक बन गए। 

उस समय राजमार्ग नहीं बने थे। बरसात में हर जगह कीचड़, पानी, कच्ची सड़क पर चलना मुश्किल होता था। अमीर लोग घोड़े पर चलते थे। गांवों में घोड़ा ही एकमात्र साधन था। पिता जी ने भी घोड़ा खरीदा था। फिर पूर्व-पश्चिम राजमार्ग, सड़कें, रास्ते बने। साइकिल आ गई। साइकिल ने घोड़े को विस्थापित कर दिया। घोड़ा गायब हो गया। 

पिता जी ने भी साइकिल चलाना शुरू कर दिया। जीवन भर साइकिल चलाते-चलाते 76 साल की उम्र में उन्होंने मोटरसाइकिल चलाने की इच्छा व्यक्त की। मोटरसाइकिल खरीदी और सीखते समय ही दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। 

पिता जी की मृत्यु के बाद, मधेस में खेती की देखभाल के लिए माँ अकेली रहने लगीं। धरान में हमारे साथ रहने के लिए तैयार नहीं हुईं। 

बेटे एसएलसी पास कर गए। हमारी खुशी की सीमा नहीं रही। मंझला और छोटा बेटा आईए में ही रुक गए। शिक्षक के बेटे होने के बावजूद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। 

पढ़ाई छोड़ने का कारण नशा था। नशे की लत में पड़ने का पता चलने तक देर हो चुकी थी। माँ ने कहा— "एक अंडा सड़ा हुआ है, फेंक दो।" बहनें छी-छी कर रही थीं। रिश्तेदार मुंह बनाते और मजाक उड़ाते। 

"मत घबराओ माइजू, एक दिन सब ठीक हो जाएगा।" एक भतीजे के विश्वास ने उन्हें जीवन भर प्रेरणा दी। 

नशे की लत में परिवार का एक ही सदस्य पड़ जाए, तो परिवार की स्थिति कितनी करुणामय हो जाती है? यह हमने भुगता। घर का सामान गायब हो जाता, जेब के पैसे गायब हो जाते। मेहमान आते तो डर लगता, किस समय मेहमान का सामान गायब हो जाएगा? घर के अंदर तो अशांति फैलती ही, मन में भी अशांति, पीड़ा, आक्रोश और निराशा व्याप्त हो जाती थी कि 'सपने सब उड़ा ले गई आंधी।' 

कितना भी बिगड़ जाए और कुछ भी हो, लेकिन दिल से प्यारे बच्चे... उनकी शरारतें सहनी ही पड़ीं। माँ का विश्वास और दिल। कर्ज लेकर सुधार केंद्र भेजा। बहादुर वे, उन्होंने बच्चों को सुधारने के लिए क्या नहीं किया? उनके परिश्रम, विश्वास, मेहनत और लगन ने बिगड़े बच्चों को सुधारा। 

वही बिगड़े बच्चे, उनके जीवन के अंतिम समय में, उन्हें देखभाल और सेवा करते थे। धन्य वे! उनकी मृत्यु से पहले, मैं लाश को नहलाने वाले दो भाइयों से कहा— "तुम्हारे सुधारने से ही तुम्हारी माँ मरीं।" 

लाश ने जिंदा आदमी की तरह नहीं सुना। लेकिन उस समय तक उनकी लाश की नाक में वही फुली थी और जब मैंने यह कहा, तो वह फुली देखकर याद आता है। 

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बड़ा बेटा ठीक से पढ़ रहा था। बीच के और छोटे बेटे सुधरने के बाद भी हमारी आर्थिक स्थिति नहीं सुधरी, बल्कि और खराब हो गई। हम कर्ज में डूबे हुए थे। पिताजी के निधन के बाद भी माँ अकेली मधेस की खेती देख रही थीं। 

कर्ज से उबरने के लिए किस्तों पर कर्ज लेकर मैंने, पत्नी और दो बेटों ने मधेस में खेती करने का फैसला किया। हमें उम्मीद थी कि ट्रैक्टर के जरिए अपने दस बीघा जमीन पर खेती करके कर्ज चुका पाएंगे। 

“अगर तुम लोग मधेस में खेती करने रहोगे तो मैं घर छोड़कर चली जाऊंगी, घर में नहीं रहूंगी।” माँ ने कहा और साथ ही घर छोड़कर मायके चली गईं। पत्नी और मैंने फैसला किया कि माँ को दुखी करके खेती नहीं करेंगे और मधेस में नहीं रहेंगे। नए ट्रैक्टर ने हमारे लिए कोई काम नहीं किया।

 वह अगले दिन ही धरान लौट गईं। मैं उन्हें बेलबारी तक छोड़ने गया, उन्होंने कहा, “चाय पीकर विदा हो जाएं।” 

मैंने कहा, “मेरे पास पैसे नहीं हैं।” 

उन्होंने कहा, “मेरे पास हैं।” और चाय पीकर वह धरान चली गईं। मैं बोराबान लौट आया, मन में विदाई की कड़वाहट लिए। मैं अब भी वह बात याद करता हूं। उस समय की विदाई मृत्यु से कहां तुलना कर सकती है! कुछ दिन बाद मेरा जन्मदिन था और उनके न होने पर वह बहुत फीका लगा। अब तो मेरे सभी दिन उनके बिना फीके हो गए हैं। 

पिताजी के जीवित रहते हुए ही हमने सात बीघा पर गन्ने की खेती के लिए कर्ज मंजूर कराया था। बाद में, केवल चार बीघे पर खेती होने की वजह से पूरा मंजूर किया गया कर्ज नहीं मिल सका। गन्ने की खेती में भी हम सफल नहीं हो सके। संपत्ति होते हुए भी उसे अपनी इच्छा के अनुसार कभी उपयोग नहीं कर पाए। 

वैवाहिक जीवन हमेशा एकसमान नहीं होता है। इसमें सुख और दुख के पल आते हैं। प्यार और स्नेह में भी ईर्ष्या, घृणा और अनादर शामिल होते हैं। थोड़ा सा इधर-उधर हुआ तो प्यार घृणा में बदल सकता है। हमारे वैवाहिक जीवन में भी उतार-चढ़ाव आए। कई घटनाओं ने प्रेम की परीक्षा ली, लेकिन उनके निधन तक हमारा प्यार अटल रहा। 

सबके वैवाहिक जीवन में आने वाले कई आरोह-अवरोह हमारे जीवन में भी आए। प्यार में ईर्ष्या भी होती है, यह एक छोटी घटना से साबित हुआ। सुंदर होने के कारण सभी उन्हें पसंद करते थे। कहीं मुझे धोखा तो नहीं दे रही? शक के इसी उन्माद में एक बार मैंने उन्हें मारा, काटने की कोशिश की। वह चुपचाप देखती रहीं, कोई जवाब नहीं दिया। मैंने उन्हें मारकर घर छोड़ दिया। दो दिन बाद लौटने पर उनका होंठ सूजा हुआ था। लेकिन उन्होंने मेरे लिए केले की शुद्ध शराब बनाई थी। पहले भी उन्होंने असोज के फूल, आंवला और किम्बू की स्वादिष्ट शराब बनाई थी। उन्होंने मुझे केले की शराब पीने दी, जिससे मेरा सिर शर्म से झुक गया। मैंने उन्हें मारने का असली कारण ईर्ष्या था। मैंने उन्हें डराने के लिए काटने की कोशिश की। बिना वजह मारने पर मुझे शर्म आई। माफी मांगने की जरूरत नहीं पड़ी। उन्होंने मुझे माफ कर दिया और हमारा प्यार और मजबूत हो गया। हमारे बीच का अज्ञात आंतरिक प्रेम और प्रबल हो गया और सतह पर भी दिखने लगा। एक रेडियो कार्यक्रम में सुना था कि 'मारने वाले पति को पत्नियां ज्यादा प्यार करती हैं।' शायद ऐसा ही लगा। इसके बाद वह घटना कभी दोहराई नहीं गई। उन्होंने भी उस घटना के बाद कभी बात नहीं की। कोई मौका न आने पर मैंने भी कभी यह पुष्टि नहीं कर पाया कि उस समय मैं सच में गुस्से में नहीं था, सिर्फ नाटक कर रहा था। कई बातें मुझे कहनी थीं, लेकिन कह नहीं सका। मुझे अब भी पछतावा है कि मैंने उन्हें नहीं सिखाया कि कैसे वे मेरे अत्यधिक विचलित होने पर मन को संभालें। अब कहां सिखाने को पाऊंगा! 

सबके वैवाहिक जीवन में घटित होने वाली घटनाएं हमारे जीवन में भी घटित हो सकती हैं। हमारे बीच के विश्वास और मजबूत प्यार ने सभी को सह लिया, जिसका साक्षी फुली है। 

धरान में अनेक छोटे काम करके घर चलाने में उन्होंने काफी मेहनत की। घर के काम, खाना पकाना, कौन सी सब्जी बनानी है? कैसे परिवार में सुख-शांति बनाए रखना है? ऐसी समस्याओं में आम गृहिणियों की तरह उनका जीवन बीता! मधुमेह रोग के बढ़ने से उनके गुर्दे खराब हो गए और डायलिसिस करते-करते उनका प्राणांत हो गया। मेहनती अगर खेती कर पातीं, तो खेती से होने वाला व्यायाम मधुमेह को इतनी जल्दी नहीं बढ़ने देता! पड़ोसी मेरे साथी अभी भी खेती करते हुए जीवित हैं, सोचता हूं कि शायद वह भी जीवित रहतीं। लेकिन अब कल्पना का कोई अर्थ नहीं है। 

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 "मैं तुम्हें ताजमहल घुमाने ले जाऊंगा।" नजदीक का ताजमहल दिखाने का हिम्मत करके मैंने पत्नी से कहा था।

 "मैं तुम्हें मेरे पुश्तैनी गांव ले जाऊंगा।" मैंने कहा था, लेकिन समय कभी अनुकूल नहीं हुआ। 

पत्नी को मधुमेह हुए कई साल हो चुके थे। मधुमेह ने अपनी ताकत दिखाना शुरू कर दी थी, मूत्र संक्रमण ठीक हो जाता फिर उभर आता, बुखार, उल्टी और कमजोरी के लक्षण होने लगे। क्रिएटिनाइन बढ़ने लगा था। 

समय पर शौच नहीं होती, भूख नहीं लगती और शारीरिक समस्याएं होने लगीं, तो हम स्थानीय अस्पताल गए। मैं और वह दोनों पैदल ही गए थे। अस्पताल में भर्ती होकर दो दिन बाद ही उनकी हालत ऐसी हो गई कि उठ भी नहीं पा रही थीं। बेहोशी जैसी स्थिति में ही उन्हें काठमांडू ले गए। 

प्राइवेट अस्पताल की पहली प्रतिक्रिया थी— "कैसा अस्पताल है? शौच तो करा सकते थे।" 

उनका पेट फूला हुआ था, हाथ-पैर भी सूजे हुए थे। उन्होंने खाना छोड़ दिया था और बेहोशी जैसी हालत में थीं। अस्पताल ने उन्हें दवाई दी और शौच कराया। 

"कैसा लग रहा है?" दीदी ने पूछा, "अब ठीक लग रहा है।" उन्होंने कहा। 

दो हफ्ते अस्पताल में रहने के बाद छुट्टी मिली। पूरी तरह ठीक होने तक सालो के घर पर रुकने का फैसला किया। बहन और भाभी मिलने आए थे। शनिवार को दोपहर 11 बजे के आसपास भूकंप आ गया। बच्ची को गोद में झूला झूलाने जैसा था, दूसरी मंजिल पर बैठे हम झटके पर झटके महसूस कर रहे थे। भागने का मौका नहीं था। अब रुक जाएगा, सोचकर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर बैठे रहे। आखिरकार, यह रुका। साली लोग उन्हें पकड़कर नीचे ले आए। खुली जगह में सारे लोग जमा हो गए।

 सुनने में आया कि धरहरा गिर गया। सात मंजिला इमारत गिर गई और 40 लोग मारे गए। सिन्धुपाल्चोक और काठमांडू में सबसे ज्यादा लोग मारे गए। पूरे देश में भूकंप आया, हमने भी काठमांडू में रहते हुए इसे महसूस किया। 

अब हमारी दिनचर्या में नियमित रूप से अस्पताल जाना शामिल हो गया। शुगर, क्रिएटिनाइन, पोटैशियम, सोडियम, फॉस्फोरस आदि की अनेक रक्त जांच कराना और डॉक्टर को दिखाना और डॉक्टर से दवा लेना। दवा के सहारे जीने की मजबूरी थी, लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी। ऐसी स्थिति में ताजमहल घूमने और पुश्तैनी गांव जाने की बात भी बेमानी हो गई। मुझे वह इच्छा अब भी है... लेकिन अब क्या हो सकता है!

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"अगर जिंदा लौट आई, तो अगली बार भी नाचना पड़ेगा।" उन्होंने धरान के घर में आखिरी साखेवा के दौरान कहा था। ऐसा कहते हुए उन्होंने जबरदस्ती मुस्कुराने की कोशिश की थी। अंदर के दर्द को छिपाने के लिए जब दूसरी ओर मुड़ीं, तो उनकी नाक की फुली पर सूरज की किरणें पड़ने से वह चमक उठी। फुली को देखते ही वह क्षण अभी भी ताजा लगता है। 

"बचेंगे, बचेंगे। नाचेंगे, नाचेंगे!" नाचने वालों ने कहा था। 

उसी साल का वह नाच उनका आखिरी नाच बन गया। 

हम अस्पताल गए, उनकी तबीयत ठीक थी। लेकिन कमरे में वापस आने के बाद उल्टी शुरू हो गई। फिर अस्पताल गए। "पोटैशियम बढ़ गया है, इससे किसी भी समय दिल बंद हो सकता है।" डॉक्टर ने कहा, और उन्हें भर्ती कर लिया। 

उनकी हालत गंभीर हो गई, और 15 दिनों तक आई.सी.यू. में रखा गया। डायलिसिस नियमित रूप से हफ्ते में तीन बार हो रही थी। डायलिसिस आई.सी.यू. में ही होती थी। गंभीर स्थिति में वे कुछ भी बोलने लगीं। 

डॉक्टर ने कहा कि जब किडनी काम करना बंद कर देती है, तो दूषित पानी मस्तिष्क में चला जाता है, जिससे मरीज बहकने लगता है।

 "काजी, काजी!" चिल्लाकर वे आई.सी.यू. को हिलाती थीं। नाक की पाइप और अन्य उपकरण खींचकर निकालने की कोशिश करती थीं, इसलिए उन्हें बांधकर रखा गया। 

आई.सी.यू. में मरीजों से मिलने का निश्चित समय था। उस समय मिलने पर वह रो रही थीं और बोलीं, "काजी, मैं..." आगे कुछ नहीं कह पाईं। मन भारी हो गया, लेकिन उनके सामने रोकर, उन्हें आंसू दिखाकर कमजोर नहीं करना चाहता था। मैंने कहा, "मैं तुम्हें ठीक करके सौराहा, चंद्रागिरी घुमाने ले जाऊंगा। घर लौटते समय इस बार जनकपुर भी घूमेंगे।" उन्होंने ध्यान से सुना। जीवन और मृत्यु के बीच झूलती उनकी आंखों से आंसू पोंछ दिए। वह रुमाल अब भी मेरे पास है। 

15 दिनों में थोड़ी ठीक होकर वार्ड में शिफ्ट किया गया। लेकिन मानसिक स्थिति वही रही। कुछ भी बोलने लगतीं, दूसरों की बातें सुनकर उसी में कुछ और जोड़ देतीं। 

आई.सी.यू. से ही खाना खाने की स्थिति नहीं थी। नाक से इरिगेशन पाइप द्वारा खाना और दवाईयां पीसकर पानी के साथ दी जा रही थीं। वहाँ वार्ड में एक वृद्ध व्यक्ति से दवाई पीसने का सामान ढूंढते समय मुलाकात हुई। उसने पूछा, "ऐसे खाना खिलाते हुए कितने दिन हुए?" 

"30 दिन हुए।" 

"ओह, मेरे आज पूरे 100 दिन हो गए नाक से खिलाते हुए। आपका तो बोल रही है। मेरा तो कोई हरकत नहीं करता, बोलता भी नहीं है।" निराश उस व्यक्ति ने कहा। 

कुछ दिन बाद, जब पता चला कि उस व्यक्ति ने अपने मरीज को चितवन घर भेज दिया, तो वहाँ काम करने वाली दीदी से पूछा, "ठीक होकर ले जा रहे हैं?" 

"क्यों ले जाते? माया मारकर ही..." दीदी ने कहा। 

मेरा भी दिल ठंडा हो गया। मेरी मरीज की हालत भी वही है। वह भी बहककर कुछ भी बोलने लगतीं। डॉक्टरों ने कहा था कि "डायलिसिस से ही ठीक हो जाएंगी।" लेकिन उस स्थिति में भी वे मुझे बुलाती रहतीं— "काजी, काजी!" मैं हमेशा उनके पास बैठा रहता और मुझे लगता कि वह ठीक हो जाएंगी। 

उसी समय, उनका भाई और भाभी ब्रिटेन से आ गए। 'सरप्राइज' देने बिना बताए आए। बहकती बहन के सामने खड़े होकर भाई ने पूछा— "मैं कौन हूँ?" 

"माइलांग।" कुछ देर निहारने के बाद उन्होंने कहा। भाई को वह माइलांग कहती थीं। ऐसी मानसिक स्थिति में भी "काजी काजी" कहकर अस्पताल हिलाती थीं और फिर भी मुझे, ननद और साली को हमेशा पहचानती थीं। 

अभी भी नाक से इरिगेशन पाइप द्वारा खाना और दवाईयां पीसकर पानी के साथ दी जा रही थीं। वह उस पाइप को खींचकर निकालने की कोशिश करतीं। दो तीन बार निकाल भी चुकी थीं। फुली के बिना नाक के छेद में पाइप डाला गया था। उन्होंने फिर पाइप खींचकर निकाल दिया।

 "क्यों निकाला?" मैंने डांटते हुए कहा। 

वह चुपचाप बैठ गईं। उसी समय फुली निकालने की कोशिश बेटों और सिस्टरों ने की, ताकि पाइप डाला जा सके। लेकिन फुली नहीं निकाल पाईं। फुली उनकी नाक में ही रही। 

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एक महीने की अस्पताल में रहने के बाद वे कुछ ठीक हुईं और डिस्चार्ज होकर हम बेटे के कमरे में रहने लगे। उनके भाई और भाभी वापस ब्रिटेन लौट चुके थे। 

उस साल का दशहरा और तिहार ही उनके साथ बिताया मेरा आखिरी दशहरा तिहार था। दशहरा भी उनकी खराब सेहत के कारण खास आनंदित नहीं हुआ। उन्हें विभिन्न तरीकों से उत्साहित करने की कोशिश करता लेकिन वे कोई उत्साह नहीं दिखाती थीं। जब मृत्यु का भय मन में होता है, तो कहाँ आनंद का स्थान होता है जीवन में? 

तिहार में भाई आएंगे या नहीं, यह उम्मीद उनके मन में रही होगी। हम भी नए लौटे भाई को तिहार में आने के लिए कह नहीं पाए। तिहार से कुछ दिन पहले, मैंने फेसबुक पर देखा कि भाई-भाभी स्विट्जरलैंड की यात्रा कर रहे हैं, और उनसे पूछा, "देखना चाहोगी?" उन्होंने मना कर दिया। उन्हें उम्मीद थी कि जैसे अस्पताल में 'सरप्राइज' दिया था, वैसे तिहार में भी वे टुप्लुक्क आ जाएंगे। पहले साल की तरह तिहार भाई के साथ बिताने की उम्मीद पूरी नहीं हुई। उनका अंतिम तिहार और भी फीका हो गया। 

तिहार के बाद, भांजे और भांजी उनसे मिलने आए। बातें करते हुए, उन्हें उल्टी होने लगी। उन्होंने मुझे पुलुक्क देखा। जब वे गंभीर हो जाती थीं, तो मुझे सहारा के लिए देखती थीं। मैं भी उनके गंभीर होते ही अस्पताल के इमरजेंसी में जाने के लिए हमेशा तैयार रहता था। 

"अस्पताल जाना होगा।" झोलों में जल्दबाजी में अस्पताल के कागजात, दवाइयां रखकर कहा। बेटा भी तैयार रहता था। अस्पताल गए। 

"रक्तचाप बहुत कम है। रक्तचाप बढ़ाने की मशीन आई.सी.यू. में ही है, इसलिए आई.सी.यू. में रखना होगा।" डॉक्टर ने कहा। दो दिनों बाद आई.सी.यू. में थोड़ा ठीक हुआ। 

वार्ड में ले गए। वार्ड में ले जाने के बाद, मैं कपड़े बदलने बेटे के कमरे में गया। एक प्लास्टिक झोले में चॉकलेट के रैपर ही रैपर थे। ठंड का मौसम होने के कारण जब वे बाहर धूप में होती थीं, तो मैं कंप्यूटर पर व्यस्त रहता था। उन दिनों में, धूप में अकेले बैठकर उन्होंने इतनी मीठी चॉकलेट खाई कि उन रैपरों को देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गया। 

डायबिटीज और डायलिसिस करने वाले मरीज अगर खाना छोड़ देते हैं, तो यह समझा जाता है कि वे अस्वस्थ जीवन से थककर शरीर छोड़ना चाहते हैं। कई डायलिसिस करने वाले मरीजों ने खाना छोड़कर मृत्यु वरण किया है। मैंने भी सोचा, क्यों उन्होंने इतना चॉकलेट छुपाकर खाया? 

खांसी होती रहती थी, खांसी रोकने के लिए विक्स, हर्बल चॉकलेट एक-दो देने की अनुमति थी। विक्स, हर्बल चॉकलेट थोड़ी देर खांसी रोकती थीं। वे मुझे इतना प्यार करती थीं कि मेरे हर सुख-दुःख में साथ देना चाहती थीं। लेकिन उन्हें देखभाल करते हुए मेरा दुख देखकर मुझे उससे मुक्ति देने और मुझे एक स्वतंत्र जीवन जीने देने के लिए उन्होंने इतना चॉकलेट खाया होगा। 

स्वस्थ रहते हुए उन्होंने कहा था— "अगर बीमार होकर दुख होगा, तो मैं जहर खा लूंगी।" 

"बीमार होने पर जहर कहाँ मिलेगा।" मैंने मजाक समझकर पूछा। 

"पहले ही खरीद कर रख लूंगी।" उन्होंने कहा। 

डायलिसिस करने वाले डायबिटीज के मरीज के लिए मीठी चॉकलेट जहर ही है। उन्होंने सोचा होगा कि मुझे सुख देने का एकमात्र तरीका अपने बीमार शरीर को त्याग कर मुझे उससे छुटकारा देना है। 

मुझे अर्नेस्ट हेमिंग्वे की आत्महत्या की घटना याद आती है— दो बार के विमान दुर्घटना से मुश्किल से बचने वाले लेकिन गंभीर रूप से घायल हुए नोबेल पुरस्कार विजेता अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने अपने बाकी जीवन को पूरी पीड़ा में बिताया। उन्होंने उस पीड़ा को और सहन न कर पाने के कारण अपने सिर में गोली मारकर आत्महत्या कर ली थी। 

डायलिसिस करते समय, बचे रहने के सारे आधार खत्म हो जाने के भान से हतोत्साहित होकर उन्होंने जहर के रूप में इतना चॉकलेट खाया होगा! 

उन्होंने ताकतवर खाने की चीजें नहीं खानी चाहिए थीं। थोड़ा खाना कम-ज्यादा होने पर ही गंभीर बीमार हो जाती थीं, अपने जीवन से भी ऊब चुकी थीं! सबसे निराशाजनक और दुखद बात यह थी कि उन्होंने जिसे सबसे अधिक प्यार किया, उन्हें अपने कारण दुख पहुंचाना, पैसे का भी खर्च होना। वे बार-बार पूछती थीं, "कितने पैसे हैं?"

 "घडेरी बेचने के पैसे हैं। बैंक में इतने हैं, और साथ में इतने हैं। पैसों की चिंता मत करो, हार मत मानो! मैं हूँ, तुम्हारे लिए सब कुछ करूंगा। ट्रांसप्लांट के लिए मुझे किडनी देने को तैयार हूँ, लेकिन दिल की बीमारी के कारण संभव नहीं हुआ।" मैं कहता था। मैं चाहता था कि उन्हें किसी भी प्रकार की चिंता न हो। 

उन्हें लगता था, "अब मैं ज्यादा नहीं जीऊंगी।" मुझे देख कर दुखी होकर कहतीं— "मैंने सोचा था कि आपको जीवन भर साथ दूंगी। लेकिन काजी, काजी..." आगे कुछ नहीं कह पाईं, रो पड़ीं और आंसू बहाए। 

"मत रोओ, मत रोओ! मैं हूं, खुद को कमजोर मत बनाओ। हार मत मानो। मैं हूँ..." मैंने कहा था। 

"डॉक्टर रमणी ने कहा कि 'दिल बहुत कमजोर हो गया है, मैंने सब कुछ कर दिया है। अब मैं कुछ नहीं कर सकती।' इसलिए अब मैं नहीं बचूंगी, काजी! मैं मरने के बाद मेरे सभी गहने अपने पास रखना, दुख हो तो बेचकर खाना। मधेस की मेरी जमीन भी अपने नाम पर रखना। मेरा मोबाइल हमेशा अपने साथ रखना। मैं मरने के बाद शादी की साड़ी पहनाना।"

 "मैं वह साड़ी नहीं पहचानता।" मैंने कहा।

 "मैंने ननद को बता दिया है, वही पहनाएगी।" उन्होंने कहा। 

उस रातभर वह रोती रहीं। मुझे अभी भी उम्मीद थी कि वह कुछ महीने और जीएंगी। 

अस्पताल के वार्ड में, बेबस वह और बेबस मैं एक-दूसरे को देखकर जी रहे थे। दिनभर रिश्तेदार लोग देखने आते थे और चले जाते थे। रात होने पर हम दोनों अकेले। थकान या कुछ और, जैसे ही फुर्सत मिलती, उनके बिस्तर के पास छोटे बेंच-बेड पर सो जाता था। मुझे हमेशा सोते हुए देखकर वह कहतीं "कितना सोते हो? मेरे मरनेके बाद खूब सोना!" 

अब समझ में आता है, उन्होंने ऐसा क्यों कहा? वह चाहती थीं कि उनके अंतिम समय में मैं उनकी बातें सुनूं और अपनी बातें कहूं, लेकिन 'दवा लो', 'खाना लो', 'रोगी को उठाओ, सुलाओ', देखभाल करते हुए जैसे ही फुर्सत मिलती, सो जाता। अब पछतावा होता है कि मृत्यु के पूर्व आभास से विचलित उनके मन को मैंने सुनकर या कुछ कह कर दिलासा देना चाहिए था! सांत्वना देनी चाहिए थी! उस समय उस कर्तव्य से मैं चूक गया। 

पोटैशियम, ग्लूकोज, सोडियम, फॉस्फोरस आदि कई रक्त जांच। ट्रोपोनिन पॉजिटिव आने के बाद मैंने बेटों से कहा— "तुम्हारी माँ जितने दिन जिएं, हंसी-खुशी के साथ जीने दो!" मैंने उन्हें उन रिपोर्टों के बारे में जानकारी नहीं दी, लेकिन अपने शारीरिक अवस्था और दिल के डॉक्टर की बातों से उन्होंने मृत्यु का पूर्वानुमान कर लिया था। जब हम दोनों अकेले होते, मेरी ममता और अपने नजदीक आ रहे देहावसान की पीड़ा से वह रोती थीं। मैं क्या कर सकता था! केवल चुपचाप देखता रहना। कितने बेबस थे हम! 

दिनभर मेरे पास बैठे देखकर मंझला बेटा कहता— "मैं रात को रहूंगा, आप कमरे में जाइए।" 

वह मना कर देतीं। रोते हुए कहतीं— "तेरा पिता ही रहना चाहिए।" जितने दिन जिएं, वह अंतिम क्षण तक मेरे साथ रहना चाहती थीं, मेरे साथ मरना चाहती थीं। मैं भी जितने दिन वह जिएं, उनके साथ रहना चाहता था। अब साथ रहने के बहुत दिन नहीं बचे हैं, इस चेतना के साथ खिन्नता के साथ-साथ एक-दूसरे के प्रति समर्पण, आकर्षण और प्रेम माया का उबाल हमारे मन, दिल और दिमाग को अस्थिर बना कर हर क्षण उमड़ते बाढ़ की तरह बह रहा था। "मैं रहूंगा" भावुक होकर कहता और रात में भी मैं ही पहरेदार बनता। मुझे देखकर और मेरे साथ रहकर वह जो सुरक्षा, साथ, संतोष और मिलन का अनुभव करतीं— वह उनके अंतिम समय में अमूल्य था। मेरे लिए भी उनका वह साथ अमूल्य था। हमें साथ रहने के बहुत दिन नहीं बचे हैं, इस अहसास ने हमें मन, दिल और दिमाग की गहराई तक छू लिया था,

हम दोनों को यह अहसास हो चुका था कि हमारे पास साथ रहने के लिए ज्यादा दिन नहीं बचे हैं। यह अहसास हमारे दिल, दिमाग और आत्मा की गहराइयों तक छू गया था। हम बस एक-दूसरे को देखे जा रहे थे। मैं उन्हें देखता रहता था और वह मुझे।

उन्हें उठाने, बैठाने और सुलाने की जरूरत पड़ रही थी। वह खुद से उठ-बैठ नहीं सकती थीं, लेकिन उनकी वाणी और दिमाग एक स्वस्थ व्यक्ति की तरह पूरी तरह सक्रिय थे। वह मुझे अपने मन की बातें सुनाती रहतीं—“काजी, मुझे हमारी घूमी हुई जगहें याद आ रही हैं...”

उनकी बातों में उनके भीतर की गहरी पीड़ा थी, एक आर्तनाद, एक चीत्कार, और दिल का चीत्कार गूंज रहा था। उस समय उन्होंने जो दुख, दर्द, और कष्ट झेले, उसका वर्णन कर पाना असंभव है। अब वह जा चुकी हैं, उनका अस्तित्व नहीं है। उस समय उन्होंने जो पीड़ा झेली, वह बड़ी थी, या आज मैं उनके बिछड़ने के बाद जो दुख और दर्द झेल रहा हूं, वह बड़ा है?

सारा प्रेम, स्नेह, लगाव, ममता, आदर, सुख, आनंद, ऐश्वर्य, विलास, शांति, और साथ ही दर्द, पीड़ा, कष्ट, आंसू, घृणा, लालच, बिछड़ने और वियोग की भावना—यह सब केवल जीते जी तक ही सीमित हैं। मरने के बाद सब समाप्त हो जाता है! सब खत्म हो जाता है, हमेशा के लिए। लेकिन उस समय, जब वह मृत्यु की ओर बढ़ रही थीं, मुझ पर उनका जो अगाध और असीम प्रेमभाव था, उसे अब मैं गहराई से महसूस कर रहा हूं। मरने वाले के लिए सभी अनुभव मृत्यु के साथ समाप्त हो जाते हैं, लेकिन जीने वाले अपने खोए हुए प्रियजनों की यादों में जो पीड़ा, कष्ट और बिछड़ने का दुख सहते हैं, वह पूरी दुनिया में व्याप्त है। जीने वाले मरने वालों को जीवनभर भुला नहीं सकते, और शायद भुलाना भी नहीं चाहते। यह भी जीवन का एक अनोखा नियम है।

उनके साथ बिताए 41 वर्षों का सुखद, मधुर, और स्वर्णिम दांपत्य जीवन यदि मैं भूल जाऊं, तो जीवन के इस अंतिम पड़ाव में मेरे पास याद करने के लिए कौन सी घटनाएं, स्मृतियां या अनुभव बचेंगे? केवल एक खोखला जीवन...।

उनकी मृत्यु से पहले मैं एक सुखी व्यक्ति था और मैं दुखविहीन इंद्रधनुषी रंगीन दुनिया में खोया हुआ था। उनकी मृत्यु ने मुझे विछोह की आश्चर्यजनक चोट, असहनीय पीड़ा और असीमित दर्द दिया और मैं रोया। रोती आँखों से मैंने जो शून्यता देखी, वह मेरे जीवन का आठवां रंग है। उनकी मृत्यु के बाद, मैं अनेक दुख, दर्द, कठिनाइयों, रिक्तता, अभाव, पीड़ा, चोट, संताप, यातना, विछोह, वियोग की असहनीय परिस्थितियों में भी जीना चाह रहा हूँ। यह जीवित रहने की अद्भुत, रहस्यमय और अदृश्य नौवां रंग में मैं अभी हूँ और नौ रंगों वाला जीवन जी रहा हूँ। अपने इस नौ रंगी जीवन में मैं उन्हें यादों में अमर बनाना चाहता हूँ। उन्हें अमर कैसे बनाऊं? यह अमर बनाने का प्रयोजन मेरे लिए जीने की प्रेरणा बन गया है। बिना जीवित रहे उन्हें अमर नहीं बना सकता यह बोध मेरी सक्रियता का कारण बना है।

मैंने उस समय कहा था, "चिंता मत करो! मैं तुम्हें ठीक कर के उन जगहों पर फिर से घुमाऊंगा।" लेकिन कहां घुमा सका!

उनकी अंतिम अवस्था हो चुकी बात डॉक्टर ने बताई तब मुझे पता चला— "बीमार व्यक्ति को अपने शरीर के बारे में जानकारी होती है, उसकी अंतिम इच्छा होगी। उन्हें किसी भी समय कुछ भी हो सकता है।"

अब लगा कि उन्हें जीवित धरान घर ले जाऊंगा। बेटों से सलाह की और हवाई जहाज के टिकट का बंदोबस्त किया। धरान घर लौटने की बात पर वे अत्यंत प्रसन्न हो गईं। मंझले बेटे ने उन्हें अस्पताल जैसा बेड खरीदने का वादा किया था। उन्होंने खुशी से कहा, "मंझले ने धरान में अस्पताल जैसा बेड खरीदने का वादा किया है। धरान घर लौटने पर व्हील चेयर खरीदनी पड़ेगी।" व्हील चेयर पर घूमने की उनकी इच्छा! निराशा मन में दबाकर कहा, "ठीक है, खरीद देंगे।" जीवन के अंतिम क्षण में भी जीने की उनकी आशा! 22 तारीख को ही लौटने की मेरी योजना थी, पर उन्होंने एंटीबायोटिक इंजेक्शन लगवाने की वजह से कहा, "26 तारीख को पूरा लगाकर लौटेंगे।" कहीं जीऊंगी सोचते हुए मैंने कहा, "ठीक है।" और 27 तारीख को लौटने का बंदोबस्त किया।

हम 27 तारीख को लौटेंगे, यह सुनकर रिश्तेदार, मित्र सब मिलने आए। दिनभर मिलने वालों की भीड़। सभी से विदा मांगते हुए कहतीं, "जिंदा रहे तो फिर मिलेंगे।" नर्स, डॉक्टर और अन्य डायलिसिस करने वाले मरीजों को भी, "जिंदा रहे तो फिर मिलेंगे।" कहकर सभी से विदा मांग रही थीं।

24 तारीख की रात को उनके भाई ने इंग्लैंड से फोन किया। उन्होंने बात करने से मना कर दिया। मैंने जबरन बात करने को कहा। उन्होंने कहा, "माइलांग, मिलना नहीं हो पाएगा।" और फोन पर रो पड़ीं। मैंने उनका रोना रोकने के लिए "अच्छे से रहाे।" कहने को कहा। उन्होंने ऐसा ही कहा। वह फोन वार्ता ही भाई-बहन का अंतिम संवाद बना। इसके बाद उन्होंने मुझे अपनी बहन और ननद को बुलाने के लिए कहा। मैंने उन्हें बुलाया। क्यों बुलाया, आज मुझे समझ में आया— मृत्यु का सामना करने के लिए व्यक्ति को अपने प्रियजन और रिश्तेदारों का सहारा चाहिए होता है। बहन और ननद को अंतिम सहारे के लिए बुलाया था।

24 तारीख की सुबह ही वे दोनों आ गईं। दिनभर बातचीत में बिताया। शाम को वे लौट गईं। रात में डायलिसिस करवाना था इसलिए मंझले बेटे को भी वहां रहने को कहा। बेटे ने उन्हें डायलिसिस कराने के बाद मुझे जगाया।

"यह आदमी कितना सोता है? डायलिसिस में एक बार भी देखने नहीं आया।" उन्होंने शिकायत की। पिछले हर डायलिसिस में मैं कई बार देखने जाता था। वह मुझे पानी, खाने और अन्य चीजें लाने के लिए कहती थीं। वह आखिरी डायलिसिस रात में काफी देर से हुआ था। 

बिस्तर पर सोने के बाद उन्होंने कहा, "मुझे चॉकलेट दो।" 

"खाना मना है। नहीं दूंगा।" मैंने कहा। 

"सिर्फ एक खाऊंगी।" विनती के स्वर में कहा। 

"सिर्फ एक ही खाओगी?" "सिर्फ एक ही खाऊंगी।" उन्होंने कहा, तो मैंने एक चॉकलेट दी। कितनी मीठी तरह से खाई। अत्यंत प्रसन्न होकर कहा, "एनेमा लगाओ।" एनेमा लगाकर मैं बाथरूम में सामान लेने गया। लौटकर देखा, वे अनंत यात्रा पर जा चुकी थीं! पलक झपकते ही उनकी मृत्यु! मेरा सब कुछ खत्म!! सर्वनाश!!! 

चिल्लाकर नर्स और बेटे को बुलाया। डॉक्टर और नर्स ने अंतिम प्रयास किए। वे जा चुकी थीं। कुछ समय पहले चॉकलेट खाकर खुश हुईं वे अब मृत हो चुकी थीं। रोकर चिल्लाने से क्या होता? चॉकलेट मेरे हाथ से खाकर उन्होंने मृत्यु को गले लगाया। मेरा सब कुछ खत्म हो गया, मेरी सुखी दुनिया धूल-धूसरित हो गई। 

अगर मैंने चॉकलेट नहीं दी होती और बिना खाए वे मर गई होतीं, तो मैं जीवन भर पछताता और खुद को माफ नहीं कर पाता। बड़े बेटे, बहू, बहन, साली, रिश्तेदार, मित्र, सबको फोन कर सूचित किया। उनकी इच्छा अनुसार धरान में ही संस्कार करना तय हुआ और 25 तारीख की रात को उनके शव के साथ धरान पहुंचे। उस रात हमारी ससुराल वाले कमरे में ही उनके शव को रखा गया। सफाई कर गोबर से लीपे हुए फर्श पर उनके शव को रखा गया। मैं शव के पास और आसपास बेटे शव को घेरे हुए बैठे रहे। मैं उनके शव के पास सोया, वह मेरा अंतिम साथ और सुकून था। उनकी नाक में फुली थी। वह फुली उनके जीवन के हर पल में उनके साथ रही थी। उन्होंने अकेले में और मेरे साथ रहते हुए जो सुख-दुख सहे, उसका साक्षी थी। 26 तारीख की सुबह बेटे ने शव का अंतिम संस्कार करने से पहले उनकी नाक से फुली को आसानी से निकाला। अस्पताल में नर्स और मंझले बेटे ने जिसे नहीं निकाल पाया था, उसे बड़े बेटे ने आसानी से निकाला। बहन ने उनकी इच्छा अनुसार शादी का कपड़ा शव को पहनाया। उनके शरीर को झकाझक दुल्हन की तरह सजाया गया... सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार हुआ। मृत्यु के समय व्यक्ति को सब कुछ छोड़कर जाना होता है। छोटी सी फुली भी उन्होंने छोड़ दी। आखिर कुछ भी अपने साथ ले जाना संभव नहीं होता। आज वह फुली देखकर मैं सोच रहा हूँ— अन्य गहनों के बजाय फुली ने मुझे क्यों अधिक आकर्षित किया और रुलाया? खुद ही जवाब दिया, अन्य गहने उन्होंने खास नहीं पहने थे। शादी में पहने गए गहने जैसे मंगलसूत्र, अंगूठी, सिकड़ी आदि कर्ज चुकाने में चले गए थे। अन्य गहने उनकी बीमारी के इलाज के लिए बेचे गए जमीन के पैसों से खरीदे गए थे। उनमें विशेष रुचि नहीं थी। लेकिन... फुली! कई बार उनके आँसुओं से भीगी थी और कई बार फूल, अक्षता, अबीर से रंगी थी! उनकी मधुर मुस्कान के साथ चमकी थी! आनंदित मुस्कान के साथ चमकी थी! प्रेमी पति का चुंबन भी उस फुली ने अनुभव किया था! उनके और मेरे जीवन का साक्षी फुली उनकी नाक में हमेशा रही थी। मैं न होने पर भी फुली उनके साथ रहती थी। मैंने नहीं देखे कई सुख-दुख, आँसू, पीड़ा, अनुभव, भावनाएँ, फुली जानती थी। फुली और नाक एक थे। नाक और फुली की तरह वे और मैं 41 साल के दाम्पत्य जीवन में एक होकर अनेक उतार-चढ़ाव, सुख-दुख साथ भोगे... साथ हँसे, साथ रोए। इन सबका साक्षी फुली हमारे सुख-दुख का साक्षी, प्रमाण, प्रतिबिंब बना है। हम दोनों के प्रेम का प्रतीक वह छोटी सी फुली! पानी से निकाले गए मछली की तरह छटपटाते हुए जीने को मजबूर अकेला मैं... नाक से निकाली गई और पहनने के लिए नाक नहीं रही अकेली फुली! अब वह फुली पहनने वाली मेरी पत्नी लक्ष्मी नहीं है। लेकिन अभी भी उनके द्वारा पहनी गई फुली मेरे पास है। उनकी याद दिलाने वाली वह छोटी सी फुली! पहनने वाले के बिना... फुली!



तुम्हारे विछोह और वियोग में, आँसुओं के सागर में तैरते हुए, मैंने तुम्हारे प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने और (स्पष्ट रूप से) खुद को संभालने के लिए, अत्यधिक दुखी मन को समझाने के लिए लिखा है... 

तुम्हारे द्वारा स्नेहपूर्वक संभाले गए ‘मैं’ को संभालना है

सबसे मुश्किल काम है... तुम्हें याद करके रोने वाले मन को समझाना है!

सुंदर इंद्रधनुषी रंगों ने मुझे सजाया

प्रेम के आकाश में साथ-साथ उड़ाया

तुम अभी भी मेरे दिल में हो, साथ हाे 

नौ रंगी जीवन में भी तुम साथ हो, साथसाथ हाे

असीम प्रेम से भिगोने वाली तुम अजर, अमर, अजन्मरी हो!!

 

मैं तुम्हारे विछोह और वियोग में नौ रंगी जीवन का अनुभव कर रहा हूं। 

जब व्यक्ति दुखविहीन होता है, तो वह इंद्रधनुषी रंगीन दुनिया में खो जाता है। इंद्रधनुष के रंग होते हैं सात रंग, और दो रंग और होते हैं? डाँफे के नौ रंग। वे क्या होते हैं? सात रंगों के अलावा दो रंग होते हैं— जब असहनीय शोक व्यक्ति के जीवन में आता है, वह रंगहीन अनुभवों के साथ एक शून्यता महसूस करता है। रोती आँखों से जो रंग दिखता है, वह आठवां रंग है। नौवां रंग अनेक दुख, दर्द, कठिनाइयों, रिक्तता, अभाव, पीड़ा, चोट, संताप, यातना, विछोह और वियोग की असहनीय परिस्थितियों में भी जीने की इच्छा है। यह जीवित रहने की अद्भुत, रहस्यमय, अदृश्य रंग नौवां है। 

इस तरह जीवन नौ रंगी होता है।

नौ रंगी जीवन में भी तुम साथ हो, तुम साथसाथ हो।

 वे सपनों में आती हैं। क्या सपनों में आना, सपनों में मिलना, मेरे नौ रंगी जीवन में उनका साथ देना है? 

जब मैं अत्यधिक निराश और उदास होता हूं, पलायन की मुक्ति को सोचता हूं, तब वे सपनों में आती हैं। एक बार सपने में मैंने उन्हें हल्के सुनहरे रंग की चमकदार, सुहावनी पोशाक पहने हुए देखा, वह इतनी प्रसन्न थीं, जैसे चाँदनी की तरह चमक रही थीं और हंस रही थीं! मैंने उन्हें जीवित अवस्था में ऐसा कभी नहीं देखा था। प्रसन्न होकर और खुशी से जागा। मुझे लगा, वह जीवित हैं और कहीं गई हैं। सपने में देखा वह उज्ज्वल, हंसमुख रूप मेरे वास्तविक जीवन के मुरझाए मन-फूल को ताजा करता है। मेरे भीतर जीवित रहने की अद्भुत, रहस्यमय, अदृश्य नौवां रंग खिल उठता है।

 सपने का निर्माता कौन है? चाहकर तो सपने नहीं देखे जाते। सपने में उन्हें देखकर और मिलकर मैं कुछ और दिन जी पा रहा हूं। एकल जीवन में सपनों में भी उनकी उपस्थिति... सपने भी जीवित रहने की प्रेरणा देते हैं। 

“काजी! काजी...” 

“हां...” प्रसन्नता के साथ मेरे मुख से जवाब निकलता है। 

क्या फुली ने बोला? 

नहीं, निर्जीव फुली कैसे बोल सकती है?! 

मुझे मेरे पारिवारिक नाम 'काजी' से बुलाने वाले मेरे परिवार के तीन ही लोग थे— पिता, माता और पत्नी। माँ 93 साल की हैं, सुन नहीं सकतीं और हमारे बीच बातचीत नहीं होती। पिता और पत्नी का देहांत हो चुका है। 

साधारण आम लोगों के आँसुओं के सागर में दुनिया तैर रही है। उस सागर में मेरे भी आँसू मिले हैं। चाहे कितना भी अकिंचन, नगण्य हो, कोई न कोई किसी के लिए अत्यधिक प्रिय और अपरिहार्य होता है। वह मेरे लिए ऐसी ही थीं। 

“काजी! काजी...” मैं सुनता हूं। पत्नी लक्ष्मी ने ही बुलाया। चारों ओर देखता हूं, कोई नहीं है। कहीं यह भ्रांति है या...! सपना है या! पर मैं जाग रहा हूं। “

काजी! काजी...” मुझे स्पष्ट सुनाई दे रहा है। वे ही बुला रही हैं... 

जीवित लोग हमेशा यहाँ नहीं रह सकते। यह जीवन का नियम है! 

शायद अब मुझे भी फुली को पत्नी की तरह यहीं छोड़ कर जाने का समय आ गया है...! 

अंतिम क्षण! जैसे वह रोईं, वैसे ही मैं भी अपने अधूरे, अपूर्ण जीवन के अंत और उन्हें याद कर धुरुधुरु रो रहा हूं और विदा मांग रहा हूं... “

फुली! विदा...!

 

 


 

Friday, December 6, 2024

फुली

 फुली


सरण राई

लकरमा राखेको सुनको  गहनाहरूमध्ये एउटा सानो  फुलीले मेरो सम्पूणर््ा मन र ध्यान खिच्छ ।
त्यो फुली देख्दा  हामी दुईको सम्पूणर््ा दाम्पत्य जीवनको सुखद दुःखद सबै दृश्य परिदृश्य आँखाअगाडि झल्झली देखा पर्छ । मानौंँ त्यो फुली हाम्रो जीवनको प्रेम प्रतीक, साक्षी, प्रमाण, प्रत्यक्षसहभागी–प्रत्यक्षदर्शी  भएको नाताले हामी दुईले भोगेको जीवनको रामकहानी सुनाइरहेको छ । सब दृश्य परिदृश्यहरू चलचित्रझैँ मेरो आँखा अगाडि देखाइरहेको छ ...
“म मरेपछि मेरा गहनाहरू आपूmसितै राख्नू, दुःख पाउनुभयो भने बेचेर खानू । मेरो नामको मधेसको जग्गा पनि आफ्नै नाममा राख्नू । मेरो मोबाइल सेट कसैलाई नदिनू, आफैसित राख्नू आदि आदि ...” रातभरि रुँदै जीवनको अन्तिम कालखण्डमा अविरल अश्रु–धारा चुहाउँदै तिनले भनेकी थिइन् । तिनकै इच्छा अनुसार तिनका गहनाहरू आफैसित राखेको छु । ती गहनाहरूमध्ये फुलीले नै किन मलाई आकर्षित गरेर  मन झस्काउदै रुवाउन थालेको छ ?!
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टमक्क मिलेको जिउडाल, अबोध ग्रामीण बाला, लावण्यता र सुन्दरताले प्रदीप्त निर्दाेष श्रृङ्गारविहीन प्राकृतिक आकर्षक हसिलो दीप्तिमय अनुहार र काम ब्यायामले कस्सिएको छरितो कसरती शरीर । अर्कातिर फर्कदा टलक्क टल्किएको नाकको फुलीको इउँ जस्तै हाँस्दा मिलेको टल्किने सेता दन्तलहर । सोचेको, कल्पना गरेको भन्दा सुन्दरी तिनलाई पहिलो चोटि देख्दा नै हृदय झङ्कृत भई म मोहित भएको थिएँ ।
मैले बिहेको लागि केटी माग्ने कुरामा सहमति जनाएँ । प्रक्रिया थालियो तर केटीले नमाने पछि कुरा रोकियो । रात परिसकेकोले त्यस रात लमी र म तिनको छिमेकीको घरमा बास बस्यौँ । रक्सी  खाँदै गफ गर्दा र गीत गाउदै राती निकै अबेलासम्म बस्यौँ । केटी नमानेपछि अमिलो मन लिएर मैले पनि धेरै रक्सी खाएछु । “बिहानै उठेर कसैले नदेख्ने गरी जानु पर्छ ।” मैले भनेको थिएँ ।
लमीले पनि “हुन्छ” भनेका थिए । बिहान अबेला मात्र म बिउझेँ । हेर्छु लमी छैन । बाटोतिर हेर्दा तिनी नै हल्लीखल्ली गर्दै छिमेकीसँग कराएर बात मार्दै  गाग्रीमा पानी भरेर डोकोमा बोकेर फर्किरहेकी थिइन् । आँखा जुध्यो, मलाई रीस पनि उठ्यो, लाज पनि लाग्यो । सम्झेँ— ‘मसित बिहे गर्न मानिनन् । किन ?’
केही बेरपछि लमी पनि आइपुगे । “कुरो मिल्लाजस्तो छ, मगनी प्रक्रिया अगाडि बढाऔ ?” सोधे । मैले “हुन्छ” भनेँ ।
मगनी प्रक्रिया थालियो । त्यसै बीचमा तिनका पिताले छोरीलाई सोधे— “राजी छौ ?”
“राजी छु ।” तिनले भनिन् ।
त्यतिबेला म खुसी भएर थाहै नपाइ हाँसेछु  ।  बिहेपछि तिनले भन्दा पो हाँसेको कुरा थाहा पाएँ । यसरी तिनी मेरो जीवन सङ्गिनी भइन् । मेरी पत्नी भइसकेपछि मैले तिनलाई सोधेँ— “किन अघिल्लो दिन मानिनौ ?”
“कहिले नदेखेको मानिस, के कस्तो छ ? कसरी मान्नु ? पछि सोचेँ यत्तिको केटो ठिकै छ, अनि मानेँ नि ।” तिनको सिधा जवाफ । निश्छल, पवित्र र सफा मन तिनको । मेरो चित्त बुझ्यो । तिनी मेरो सर्वस्व भइन् ।
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 बिहेमा बेहुलीलाई दिने सुनको गहनाबारे पारिवारिक छलफल भयो । घरपट्टिकाले र माइतीपट्टिकाले पनि सुनका गहनाहरू, पोते, चुरा, धागो र लुगाहरू बेहुलीलाई दिए । तिनको नाकमा रहेको सानो फुलीबारे माइती र घरपट्टिका कसैले छलफल गरेनन्, चासो राखेनन् ।
बिहे हुनुभन्दा अगाडि कन्या हुँदादेखि नै तिनले लगाइराखेकी फुलीबारे तिनी जीवित हुँदा मैले कुनै चासो राखिनँ र फुलीबारे कहिल्यै कुरा भएन । “कहिलेदेखि फुली लगाईरहेकी छ्यौ ?” भनेर कहिल्यै सोधिनँ । अब त कसलाई सोध्ने  र !  कुन उमेर कुन समयदेखि यो फुली तिनले लगाइन् ? फुली र तिनको जीवनको अविच्छिन्न घनिष्ठता कहिले देखि गाँसियो ? थाहा भएन ।
बिहे हुनुभन्दा अगाडि कन्या हुँदादेखि नै तिनले लगाइराखेको फुली नै बिहेमा बेहुली हुँदा पनि  तिनले लगाएकी थिइन्् । यसरी फुली बिहे अगाडिदेखि बिहेको दिन पनि र मृत्युपर्यन्त जीवनभर तिनको नाकमा नै रहिरह्यो ।
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बिहे पछिका केही वर्षहरू स्वतः रमणीय हुन्छन् नै । मेरो निम्ति आफूलाई पूर्णतया समर्पित एक नारी मसँगै आफ्नो जीवन गाँसेर सुख दुःख भोग्न राजी भई मलाई सबथोक सर्वस्व सम्झी हरपल मसँगै रहने बस्ने  जीवन साथी छ भन्ने अनुभूतिबोधले म हर्षित गर्वित थिएँ । प्रेममा समर्पण थाहा नभएको मैले पहिलो चोटि प्रेम के हो ? कस्तो हुन्छ ? थाहा पाएको थिएँ । विपरित लिङ्गीबाट पाइने प्रेम मायामोह, असीम मानसिक र शारीरिक सुख तिनीबाट पाएर म प्रसन्न थिएँ ।  तिनी पनि प्रसन्न थिइन् । अपूर्व पूर्ण प्रेममा पूर्ण मिलनले हामी दुई एकआपसमा विलय भएका थियौँ । वर्षहरू बितेको पत्तै भएन । रमणीय दाम्पत्य जीवन ! मानिस यसरी सुखका दिनहरूमा सप्तरङ्गी रङ्गले रङ्गिएको प्रेमिल संसारमा भुलिदो रहेछ र आपूmलाई सर्वाधिक सुखी महूुस गर्दाेरहेछ ।
म आमाबाबुको एक्लो छोरो भएकोले सानैदेखि पुल्पुलाएर पालिएको र हुर्किएको स्वाभिमानी सोझो युवक थिएँ । विवाहपछि पनि तिनले मलाई आफ्नो सम्पूर्ण मायाप्रेम र साथ दिएर ४१ वर्ष अर्थात आफ्नो मृत्युपर्यन्त पुल्पुलाएर नै मायाले लपक्कै भिजाएरै सुखमा नै राखिन् । आनन्ददायक र प्रभावोत्पादक अपार यौवन सुख र जीवन सुख दिइन् । एउटी प्रेमिका र पत्नीले दिने सबै सुख, प्रेम, माया, मोह र साथ दिने तिनीजस्ती प्रेमिका–पत्नी पाएर मेरो जीवन सार्थक भएको थियो ।
तीनजना छोराहरू वर्षेनीजस्तै जन्मिए । तिनीहरूको जन्मले परिवारमा हषर््ाको वर्षा भयो । हाम्रो पारिवारिक जीवन सफल एवं पूर्ण भयो । तापनि  जहिले पनि पैसाको अभावले गरिबी जीवन । शिक्षकको थोरै तलव, घरखर्च चलाउन सरसापटी नलिई महिना काट्न धौ धौ । सम्पत्तिको अभाव भएपनि मायालु पत्नीको अगाध प्रेम, विश्वास, मनोहारिणी मुस्कुराहट र साथ पाएर म दाम्पत्य जीवनमा आइपरेका अनेकौं समस्या झेल्न सक्ने भएको थिएँ । तिनी र म ! हामी एकआपसमा घुलन विलयन भएर एकाकार भएका थियौँ । प्रेमले निथ्रुक्क भिजेका थियौँ, र भएका थियौँ अविरल जीवन प्रवाहमा बगिरहेको एउटा समय नदीको एउटै थोपा–थोप्लो.. ।

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एउटी साली थिइन् हँसिली, फस्र्याइली र हक्की । भर्खर हाम्रो बिहे भएको बेला तिनले भनेकी थिइन्, “तीनजना नानीहरू बर्षेनी जन्माएँ र अहिले परिवार नियोजन गरेकी छु । अब त ढुक्क !” हामी तीनैजना मज्जाले हाँसेका थियौँ ।
साली गइसकेपछि तिनले भनिन्— “म पनि त्यसै गर्छु बहिनीले जस्तै ।”
“हुन्छ नि ।” मैले पनि सहमति जनाएको थिएँ ।
नभन्दै दुईजना छोराहरू १४महिनाको फरकमा जन्मिए । अर्काे पेटमा छ, महिना पुगेर जन्मने बेला हुँदै छ । त्यतिबेला धरानको घरमा हामी पति, पत्नी र साना छोराहरू बस्थ्यौँ । “अब तेस्रो नानी जन्मने बेला हुँदैछ, के गर्ने ?” तिनको प्रश्न ।
“ती साना छोराहरूलाई मधेसमा आमाबुबाकहाँ पु¥याएर बिराटनगर अस्पताल प्रसूतिको लागि जाने ।” हाम्रो सल्लाह बमोजिम बेलबारीसम्म बसमा गयौँ । त्यतिबेला मधेस जाने यातायातको केही साधन थिएन, हिड्नु बाहेक अरु उपाय थिएन । बेलबारीमा उत्रेर साना नानीहरू बोकेर झन्डै चार घन्टा हिडेर बोराबान पुग्यौँ । त्यो समय नै यस्तो थियो कि सबै जना पैदलै हिँडिरहेका हुन्थे ।  बाटामा मानिसहरू हेर्थे— २ वर्ष ८ महिनाको र १ वर्ष ६ महिनाको साना नानीहरू बोकेर ँिहडिरहेका हामी दुई, तिनको घ्याम्पाजत्रो भुडी । भोलिपल्ट बिहानै तीन घण्टा हिँडेर बिराटनगर पुग्यौँ । जस्तै संकट समस्या परे पनि हरेश नखाने साहसी  तिनी, सानो नानीहरू मधेस छोडेर अर्को नानी पाउन हिडेरै अस्पताल पुगिन् । बिराटनगर अस्पतालमा कान्छो छोराको जन्मले हाम्रो  खुसी पराकाष्ठामा पुगेको थियो ।  त्यो समय नै हाम्रो सर्वाधिक सुख, सन्तोष, सुख र आनन्दको समयावधि  थियो ।

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पाँच वर्षमुनिका नानीहरू हुर्काउन झिसमिसे बिहानैदेखि राती अबेलासम्म खाना बनाउनु, नानीहरूलाई खुवाउनु, जुठोभाडा धुनु, पानी भर्नु, लुगा धुनु आदि अनेकौं कामहरू गर्दा पनि थकित नभई म कामबाट फर्कदा मोहक मृदु मुस्कानसाथ मलाई पर्खिरहेकी हुन्थिन् । तिनलाई भेट्नासाथ म यत्ति धेरै खुसी हुन्थे कि सबै अभाव, गरिबी र दुःख बिर्सन्थेँ । तिनी साथ भएपछि मसित सबथोक हुन्थ्यो । सांसारिक जीवनमा ‘प्रेम छ र प्रेम पाए’ त्यो भन्दा सर्वोत्कृष्ट सुन्दर अरु के होला र, चाहिएला ?! म भएपछि तिनलाई पनि अरु केही चाहिदैनथ्यो । तिनी सदैव घरको अनेकौं कामको बोझले थिचिएकी हुन्थिन् । म भने मिटिङ्ग छ भनेर उम्किएर तासको दुव्र्यसनमा भुलिन्थँे ।
तिनको ममाथि यत्ति धेरै विश्वास थियो कि म तलब थापेर जति दिन्थे, राख्थिन् र कष्टसाथ घरखर्च चलाउथिन् । म तास खेल्न केही रकम लुकाएर राख्थँे तर तिनले कहिल्यै शंका गरिनन् ।
त्यतिबेला भर्खर टेलिफोन आएको थियो ।  टोलमा हाम्रो घरमा मात्र टेलिफोन जडान गरिएको हुँनाले टेलिफोनको चर्को घन्टी आउनासाथ घरका  र छिमेकका सबैका कान ठाडा हुन्थे ।
“कस्को फोन ?” तिनी सोध्थिन् ।
“साथीको” भनेर म ढाट्थे । तर फेरि पटक पटक फोन बारम्बार आएको आएकै भएपछि सत्य कुरा बताएँ । तास खेल्दा लिएको सापटी ऋण रकम निकै धेरै भएको थियो ऋण दिने मान्छेको ताकेता टेलिफोनमा आइरहेको हुन्थ्यो ।
“तास खेल्दा लिएको सापटी ऋणको ताकेता फोनमा गरिरहन्छ ।”
“कति छ ?”
रकम मैले बताएँ ।
“अब तास खेल्न छाड्नुहुन्छ भने मेरो गहना धितो राखेर त्यो ऋण तिरीदिन्छु ।” तिनले भनिन् ।
ऋण दिने मान्छेको रातदिनको ताकेता र कचकच,  बेइज्जत नै गर्ला, होलाजस्तो भइसकेको थियो । मैले “छाड्छु” भनेँ । तिनले गहना धितो राखेर ऋण तिरिदिइन् । तासे व्यसनबाट म मुक्त भएँ । त्यसपछि तासे समय अध्ययनप्रति केन्द्रित भयो ।
तिनले रिसाएर झर्किफर्कि गरेकी भए  सायद म तास खेल्न छाड्दिनँ थिएँ होला । तर तिनको मायालु व्यवहार र मेरो समस्याबाट झन् धेरै पिरोलिएर ऋण तिरिदिइसकेपछि फेरि मैले तास खेलिरहन सकिनँ ।

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तास छोडेपछि ममाथि अर्को नराम्रो रक्सी खाने लत बस्यो । दिनभर काममा व्यस्त तर साँझ परेपछि कुनै न कुनै साथीसँग रक्सी खाइएकै हुन्थ्यो । पाहुनाहरू आइरहने र पाहुनालाई रक्सी दिने चलनले गर्दा घरमा पनि तिनी रक्सी पार्थिन्  । पाहुनाहरूलाई रक्सी खुवाइएन भने पाहुनालाई पनि र आफूलाई पनि खल्लो लाग्थ्यो । बाहिर रक्सी मातुन्जेल खाएर आए पनि घरमा आइसकेपछि अलिकति रक्सी नखाइ हुँदैनथ्यो । तन्नेरी भएकोले रक्सी पचिरहेको थियो । तर एक पटक पाहुनाहरूसँग  अबेला रातीसम्म रक्सी र मासु खाएर सुतेँ ।
राती निन्द्रामै जोडले कराएर छारे रोग लाग्दाझैँ आँखा पल्टाएर बेहोस भएँछु । तिनी पनि तरुनी नै भएकाले बलियी थिइन् । उचाल्दै झक्झकाउदै बेहोस मलाई हात खुट्टा जिउ मालिस गरिन् रे । घरमा साना बालक छोराहरू मात्र थिए । मद्दत गर्ने  ठूलो मानिस कोही थिएन । आधा घन्टापछि मात्र मलाई होस आयो रे । बिहान तिनले यी कुराहरू भनिन् । मलाई रातीको त्यो घटना केही थाहा थिएन । तिनको मद्दत नपाएको भए म निद्रामै गइसकेको हुन्थे होला ।
बिहानै डाक्टरकहाँ गयौँ । डाक्टरले सिलगढीको डाक्टरकहाँ जान रेफर गरिदिए । सिटिस्क्यानको रिपोर्ट हेरेर डाक्टरले दिमागमा सिस्ट भएको कुरा बताए । उच्च रक्तचापको दबाइ तुरुन्त सुरु गरे ।  एम.आर.आई. गरिसकेपछि  त्यसको रिपोर्ट हेरेर भने— “एक महिना औषधि खाने, औषधिले निको भएन भनै अपरेसन गर्नुपर्छ ।”
शिक्षकको थोरै तलब, जहिले पैसाको अभाव । म मधेसमा बसिरहनु भएको आमा बुबासँग मद्दत माग्न त्यता गएँ । आमालाई सबै बताएँ । आमाले असमर्थता जनाउनु भएपछि निराश हतास भएर त्यसै दिन धरान फकिएँ ।
“नआत्तिनु, काजी । म मेरा गहनाहरू बेचेर भए पनि तपाईँलाई निको पार्छु । तपाईँ भए मलाई अरु केही चाहिदैन ।” तिनले भनिन् । तिनको मायालु ढाडस र त्यागले म द्रवित भएँ ।
भोलिपल्ट  बुबा आउनु भयो । मेरो ओइलिसकेको मन आशावती भयो– उपचार खर्च दिनु हुन्छ कि !

“जन्मदा नै मर्ने कबोल गरेर जन्मिएका हुन्छौँ, मनमा पीर नगर् । नआत्ति ! सबैले मर्नै पर्छ ।” बुबाले भन्नु भयो । मेरो आशामा तुषारापात भयो । आमाबुबाले मलाई माया मारिसकेका रहेछन् । एक्लो छोरा अब बाँच्तैन भन्ने सोचेका रहेछन् । त्यति भनेर बुबा फर्किनु भयो ।
तिनले नै गहनाहरू धितो राखेर खर्चको व्यवस्था मिलाइन् । त्यति बेला मेरो बोली समेत लठेब्रो भएको थियो । मृत्युको भय र जीवनको अवसानबोधले खिन्न मन, बाँच्न पाए हुन्थ्यो भन्ने सोचिरहेको मनले सहारा खोजिरहेको अवस्था । मृत्युबोध कति कष्टकर हुन्छ ? त्यतिबेला मैले थाहा पाएको थिएँ । औषधिले नै निको भएँ, अपरेसन गर्नु परेन । पत्नी नै भए पनि मलाई तिनले नै त्यतिबेला बचाएकी हुँनाले म झन् तिनको नजिक भएर तिनीसँग अन्तरघुलित एकाकार एक प्राण हुन पुगेँ । मेरो सारा जीवन र प्राण तिनकै लागि हो र हामी एकअर्काका लागि जन्मेका र एकअर्काका सर्वस्व हौँ भन्ने लाग्न थाल्यो । एकसाथ भोगेको सुखदुःखले हामी दुईलाई पूर्णतया एक एउटा ‘कण वा बिन्द’ु बनाइ दियो कि एक अर्का बिनाको एक्लो अस्तित्व कल्पनै गर्न नसक्ने भयौँ ।
जीवनमा यस्ता किसिमका घटनाहरू बिरामी, दुर्घटना, झैझगडा, मुद्दा मामिला, जन्म, न्वारान, छेवर, पास्नी, विवाह, मृत्यु, मृत्यु संस्कार आदि यस्ता कति घटना परिघटना उतार चढाव साना ठूला सुख दुःख एक साथ भोग्यौँ, बेहो¥यँौ ।
 मेरो सुखमा म भन्दा दोब्बर खुशी र  मेरो दुःखमा म भन्दा दोब्बर दुःखी हुन्थिन् तिनी । तर एक पटक तिनी दुई तीन दिन बस्ने हिसाबले देउरानीलाई पनि साथमा लगेर माइत गएकी थिइन् । हाम्रो विवाहपछि ससुराले कान्छी बिहे गरेका थिए । बेलुकी के कुरामा विवाद भयो ? भनाभन भयो र पिताको हातबाट बिहे भइसकेकी तिनले कुटाइ खाएछिन् । भोलि नै फर्केर आइन् र राती मलाई रुँदै सुनाइन् । रिस, क्षोभ र वेदनाले म यति द्रवित भएँ । सोचेँ— ससुराले बिहे भएर मेरी भइसकेकी छोरीलाई एक दिन माइत आएको बेला कु्ट्न हुँदैनथ्यो  ! त्यो रात ढाडस दिँदै मनभित्र उठेको आक्रोशलाई प्रेममायामा परिणत गरेर तिनलाई लपक्कै भिजाएर त्यो घटना बिर्सन लगाएँ । यो घटना पछि माइत जाने क्रम पनि कम भयो । हामी झन् नजिक भएर नछुट्टिने गरी एकअर्कामा पूर्ण समर्पित  हुन थाल्यौँ ।
 यस्ता  क्षणहरू कति आए, गए  जुन सम्झनाको तरेलीमा सञ्चित भएर रहेका छन् । सम्झिइनका लागि उपयुक्त अवसर पर्खेर बसेका छन् । यी सबैको साक्षी सदैव तिनको नाकमा रहेको त्यो फुली थियो र ...फुली देख्दा अहिले विकल एक्लो म ती सब सम्झिरहेको छु ।
कुनै बेला आधा रातमा  वा रात विरात तिनको सम्झना आएर मुटु चरक्क चिरिन्छ, उठेर बस्छु र एकोहोरिन्छु  तर एकल जीवन ... “काजी,के भयो ?” सोध्ने तिनी कहाँ छिन् र !

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 बिद्यार्थी कालमा काठमाडौंमा पढ्दा एकजना विवाहित साथीले उनको पत्नीको लागि हिराको फुली किन्न मलाई पसलमा साथी लगेका थिए । त्यतिबेला ४०० रूपियामा उनले हिराको फुली किनेका थिए । त्यतिबेला होटलहरूले महिनावारी खाना  १०० रूपियामा खुवाउथे  । त्यो पसल सम्झदा मैले तिनलाई भनेको थिएँ— “म तिमीलाई हिराको फुली किनी दिन्छु ।”
“हुन्छ नि !” तिनले प्रसन्न भएर भनेकी थिइन् ।
मैले सोचेको थिएँ— पहिला साथीले हिराको फुली किनेको पसल अहिले पनि होला । त्यतिबेला ४००पर्ने हिराको फुली  अहिले बढि परे ४०००रूपिया पर्ला । पैसाको जोहो गरेर हामी पति पत्नी त्यो पसल भएको ठाउँ पुग्यौँ । के को त्यो पसल हुनु नि ! त्यो पसल थिएन । अन्त हिराको फुली पाइने पसल खोज्यौँ, भेटिएन । हिराको फुली किन्ने कुरा सधैंको लागि सेलायो ।
 हिराको फुलीले तिनले लगाइराखेको फुली विस्थापित गर्ने कुरा हरायो । सधंै लगाइरहेकी फुली नै मृत्युपर्यन्त लगाइरहिन् ।


संकट जब आउँछ, हुरी भएरै आउँदो रहेछ । छोराहरूको स्कूल फिस, ड्रेस, औषधि, टेलिफोन महसुल, बिजुली, पानी आदि अनेकौ खर्च ।  धानीसक्नु थिएन । त्यसमाथि परिवारको कोही बिरामी भए सुन धितो राखेर उपचार गर्नुपर्ने बाध्यता । सिक्री, मङ्गलसूत्र, अांंैठी चुरा आदि फुली बाहेक सबै सुनका गहनाहरू धितो राखि सकेका थियौँ । उकास्न नसकेर पच भयो ।   बेच्न माया लागेर धितो राखेका थियौँ । ‘पैसा भएपछि उकासौंला’ भन्दा भन्दै सावा ब्याज दोब्बर तेब्बर भएर उकास्नै सकिएन ।
बिचरी तिनको नाक कान बुच्चै । गरिब शिक्षकको पत्नी ! बिहाका निम्तोहरू आउँथे, जान मान्दिनथिन् । धेरै विवाहमा नगएपछि सोचेँ— ‘किन जान मान्दिनन् ।’ बिहेमा आईमाईहरू सुनले पहेलै भएर आउँथे । साथीसङ्गीको अगाडि लाजमर्दाे भइएला भनेर  बिहेमा जान मान्दिनथिन् । लाहुरे भाइ छुट्टिमा आउँदा गहना किन्दिन्थे । अर्को पटक आउँदा दिदीको नाक कान बुच्चै ।
सधैंभरि पैसाको अभाव, गहना छैन । रुखोसुखो जिन्दगी भएपनि तिनले मसित ‘गहना किन्दिएनौ, भएको गहना सिद्धियो अनि  कहिल्यै पैसा कमाउन सकेनौ ।’ भनेर गुनासो गरिनन् । बिहानदेखि राती अबेलासम्म घर खर्च चलाउन अनेकौं दुःख गरिन् । साहूको ऊन ल्याएर ज्यालामा स्वेटर बुनिन् । जङ्गलबाट दाउरा बोकेर ल्याई दाउराको खर्च जोगाइन् । कुखुरा पालन, भैंसीपालन, बिडी फैक्टरी, गार्मेन्ट, ब्याग फेक्टरी के चाहिँ गरिनन् ? कडा परिश्रम गरिन्, परिवारका लागि धेरै त्याग गरीन् तर समयले साथ दिएन । तर पनि हामीले कहिल्यै हिम्मत हारेनौँ । हामी दुवैजना  हुँदा स्वास्थ रहुन्जेल कहिल्यै दुःखी भएनौँ । तिनी भए मेरो रमाइलो संसार हुन्थ्यो, म भए तिनको रमणीय दुनियाँ ।
हामी बीच पैसाको अभाव  भए पनि मायाप्रेम, विश्वास र साथको अभाव थिएन । हरेक आर्थिक समस्याहरू हाँसीहाँसी झेलिरहेका थियौँ । आमाबुबा, म र पत्नी, छोराहरू, बुहारीहरू, पछि नातिनातिनीहरू हाम्रो सुखी परिवार ! तिनी हुँदाका मेरा सुखद दिनहरू... ।
मभन्दा अगाडिदेखि नै र म तिनीसँग हुँदा पनि र नहुँदा पनि  फुली सदैव तिनको नाकमा रहेको थियो । तिनले एक्लै र हामी दुईले सँगसँगै भोगेका सुखदुःखका साक्षी प्रत्यक्षदर्शी भएर त्यो सानो फुली मेरो अगाडि देखा पर्छ र मलाई विगतको सम्झनामा उडाएर लैजान्छ, पु¥याउँछ ।
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२०१५ सालको आम निर्वाचनमा पराजित भएपनि राजनीतिमा पिताज्यू सक्रिय नै हुनुहुन्थ्यो  । तर २०१७ सालमा राजाले संसद विघटन गरेर बहुदलीय व्यवस्थाको अन्त भएको घोषणासँगै दलहरू प्रतिबन्धित भए ।
त्यसपछि भने पहाड छोडेर पिताज्यू पनि  मधेस झर्नु भयो । नयाँ खुलेको झोडामा झोडा आवाद गर्न थाल्नु भयो । सौभाग्यवश  आवाद गरेको झोडा जग्गाको धनिपुर्जा पिता र मेरो नाममा दर्ता भयो । हामी दस बिघा जग्गाको मालिक भयौँ ।
त्यो समयमा राजमार्ग बनेको थिएन । बर्खामा जताततै हिलो, पानी, कच्ची बाटो हिड्दा हातमा चप्पल जुत्ता बोकेर खाली खुट्टा हिड्नु पथ्र्यो । बनिया र हुनेखानेहरू घोडा चढेर हिड्थे । देहातमा घोडा एक मात्र यातायातको साधन थियो । पिताले पनि घोडा किन्नु भएको थियो ।  पूर्वपश्चिम राजमार्ग, सडक, बाटोघाटो बनियो । साइकल आयो । साइकलले घोडालाई विस्थापित ग¥यो । घोडा हरायो ।
पिताज्यूले पनि साइकल चढ्न थाल्नु भयो ।  जीवनभर साइकल चढ्दाचढ्दा ७६ वर्षको उमेरमा मोटर साइकल चढ्ने रहर गर्नु भयो । मोटर साइकल किन्नु भयो र सो सिक्ने क्रममा नै मोटरसाइकल दुर्घटनामा उहाँको देहान्त भयो ।
पिताज्यूको देहान्तपछि मधेसको खेती हेरेर आमा एक्लै बस्न थाल्नु भयो । धरानमा हामीसँगै बसौँ भन्दा मानिरहनु भएको थिएन । छोराहरूले एस.एल.सि. उत्तिर्ण गरे । हाम्रो खुसीको सीमा रहेन । माइला र कान्छा छोरा आइ.ए.मा नै अड्किए । पढाउनेको छोराहरूले   पढ्न नै छाडे ।
 पढाइ छोड्नको कारण लागू पदार्थ रहेछ । लागू पदार्थको कुलतमा फसेको  हामीले थाहा पाउँदा ढिलो भइसकेको थियो । आमाले भन्नु भयो— “एउटा अन्डा बिग्रियो, फालिदेऊ ।” बहिनीहरूले छिःछिःदुरदुर गरे  । आफन्तहरूले नाकमुख खुम्चाए, खिशीट्युरी गरे । “नआत्तिनु माइजू, एक दिन सप्रिने छन् ।” भन्ने भान्जे ज्वाइँको भनाइले  भने तिनले प्रेरणा प्राप्त भएको कुरा जीवनभर सम्झिरहिन् ।
लागू पदार्थको दुव्र्यसनमा परिवारको एक जना मात्र फस्यो भने  परिवारको अवस्था कति दयनीय करुण हुन्छ ? भुक्त भोगी भइयो । धरको सामान हराउँछ, गोजीको पैसा हराउँछ । घरमा पाहुनाहरू  आए भने थरथरी, कतिखेर पाहुनाको सामान हराउने हो ? र, लाजमर्दो भइएला । घरभित्र त अशान्ति फैलन्छ नै मनभित्र पनि अशान्ति, पीडा, क्षोभ र निराशा व्यप्त हुन्छ कि  सम्झन बाध्य भइन्छ— ‘सपना सबै उडायो हुरीले ।’
जति नै बिगे्र पनि र जेसुकै भए पनि मुटुभन्दा प्यारा छोराहरू... उनीहरूको उपद्रो बदमासी सहनै प¥यो, खप्नै प¥यो । आमाको विश्वास र मन । ऋण सापटी खोजेर सुधार केन्द्र लग्यौँ । हिम्मती तिनी, तिनले छोराहरूलाई सुधार्न के चाहिँ गरिनन् ? तिनको परिश्रम, विश्वास, कर्मठता र  लगनले बिग्रेका छोराहरू सुध्रिए ।
ती बिग्रेका छोराहरूले नै तिनलाई तिनको अन्तिम कालखण्डमा स्याहारे, सेवा शुश्रुषा गरे, धन्य तिनी !
तिनको लाश संस्कार्नु भन्दा अगाडि  लाश रुङिरहेका ती दुई भाइ छोराहरूलाई मैले भनेको थिएँ— “बिग्रेका तिमीहरूलाई सुधारेर नै तिमीहरूका आमा मरिन् ।”
जिउँदाले झैँ लासले सुन्ने कुरा भएन । तर त्यतिबेलासम्म तिनको लाशको नाकमा नै फुली रहेको  थियो र मैले भनेको त्यो कुरा फुली देख्दा सम्झना भएर आउछ ।
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जेठो छोरो राम्ररी नै पढिरहेको थियो । माइलो र कान्छो छोराहरू बिग्रेर सप्रिए पछि पनि हाम्रो आर्थिक अवस्था सुध्रेन, नाजुक भयो । ऋणमा चुर्लुम्म डुबेका थियौँ । पिताको देहान्त पछि पनि आमा एक्लै मधेसको खेती हेरेर बसिरहनु भएको थियो ।
ऋणबाट उक्सन किस्ता ऋणैमा टेक्ट्रर किनेर म, पत्नी र दुई जना छोराहरू मधेसमा खेती गर्न गएका थियौँ । टेक्ट्ररले आफ्नो दस बिघा जग्गामा खेती गरेर ऋण तिर्न सकिएला कि भन्ने आशा  थियो ।
“तिमीहरू खेती गरेर मधेस बस्छौभने म घर छाेंडेर हिड्छु, घरै बस्तिनँ ।” आमाले भन्नु भयो साथै  घर छोडेर माइतीतिर जानु भयो ।  पत्नी र मैले आमाको चित्त दुखाएर खेती नगर्ने र मधेस पनि नबस्ने भनेर सल्लाह ग¥यौँ । नयाँ टेक्ट्ररले हामीलाई केही काम दिएन ।
तिनी धरान पर्सिपल्ट नै फर्किइन् । म बेलबारीसम्म पु¥याउन गएँ, तिनले “चिया खाएर छुट्टियौँ ।” भनिन् ।
मैले भनेँ “मसित पैसा छैन ।”
“मसित छ ।” भनिन् र चिया खाएर तिनी धरान गइन् । म बोराबान फर्किएँ विछोडकोे नमीठो गाँठो मनमा लिएर । त्यो कुरा अझै झलझली सम्झन्छु । त्यतिबेला छुट्टिए जस्तो  मृत्युमा  कहाँ छुट्टिन पाइदो रहेछ ! केही दिनपछिको त्यसपालीको मेरो जन्मदिन तिनी साथमा नहुँदा मलाई अति फिका अनुभव भएको थियो  । अब त मेरा सबै दिनहरू तिनको अभावमा फिका फिका नै हुन गएका छन् ।
पिता जीवित हुँदा नै ७ बिघामा उखु खेती गर्ने भनेर ऋण स्वीकृत गराएका थियौँ । पछि  ४ बिघामा मात्र खेती लगाएको भनेर पूरा स्वीकृत ऋण रकम पनि लिन पाइएन । उखु खेतीमा  पनि सफल हुन सकिएन । सम्पत्ति भएर पनि त्यो सम्पत्ति आफ्नो चाहना मुताविक कहिल्यै प्रयोग गर्न पाइएन ।
दाम्पत्य जीवन सधैै एकनासको कहाँ हुन्छ र ? सुख दुःखले लपेटिएको हुन्छ । प्रेममाया पनि डाह, घृणा, इष्र्या र अवहेलनाभित्र अवस्थित हुन्छ । अलिकति तल माथि प¥यो कि प्रेम घृणामा रूपान्तरित हुन सक्छ । हामी दुईका दाम्पत्य प्रेममा पनि त्यस्ता कैयौ उतार चढाव आयो गयो । कैयौ घटना परिघटनाहरूले प्रेमको जाँच लिए पनि तिनको मृत्युपर्यन्त  हामी बीचको मायापिरती अविचल गाढा रह्यो ।
सबैको दाम्पत्य जीवनमा घटने अनेकौ आरोह अवरोह हाम्रो जीवनमा पनि नहुने कुरा थिएन ।  प्रेममा आँखी डाही पनि थियो भन्ने कुरा एउटा सानो परिघटनाले पुष्टि ग¥यो । सुन्दरी भएकैले तिनलाई सबैले मन पराउथे । कतै मलाई धोका त दिन्नन् ? शङ्काको उद्वेगमा एक पटक मैले कुटपिट गरेँ, कत्तीले काट्न खोजेँ । चुपचाप लागेर हेरिरहिन्, केही जवाफ फर्काइनन् । कत्ती फालेर घर छोेडी हिडेँ । दुई दिनपछि फर्कदा तिनको ओठ सुनिएको थियो । तर मेरा लागि भनेर केराको विशुद्ध रक्सी पारेर राखेकी थिइन् । पहिला पनि असोजको फूल, अमला, किम्बुको स्वादिलो रक्सी पारेर खुवाइसकेकी थिइन् । केराको रक्सी खान दिइन्, लज्जाले मेरो शिर झुक्यो । मैले कुटपिट गर्नुको भित्री कारण आँखीडाही थियो । कत्तीले काट्न खोजे जस्तो गरेको तिनलाई डर देखाएर तर्साएर तह लगाउनु थियो । अनाहक कुटपिट गरेकोमा म लज्जित थिएँ । माफ माग्नै परेन । माफ दिइन् र हाम्रो दाम्पत्य प्रेम झन् प्रगाढ भएर आयो । हामी बीचको अदृश्य भित्री प्रेम अविरल तडकारो प्रज्ज्वलित गाढा भएर सतहमा पनि देखिने भयो । एउटा रेडियो कार्यक्रममा ‘कुटपिट गर्ने पतिलाई पत्नीहरूले बढि माया गर्छन् ।’ भन्ने सुनेको कुरा हो कि जस्तै लाग्यो । त्यसपछि कहिल्यै त्यस्तो कुटपिटको घटना दोहोरिएन । तिनले त्यो घटनाबारे त्यसपछि कहिल्यै कुरा गरिनन् । प्रसङ्ग नआए पछि वास्तवमा त्यो बेला म आपूm नरिसाएको तर नाटक मात्र गरेको भनेर मैले पुष्टि गर्ने मौका कहिल्यै पाइनँ । कैयौ कुराहरू मैले भन्नु थियो तर भनिनँ । म कसरी अत्यन्त विचलित भएको बेला मन बाँध्छु भन्ने मेरो आफ्नो तरिका तिनलाई नसिकाएकोमा अहिलेसम्म पछुतो लाग्छ । अब त भन्न सिकाउन कहाँ पाउनु र !
सबैको दाम्पत्य जीवनमा घटने यस्ता कुराहरू हाम्रो जीवनमा पनि नहुने कुरा थिएन ।  एक अर्कामाथिको विश्वास र दरिलो माया मोहले सबै पचाइयो जसको साक्षी फुली भएको छ ।
धरानमा आम्दानी हुने अनेकौ मसिना कामहरू गरेर घर खर्च चलाउन तिनले निकै परिश्रम गरिन् । घर भान्सा, चुला चौका, कुन तरकारी पकाउने ? कसरी परिवारमा सुख सन्तोष कायम राख्ने ? आदि समस्यामा नै आम गृहिणीहरूको जस्तै तिनको जिन्दगी बित्यो !  मधुुमेह रोगले चाप्दै लगेर तिनको मृगौला बिग्रेर डायलाइसिस गर्दागर्दै तिनको प्राणान्त भयो । मिहिनती तिनी खेती गर्न पाएको भए खेतीमा हुने व्यायामले गर्दा मधुमेहले त्यति छिट्टै च्याप्न सक्तैनथ्यो कि ! छिमेकी मेरो दौतरी कान्छा कान्छी  खेतीमा अझै बाँचिरहेको देख्दा कतै तिनी पनि बाँचिरहेकी हुन्थिन् कि— कल्पिन्छु । तर अब कल्पिनुको कुनै तुक छैन ।
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“तिमीलाई ताजमहल घुमाउन लैजान्छु ।” नजिकको ताजमहलसम्म चाहिँ लैजान सक्छु भन्ने आँटले मैले पत्नीलाई भनेको थिएँ ।
“म जन्मेको हाम्रो पुर्खौली गाउँ लैजान्छु ।” भनेको थिएँ, तर समय कहिल्यै अनुकुल भएन ।
पत्नीलाई मधुमेह भएको पनि धेरै वषर््ा भएसकेको थियो ।  मधुमेहले आफ्नो शक्ति देखाउन थालेको हुन्छ, युरिनरि इन्फेक्सन निको भएर फेरि बल्झिरहने, ज्वरो आउने, उल्टि आउने र कमजोरी हुने अनेक लक्षणहरू । क्रिटेनाइन बढ्न थालेको थियो ।
समयमा दिसा पिसाब नहुने, खाना नरुच्ने र अनेक शारीरिक समस्याहरू  देखा परेपछि स्थानीय अस्पताल गयौँ । हिडेर नै म र तिनी गएका थियौँ । अस्पताल भर्ती भएर दुई दिन बसे पछि  उठ्नै नसक्ने बेहोसजस्तो तिनको अवस्था भयो । बेहोसीको जस्तो अवस्थामा नै काठमाडौं लग्यौँ ।
प्राइभेट अस्पतालको पहिलो प्रतिक्रिया थियो— “कस्तो अस्पताल हो ? दिसापिसाब त गराउन सक्थ्यो ।”
तिनको भुडी फुलेर डमडम्ती भएको थियो, हातगोडा पनि सुनिएका थिए । खाना खान छाडेकी थिइन् र बेहोसजस्तै थिइन् ।  अस्पतालले डुस दिएर दिशापिसाब गरायो । “कस्तो भयो ?” भनेर दिदीले सोध्दा “हाइसन्चो भो ।” तिनले भनिन् ।
दुई हप्ता अस्पताल बसे पछि डिस्चार्ज भयो । पुरै निको नभइन्जेल सालोको घरमा बस्ने भयौँ ।  बहिनी र भाउजू भेट्न आएका थिए । दिउँसो शनिबार ११ बजेतिर महाभूकम्प आउन थाल्यो ।  नानीलाई कोक्रोमा हल्लाएझै दोस्रो तलामा बसेको हामीलाई हल्लाको हल्लाकै छ । उठेर भाग्न सकिने अवस्था थिएन ।  अहिले रोकिएला, थामिएला, अहिले रोकिएला भन्दै एकआपसमा हात समातासमात गरेर बसिरह्यौँ । बल्ल बल्ल रोकियो । सालीहरू आएर तिनलाई झ्याइकुटी पार्दै भुइँमा झारे । खुला आकाशमुनि चउरमा टोलभरीका मानिसहरू भेला भएका थिए ।
सुन्यौँ— धरहरा भत्कियो । साततले भवन भत्किएर ४० जना मरे । सिन्धुपलान्चोक र  काठमाडांैमा सबैभन्दा बढी मानिस मरे । देशभरी नै महाभूकम्प आएको थियो, त्यो महाभूकम्प काठमाडौमा रहेर हामीले पनि भोग्यौँ ।
अब हाम्रो दिनचर्यामा नियमित रूपमा अस्पताल धाउने काम थपियो । सुगर, क्रिटेनाइन, पोटासियम, सोडियम, फोस्फरस आदि अनेकौं रक्त परीक्षण गरिरहनु र डाक्टरलाई देखाउनु र डाक्टरलाई देखाएपछि दबाइ थप हुदै जानु  । दबाइकै भरमा बाँच्नु पर्ने बाध्यता भए पनि हामीले हिम्मत हारेका थिएनौँ । यस्तो अवस्था भएपछि ताजमहल घुम्न जाने र आफ्नै पुर्खौली गाउँ जाने कुरा पनि हरायो । मलाई त्यो घिडघिडो अझै छदैछ.. . तर अब  के हुन्छ र !
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“बाँचेर फर्किएँ भने आघांै पनि नाँच्नुपर्छ है ।” तिनले धरानको घरमा नचाएको अन्तिम साखेवामा  भनेकी थिइन् । यसो भनिरहदा  तिनले जबरजस्ती मुस्कुराउने प्रयास गरेकी थिइन् । मनभित्रको पीडा लुकाउन अर्कोतिर फर्कदा नाकको फुलीमा घामको किरण पर्दा टलक्क टल्केको थियो । फुलीलाई देख्दा  त्यो क्षण  अहिल्यैजस्तो लाग्छ ।
“बाँचिन्छ, बाँचिन्छ । नाचौलाँ नाचौलाँ !” नाच्नेहरूले भनेका थिए ।
त्यही सालको नाच नै तिनको अन्तिम नाच भयो ।
अस्पताल गयौँ, तिनको स्वास्थ ठीकै थियो । फर्केर कोठामा आएपछि उल्टी आउन थाल्यो । फेरि अस्पताल गयौँ । “पोटासियम बढेको छ, यसले कुनै पनि बेला मुटु बन्द हुन सक्छ ।” डाक्टरले भनेपछि अस्पताल भर्ती ग¥यौँ ।
तिनी सिकिस्त भइन्, आइ.सि.यु.मा १५ दिन राख्नु प¥यो । डायलाइसिस  हप्ताको तीन पटक नियमित रूपमा नै भइरहेको थियो । डायलाइसिस आइ.सि.यु.मा नै हुन्थ्यो । सिकिस्त बिरामीे अवस्थामा जे पायो त्यही बोलिरहने । मृगौलाले काम गर्न छाडेपछि मैला पानी दिमागमा पुगेर बिरामी बौलाउँछ— डाक्टरले भने । “काजी, काजी !” कराएर आइ.सि.यु. थर्काउथिन् । नाकको पाइप र अन्य उपकरण तानेर फाल्न खोज्थिन् त्यसैले हात चलाउन नसक्ने गरी  बाँधेर राखिएकी थिइन् ।
आइ.सि.यु.मा बिरामी भेट्ने निश्चित समय थियो । त्यो समयमा भेट्दा तिनी रोएरहेकी थिइन्, भनिन् “काजी म... ।” अरु भन्न सकिनन् । मन भक्कानिएर आयो, तिनको अगाडि रोएर, तिनलाई आँसु देखाएर तिनको मन कमजोर बनाउन हुँदैन थियो । भनेँ— “म तिमीलाई निको पारेर सौराहा, चन्द्रागिरी घुमाउछु । घर फर्किदा यसपाली त जनकपुर पनि घुम्ने ।” तिनले ध्यान दिएर सुनिरहिन् । जीवन मृत्युको दोसाधमा रहेकी तिनको आँसु रुमालले पुछेँ । त्यो रुमाल अझै मसँग छ ।
१५ दिनमा अलिक जाति भएर वार्डमा सारियो । तर दिमागी हालत भने बौलाहीकै जस्तो । जे पायो त्यही बोलिरहने, अरुले बोलेको सुनेर त्यसैमा गाँसेर अनेक बोलिरहने ।
आइ.सि.यु.देखि नै मुखबाट खाने अवस्था थिएन । नाकबाटै इरिगेसन पाइपद्वारा खाना र दबाइहरू पिसेर पानीसँग खुवाइरहेका थियौँ । त्यहाँ वार्डमा एउटा वृद्ध मानिससँग दबाइ पिस्ने सामान खोज्दा भेट भयो । उसले सोध्यो— “यसरी खुवाएको कति दिन भयो?”
“३० दिन भयो ।”
“ए, मेरो त आज ट्याक्कै सय दिन भयो नाकबाट खुवाएको । तपाईँको त बोल्दोरहेछ । मेरो त हलचल बोलीचाली केही छैन ।”  निराश ती मानिसले भनेका थिए ।
केही दिनपछि ती मानिसले आफ्नो बिरामीलाई चितवन घर फर्काएको थाहा पाएर त्यहाँ काम गर्ने दिदीलाई सोधेँ— “निको भएर लाँदै गरेको हो ?”
“किन हुन्थ्यो ? माया मारेर नि ...।” दिदीले ओठ चेब्राएर भनिन् ।
मेरो मन पनि चिसो भयो । आफ्नो बिरामीको हालत पनि त्यस्तै छ । बौलाहीजस्तै जे पायो त्यही बोलिरहन्थिन् । “डायलाइसिसले नै निको हुन्छ” डाक्टरहरूले भनेका थिए । त्यस्तो अवस्थामा पनि सधैं मलाई बोलाइरहन्थिन्— “काजी, काजी !” म सधैं छेउमा बसिरहन्थे र मलाई लागिरहन्थ्यो ‘निको हुन्छिन् ।’
त्यहीबेला तिनको भाइ र बुहारी बेलायतबाट आइपुगे । ‘सरप्राइज’ दिन खबर नगरी आएका रे । अनेकओली बोलिरहेकी दिदीको अगाडि उभिएर भाइले सोधे— “म को ?”
“माइलाङ्गे ।” केही बेर नियालेर हेरे पछि तिनले भनिन् । भाइलाई तिनी माइलाङ्गे भन्थिन् । त्यस्तो दिमागी अवस्थामा ‘काजी काजी’ कराएर अस्पताल थर्काउथिन् र  पनि तिनले मलाई, नन्द र सालीलाई भने सधैंं चिन्थिन् ।
अझै नाकबाटै इरिगेसन पाइपद्वारा खाना र दबाइहरू पिसेर पानीसँग खुवाइरहेका थियौँ । तिनी त्यो नाकको पाइप थुतेर फाल्ने बल गर्थिन् । दुई तीन पटक फालि पनि सकेकी थिइन् । फुली नभएको नाकको प्वालबाट पाइप छिराइएको थियो  । तिनले फेरि पाइप थुतेर फालिन् । “किन निकालेको ?” हकारेजस्तो गरेर मैले भनेँ । चुप लागेर बसिन्  ।  त्यही बेला फुली निकालेर त्यो प्वालबाट पाइप छिराउन फुली निकाल्ने कोसिस छोरा र सिस्टरहरूले गरे । तर फुली निकाल्न सकेनन् । फुली तिनको नाकमा नै रहिरह्यो ।
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एक महिनाको अस्पताल बसाइपछि तिनी केही सन्चो भइन्  डिस्चार्ज भएर छोराको कोठामा बस्न थालेका थियौँ । तिनको भाइ र बुहारी बेलायत फर्किसकेका थिए ।
त्यस सालको दशैं र तिहार नै तिनीसँग बिताएको मेरो अन्तिम दशैं तिहार भयो । दशैं पनि तिनको अस्वास्थ्यका कारण खाशै रमाइलो भएन । तिनलाई अनेक प्रकारले उत्साहित पारेर आनन्दित पार्ने कोसिस गर्थे  तर तिनले कुनै उत्साह देखाउदिन थिइन् । जब मृत्यु भयले मन खाइरहेको हुन्छ, कहाँ आनन्द मान्ने उमङ्ग उत्साह जीवनमा हुन्छ र !
तिहारमा भाइ आउँछ कि भन्ने आशा तिनको भित्री मनमा थियो होला । हामीले पनि भर्खरै फर्केको भाइलाई तिहारमा आउनु भनेर बोलाउन सकेनौँ । तिहार आउन केही दिन बाँकी हुँदा भाइबुहारीहरू स्वीजरल्यान्ड घुमिरहेको तस्वीर फेसबुकमा मैले देखेर तिनलाई पनि “हेर्छाै?” भनेर सोधेँ । तिनले हेर्न मानिनन् । भाइले अस्पतालमा आएर ‘सरप्राइज’ दिएझै तिहारमा पनि टुप्लुक्क आइपुग्छन् कि ! अघिल्लो वषर््ाझैँ भाइसँग तिहार मनाउन पाइन्छ कि भन्ने  तिनको इच्छाको तुषारापात भएको थियो । तिनको अन्तिम तिहार झन् खल्लो भयो ।
तिहारको लगत्तै पछाडि तिनलाई भेट्न भान्जा भान्जीहरू आएका थिए । बात मारिरहेका बेला तिनलाई उल्टी हुन थाल्यो । मलाई पुलुक्क हेरिन् । जब तिनी सिकिस्त हुन्थिन् सहाराको लागि मलाई हेर्थिन् । म पनि तिनको त्यस्तो सिकिस्त अवस्था हुन थालेपछि  जहिले पनि अस्पतालको इमर्जेन्सी जानका लागि तयारी अवस्थामा नै रहन्थे ।
“अस्पताल जानुपर्छ ।” झोलामा हत्तपत्त अस्पतालको कागजपत्र, औषधि राखेर मैले भनेँ । छोरा पनि तयारी अवस्थामा नै रहन्थ्यो । अस्पताल गयौँ ।
“रक्तचाप एकदम कम छ । रक्तचाप बढाउने मेसिन आइ.सि.यु.मा मात्र भएकोले आइ.सि.यु.मा राख्नुपर्छ ।” डाक्टरले भनिन् । आइ.सि.यु.मा दुई दिन राखेपछि अलिक ठीक भयो ।
वार्डमा सा¥यौँ । वार्डमा सारेपछि म लुगा फेर्न छोराको डेरामा गएँ । एउटा प्लाष्टिक झोलाभरि चकलेटको खोलै खोल छ । जाडोको याम हुँनाले हामी त्यहाँ बस्दा तिनलाई घाम ताप्न घाममा बाहिर आँगनमा राखेर कोठाभित्र म कम्प्युटरमा भुलिन्थे । ती दिनहरूमा घाममा एक्लै बसेर तिनले यत्ति धेरै गुलियो चकलेट खाइछिन् कि ती चकलेटका खोलहरू देखेर म आश्चर्यचकित विस्मित भएँ ।
मधुमेह भएका र डायलाइसिस गरिरहेका बिरामीहरूले मुख बार्न छाडेभने तिनीहरू अस्वस्थ जीवनबाट थाकेर शरीर विसर्जन गर्न चाहन्छन् भन्ने बुझिन्छ । कैयौं डायलाइसिस गरिरहेका बिरामीहरूले मुख नबारेर मृत्युवरण गरेको मलाई थाहा थियो । मैले पनि विश्लेषण गरेँ— किन तिनले पनि यत्ति धेरै चकलेट लुकेर खाइन् ?
खोकि चलिरहन्थ्यो, खोकि रोक्न भिक्स, हर्बल चकलेट  एक दुईवटा खान दिन्थे । भिक्स, हर्बल चकलेटले केही बेर खोकि रोक्थ्यो । तिनी मलाई यत्ति धेरै माया गर्थिन् कि मलाई  मेरो हर सुखदुःखमा साथ दिन चाहन्थिन् । तर बिरामी तिनलाई स्याहार्दा मैले गरेको पाएको दुःख देखेर ती दुःखबाट मलाई उन्मुक्ति दिन  र एउटा निश्चित स्वतन्त्र जीवन मैले बाँचोस् भन्ने चाहेर नै तिनले त्यति धेरै चकलेट खाएकी होलिन् ।
स्वस्थ हुँदा पहिला तिनले भनेकी पनि थिइन्— “बिरामी भएर दुःख पाए भने म त बिष खाएर मर्छु ।”
“बिष कहाँ पाउँछौ सिकिस्त बिरामी भएको बेला ।” मैले ठठ्टा नै सम्झेर सोधेको थिएँ ।
“पहिला नै किनेर राख्छु ।” तिनले भनेकी थिइन् ।
डायलाइसिस गरिरहेको मधुमेहको बिरामीको लागि गुलियो चकलेट बिष त हो । मलाई तिनले दिन सक्ने सुख भनेको आफ्नो रोगी शरीर विसर्जन गरेर तिनलाई स्याहार्ने झन्झटबाट मुक्ति दिनुमा थियो भन्ने सायद सोचिन् ।
मलाई अर्नेस्ट हेमिङ्वेको आत्महत्या प्रकरण सम्झनामा आउछ— दुई पटकको विमान दुर्घटनामा मुस्किलले बाँचेका तर नराम्ररी घाइते भएका नोवेल पुरस्कार विजेता अर्नेस्ट हेमिङ्वेले बाँकी जीवन पूरै पीडामा  बिताए । उनले त्यो पीडा अरु खप्न नसकेर आफँैले आफ्नो कन्चटमा गोली ठोकेर आत्महत्या गरेका थिए ।
बाँचुन्जेल डायलाइसिस गर्नुपर्ने र  स्वस्थ शरीरका सबै गुणहरू समाप्त हुँदै गइरहेको अवस्थाले बाँच्ने आधार सकिदै गएको भानले हतोत्साहित तिनले बिषकै रूपमा त्यति धेरै चकलेट खाएकी थिइन् कि !
तिनले तागतिलो खाने चिजहरू खान नहुने । अलिकति खानामा तलमाथि भयो कि सिकिस्त बिरामी हुने, आफ्नो जीवनसँग पनि दिक्क भइसकेकी थिइन् कि ! सबैभन्दा दिक्कलाग्दो र दुःखदायी कुरा आफूले सबैभन्दा बढी माया गरेको लोग्नेलाई आफ्नो कारण दुःख कष्ट  भइरहने, पैसा पनि थुप्रै खर्च भइरहने । बारम्बार तिनी सोधिरहन्थिन्, “पैसा कति छ ?”
“घडेरी बेचेको पैसा छ नि । बैंकमा यति छ, साथमा यति छ । पैसाको फिक्री नगर, हरेश नखाऊ ! म छु, तिम्रो लागि म जेपनि गर्छु ।  ट्रान्सप्लान्ट हुनेभए म मृगौला दिन पनि तयार छु, तर मुटु रोगका कारण सम्भव भएन ।” म भन्थे । म चाहन्थे तिनलाई कुनै प्रकारको चिन्ता नहोस् ।
तिनलाई लाग्न थालेको थियो “अब धेरै बाँच्दिनँ ।” मलाई हेरेर अत्यन्त दुःख मनाउ गरेकी थिइन्— “तपाईँलाई तपाईँ बाँचुन्जेल साथ दिउँला भन्ने सोचेकी थिएँ  । तर काजी, काजी...!” अरु भन्न सकिनन्, रोइन् तरतरी आँसु झारेर ।
“नरोऊ, नरोऊ ! म छु, आपूmलाई कमजोर नबनाऊ । हरेश नखाऊ । म छु ..।” मैले भनेको थिएँ ।
“मुटु डा. रमणीले भनिसकी— ‘मुटु एकदमै कमजोर भइसक्यो, मैले गर्न सक्ने सबै गरिसकेँ । अब म केही गर्न सक्तिनँ ।’ त्यसैले अब म बाँच्तिनँ काजी ! म मरे  पछि मेरो सबै गहनाहरू आपूmसँगै राख्नू, दुःख पाउनुभयो भने बेचेर खानू,  । मधेसको मेरो नामको जग्गा पनि आफ्नै नाममा राख्नू । मेरो मोबाइल सधैं आफ्नो साथमा राख्नू । म मरे पछि बिहेको सारीचोलो लगाई दिनू ...।”
“म त्यो सारीचोलो चिन्दिनँ ।” मैले भनेको थिएँ ।
“मैले नन्दलाई भनिसकेकी छु, उसैले ओडाउँछ .. ।” भनिन् ।
 त्यो रातभरी तिनी रोइन् । मलाई अझै केही महिना तिनी बाँच्छिन् भन्ने आशा थियो ।
अस्पतालको वार्डमा विवश तिनी र विवश म एकआपसमा हेराहेर गरेर बाँचिरहेका थियौँ । दिनभर आफन्त मानिसहरू हेर्न आउँथे, जान्थे । रात परेपछि हामी दुईजना मात्रै । थाकेर  हो कि के भएर हो, फुर्सद हुँनासाथ तिनको बेडछेउ रहेको सानो बेन्ज बेडमा भुसुक्कै निधाइहाल्थँे । जहिले पनि निधाइरहेको मलाई देखेर तिनी भन्थिन् “कति सुत्नु हुन्छ ? कति सुत्नुहुन्छ ? म मरेपछि बेस्सरी सुत्नू !”
अहिले पो सम्झन्छु, तिनले किन त्यसो भनिन् ? तिनी चाहन्थिन् तिनको अन्तिम अवस्थामा म तिनको कुरा सुनूँ र आफ्ना कुराहरू सुनाऊँ, तर ‘औषधि ल’े, ‘खाना ल’े, ‘बिरामी उठा सुता’, स्याहार गर्दागर्दै फुर्सद भयो कि निधाइहाल्थेँ । अहिले पो थकथकी लाग्छ  मृत्युको पूर्वआभासले विचलित तिनको मनलाई मैले तिनको कुरा सुनेर वा मैले बोलेर केही कुरा सुनाएर ढाडस दिनु पथ्र्याे ! सान्त्वाना दिनु पथ्र्यो ! त्यतिबेला त्यो कर्तव्यबाट म चुकेँ ।
पोटासियम, ग्लुकोज, सोडियम, फासफोरस अनेकौ रक्त परीक्षण ।  ट्रोपोनिन  पोजिटिभ देखिए पछि भने मेरोे पनि मनमा चिसो पस्यो र छोराहरूलाई भनेँ— “तिमीहरूको आमा जति दिन बाँच्छ, हाँसीखुसी साथ बाँच्न देऊ !” मैले तिनलाई ती रिपोर्टबारे जानकारी नदिए पनि आफ्नो शारीरिक अवस्था र मुटु डाक्टरको कुराले तिनले मृत्युको पूर्वानुमान गरेकी थिइन्  र हामी  दुई मात्र हुँदा मेरो मायाले र आफ्नो नजिकै आइसकेको देहावसानको पीडाले रोइरहेकी हुन्थिन् । म के गर्न सक्थे र ! फगत टुलुटुलु हेर्नु सिवाय । कति विवश थियौँ हामी !
दिनभर म कुरुवा बसेको देखेर माइला छोरा भन्थ्यो— “म राती बस्छु तपार्इँ कोठामा जानुहोस् ।”
तिनी मान्दिनथिन् । रुन्चे बोलीले भन्थिन्— “तेरो बाबु नै बस्नु पर्छ ।” जति दिन बाँच्छिन्, तिनी अन्तिम क्षणसम्म पनि मेरै साथ रहन चाहन्थिन्, मेरै साथमा मृत्युवरण गर्न चाहन्थिन् । म पनि जतिसम्म तिनी बाँच्छिन् तिनको साथमा रहन चाहन्थेँ । अब सँगसँगै रहने धेरै दिन छैन भन्ने चेतले खिन्नताका साथै एकअर्काप्रति समर्पण, आकर्षण र प्रेममायाको उद्वेग हाम्रो मन, मुटु र मगज अस्थिर बनाई प्रतिक्षण मनभरी उर्लदो बाढिझैँ भएर अविरल बगीरहेको थियो ।
“मै बस्छु” द्रवित भई म भन्थेँ र म नै राती पनि कुरुवा बस्थेँ । मलाई देख्दा र तिनको साथमा म रहदा तिनले जुन सुरक्षा, साथ, सन्तोष र मिलनको अनुभव गर्थिन्—  त्यो तिनको अन्तिम कालमा अमूूल्य थियो । मेरो निम्ति पनि तिनको त्यो साथ अमूल्य थियो । हामी दुवै साथसाथ बस्ने धेरै दिन छैन भन्ने अहसासले हामीलाई मन, मुटु र मगजको  गहिराइसम्म यति धेरै छोएको थियो कि हामी हेराहेर गरेर बसिरहेका हुन्थ्यौँ । म तिनलाई हेरिरहन्थेँ, तिनी मलाई ।
उठाउन बसाउन र सुताउन परिरहेको थियो । आफै उठ्न बस्न नसके पनि बोली र दिमाग भने स्वस्थ मानिसकोजस्तै तगडा थियो । मलाई तिनी आफ्नो मनका कुराहरू सुनाइरहन्थिन् — “काजी, मलाई हामीले घुमेका ठाउँहरूको सम्झना आइरहेको छ...।”
तिनका ती कुराहरूभित्र अन्तरहृदयको पीडा थियो, क्रन्दन चित्कार आर्तनाद थियो र हृदयको हाहाकार प्रतिध्वनित भइरहेको थियो । तिनले त्यतिबेला भोगिरहेको वेदना, कष्ट, पीडा र दुःखको वर्णन गरि साध्य थिएन । अहिले तिनी त गइसकिन् र तिनको अस्तित्व छैन । तिनले त्यतिबेला भोगेको पीडा कष्ट वेदना ठूलो थियो कि अहिले मैले तिनको विछोडमा भोगिरहेको पीडा कष्ट र वेदना ठूलो ? सबै प्रेम, माया, पिरती, स्नेह, ममता, आदरभाव, सुख, आनन्द, ऐश्वर्य, भोगविलास, शान्ति, शान, धाकरवाफ, प्राप्ति र दुःख, पीडा, कष्ट, वेदना, क्रन्दन, रुवाइ, घृणा, लोभलालच, विछोड, वियोग  बाँचुन्जेलका लागि मात्र हो । मरेपछि सब समाप्त ! सब सकिन्छ, तुरिन्छ । मरिरहेकी मर्नैलागेकी  तिनको मप्रतिको त्यतिबेलाको अगाध असीम प्रेमभाव... अहिले म महसुस गर्दै छु । मर्नेले भोगेका सबै कुरा मृत्युले समाप्त पार्छ तर  बाँच्नेहरूले आपूmले गुमाएका मृतक प्रियजनहरूको सम्झनामा भोग्ने पीडा कष्ट, विछोडको वेदना, रुवाइ क्रन्दनले संसार व्याप्त छ । बाँच्नेले मर्नेलाई जीवनभर भुल्न नसक्नु अझ भुल्न पनि नचाहनु  पनि जीवनको अनौठो नियम रहेछ ।
४१वर्षको तिनीसँगको मेरो सुखद, सुमधुर र स्वर्णिम दाम्पत्य जीवन भुलेँ भने  यो जीवनको अन्तिम कालखण्डमा मसँग सम्झने कुरा घटना परिघटना  के नै रहन्छ र !? खोक्रो जीवन सिवाय...।
तिनको मृत्यु हुनु अगाडि म  सुखी मानिस थिएँ र म दुःखविहीन सप्तरङ्गी रङ्गीन दुनियाँमा भुलिएको थिएँ । तिनको मृत्युले मलाई विछोडको एकत्रित अचम्म–आघात, असह्य वेदना, असीमित पीडा दियो र रोएँ । रोइरहेको आँखाले मैले जुन शून्य देखेँ, त्यो मेरो जीवनको आठौं रङ हो । तिनको मृत्युपछि  म अनेकौंं दुःख दर्द, कष्ट, रिक्तता, अभाव, पीडा, आघात, सन्ताप, यातना, विछोड, वियोगका असह्य परिस्थितिमा पनि बाँच्न चाहिरहेको छु, यो जिजीविषाको  अदभुत रहस्यमयी अदृश्य नवांैं रङमा म अहिले छु र नौरङ्गी जीवन भोगिरहेको छु । मेरो यो नौरङ्गी जीवनमा म तिनलाई सम्झनामा नै भए पनि अमर बनाउन चाहन्छु । अमर बनाउने कसरी ? त्यो अमर बनाउने प्रयोजन ध्येय मेरा निम्ति बाँच्ने प्रेरणा भएको छ । नबाँची तिनलाई  म अमर बनाउन सक्तिनँ भन्ने बोध मेरो सक्रियताको कारण बनेको छ ।
मैले त्यतिबेला भनेको थिएँ “चिन्ता नगर ! म तिमीलाई निको पारेर ती ठाउँहरूमा फेरि घुमाउछु ।” तर  कहाँ घुमाउन सकेँ र !
तिनको अन्तिम अवस्था भइसकेको कुरा डाक्टरले भनेपछि पो मलाई थाहा भयो– “बिरामीलाई आफ्नो शरीरबारे थाहा हुन्छ, बिरामीको अन्तिम इच्छा होला । तिनलाई कुनैबेला पनि केही हुन सक्छ ।”
अब भने जिउँदै धरान घर पुराउँछु भन्ने लाग्यो । छोराहरूसँग सल्लाह ग¥यौँ र हवाइजहाजको टिकट बन्दोबस्त ग¥यौँ । धरान घर फर्कने भनेपछि तिनी असाध्य खुशी भएकी थिइन् । माइला छोराले अस्पतालकै जस्तो बिरामीलाई तल माथि उठाउन मिल्ने बेड किन्दिने कुरा आमालाई भनेको रहेछ । खुशी भएर तिनले भनिन् “माइलाले धरानमा अस्पतालकै जस्तो बिरामीलाई तल माथि उठाउन मिल्ने बेड किन्दिने  भएको छ । धरान घर फर्के पछि विल चियर किन्दिनु होला ।” विल चियरमा घुम्ने तिनको रहर !  निराशा मनभित्र पचाएर भनेँ “हुन्छ, किन्दिन्छु ।” जीवनको अन्तिम क्षणमा पनि बाँच्ने उत्कट बलवती तिनको आशा ! २२ गते नै फर्कने मेरो योजना तिनले एन्टिबायोटिक सुइ लगाइरहेकी थिइन्, “२६गते पूरा लगाएर फर्काैँ” भनिन् । कतै बाँच्छु कि भन्ने तिनको आशा हुँदाहुँदै मैले  २२ गते नै फर्कनुपर्छ भनेर कर गर्न हुँदैनथ्यो । “हुन्छ” मैले भनेँ र २७ गते फर्कने बन्दोबस्त  ग¥यौँ ।
हामी २७ गते फर्कन्छौँ भन्ने थाहा पाएर नातागोता इष्टमित्र सब भेट्न आए । दिनभर भेट्ने मानिसको घुइँचो । भेट्ने ती सबै मानिसहरूलाई तिनी भन्थिन् “बाँचे भने फेरि भेटांैला ।” नर्सहरू, डाक्टरहरू र अरु डायलाइसिस गरिरहेका बिरामीहरूलाई पनि “बाँचेर आएँ भने फेरि भेटौला !” भन्दै सबैसित बिदा मागिरहेकी थिइन् ।
२४गते राती बेलायतबाट भाइले फोन गरे । तिनले भाइसित कुरा गर्न मानिनन् । मैले नै कर गरेर बोल्न लगाएँ । भनिन् “माइलाङ्गे, भेट नहुने भयो ।” फोनमै तिनी रुन थालिन् । तिनको रुवाइ र आँसु थाम्न मैले “राम्ररी गरिखाऊ ।” भन्न लगाएँ । तिनले त्यसै भनिन् । त्यही फोनवार्ता नै दिदीभाइको अन्तिम वार्ता सम्बाद भयो । त्यसपछि तिनले भोलि बहिनी र नन्दलाई बोलाइदेऊ भनिन् । मैले दुवैजनालाई बोलाएँ । तिनले किन उनीहरूलाई बोलाइन् । आज मलाई थाहा भएको छ— मृत्यु झेल्न मानिसलाई आफ्नो प्रिय मानिस र आफन्तको सहारा चाहिँदो रहेछ ।  बहिनी र नन्दलाई अन्तिम सहाराको लागि तिनले बोलाएकी थिइन् ।
२४ गते बिहानै दुवैजना आए । दिनभर तिनीहरूले अनेकौं कुराकानी एकआपसमा हेराहेर गर्दै गरे । बेलुकी उनीहरू फर्किए । राती डायलाइसिस गर्नुपर्ने भएकोले माइला छोरालाई पनि त्यहाँ बस्न लगाएको थिएँ, छोराले तिनलाई डायलाइसिस गर्न लगेपछि म यसरी निधाएँ कि डायलाइसिस सकेर उनीहरू फर्केर ब्युझाएपछि मात्र ब्युझिएँ ।
“यो मान्छे कति सुतेको ? डायलाइसिसमा एकै पटक पनि हेर्न आएन ।” तिनले गुनासो गरिन् । यसभन्दा अगाडिका प्रत्येक डायलाइसिसहरूमा म पटक पटक हेर्न जाने गर्थे । मलाई तिनी पानी, खाने र अरु चिजहरू ल्याउन भन्थिन् । त्यो अन्तिम डायलाइसिस गरेर फर्कदा राती अबेला भइसकेको थियो । बेडमा सुतेपछि तिनले भनिन् “मलाई चकलेट दिनुहोस् ।”
“खान हुन्न । दिन्नँ ।” मैले भनेँ ।
“एउटा मात्र खान्छु ।” मायालु स्वरमा अनुनय गरिन् ।
“एउटा मात्र खान्छौ भने मात्र ।”
तिनले “एउटा मात्र खान्छु” भनेपछि मैले एउटा चकलेट दिएँ । कति मीठो गरी खाइन् । अत्यन्त प्रसन्न भएर भनिन् “एनेमा लगाइ दिनुहोस् ।” एनेमा लगाएर म बाथरुममा  टोइलेटका सामान लिन गएँ । फर्केर आई हेर्छु त तिनी अनन्त महायात्रामा गइसकेकी !  आँखाको झिमिक्कमा तिनको मृत्यु ! मेरो सर्वस्व समाप्त !! सर्वनाश !!!
कराएर नर्स र छोरालाई बोलाएँ । डाक्टर नर्सहरूले अन्तिम प्रयत्न गरे ।  तिनी गएको गएकै भइन् । केही समय अगाडि चकलेट खाएर प्रसन्न भएकी तिनी मृत  भइसकेकी थिइन् । रोएर कराएर के हुन्थ्यो ? चकलेट मेरो हातबाट खाएर तिनले मृत्युवरण गरिन् । मेरो सर्वस्व सकियो, मेरो सुखी संसार धुलोपिठो भयो ।
 मेरो हातको अन्तिम उपहार... यदि मैले चकलेट नदिई नखाई तिनी मरेकी भए म आपूm जीवनभर पछुताई रहन्थे  र आपूmलाई माफ दिन सक्ने थिइनँ ।
जेठा छोरा, बुहारी, बहिनी, साली, नरनाता, इष्टमित्र, साथीभाइ सबैलाई फोनमा सुचित गरेर बोलायौँ । तिनको इच्छाअनुसार धरानमा नै संस्कार गर्ने भएर २५गते दिनभर  तिनको लाश  लिएर बेलुकि धरान पुग्यौँ । त्यस राती हामी दुईको सुत्ने कोठामा नै तिनको लाश राखियो । सफा पारेर गोबरले लिपेको भुईमा तिनको लाश राखियो । म लाशकै छेउमा र वरिपरि छोराहरू लाश रुङ्दै बस्यौँ । म भने तिनको लाशछेउ सुतेँ, त्यही नै तिनीसँग मेरो अन्तिम बसाइ र सुताइ थियो ।
तिनको लाशको नाकमा नै फुली थियो । त्यो फुली तिनको जीवनको हरपलमा सधैं तिनको नाकमा रहेर तिनको साथसाथ थियो । तिनले एक्लै हुँदा र मसँग रहदाबस्दा भोगेको सुख दुःखको साक्षी थियो ।
२६गते बिहान मात्र छोराले फुली तिनको अन्तिम संस्कार गर्नुभन्दा अगाडि तिनको लाशको नाकबाट सजिलै निकाल्यो । अस्पतालमा नर्स र माइला छोराले निकाल्न नसकेको फुली सजिलैसँग जेठा छोराले निकालेको देख्दा म छक्क परेको थिएँ । बहिनीले तिनको इच्छाअनुसार  घरपट्टिबाट दिएको बिहेको लुगा लाशलाई लगाइ दिइन् । झकिझकाउ बेहुली जस्तै देखियो लाश ... सम्मानसाथ तिनको अन्तिम मृत्यु–संस्कार सम्पन्न भयो ।
मानिसले मृत्युमा सब छाडेर जानु पर्ने रहेछ । सानो फुली समेत तिनले छाडेर गइन् । आखिर लिएर जान सकिने, लगिने केही रहेनछ । आज त्यो फुलीलाई देखेर म सोचिरहेको छु — अरु गहनाले भन्दा फुलीले नै मलाई किन बढि आकर्षित गरेर रुवायो ?
आफैले उत्तर दिएँ, अरु गहनाहरू खासै तिनले लगाएका गहनाहरू थिएनन् । बिहेमा तिनले लगाएका गहनाहरू मङ्गलसूत्र, औठी, सिक्री आदि गहनाहरू त सावाब्याज तिर्न नसकेर पच भएको थियो । अरु गहनाहरू त तिनी बिरामी भएपछि तिनको उपचारका लागि बेचेको घडेरीको पैसाले किनेको एकदुई पटक मात्र तिनले लगाएका गहनाहरू भएकाले ती गहनाहरूप्रति मेरो खासै चासो रहेन । तर...
फुली !
 कति पटक तिनको आँसुले लपक्कै भिजेको थियो र  कति पटक पूmल अक्षेता अबीरले पनि रङ्गिएको थियो ! तिनको मधुर हाँसोसँग टलक्क टल्किएको पनि थियो !  आनन्दको मुस्कानसँग चम्केको थियो ! पे्रमीपतिको चुम्बन पनि त्यो फुलीले चाखेको थियो !
तिनको र मेरो जीवन अवलोकनकर्ता भई फुली तिनको नाकमा सदैव रहेको थियो । म नहुँदा पनि फुली तिनको साथ हुन्थ्यो । मैले थाहा नपाएका कतिपय सुख दुःख तिनको आँसु पीडा अनुभव अनुभूति फुलीलाई थाहा थियो  । फुली नाकसँग एकाकार भएको थियो । नाक र फुलीजस्तै तिनी र म ४१वर्षको दाम्पत्य जीवनमा एकाकार भएर अनेकांैं  उतार चढाव सुख दुःख सँगँसँगै भोगेका थियौँ... सँगँसँगै हाँसेका थियौँ, रोएका थियौँ ।
ती सबको अवलोकनकर्ता फुली हाम्रो सुखदुःखको साक्षी, प्रमाण, प्रतिविम्ब भएको छ । बनेको छ— हामी दुईको प्रेम प्रतीक त्यो सानो फुली !
पानीबाट झिकेर फालिएको माछाझैँ छटपटिदै बाँच्न विवश एक्लो म ... म जस्तै नाकबाट निकालिएको र रहने लगाउने नाक नभएको एक्लो फुली !
अब त्यो फुली लगाउने मेरी पत्नी मेरी कजिनी लक्ष्मी छैन । तर अझै तिनले लगाएको फुली मसित छ । तिनको सम्झना दिलाईरहने सानो फुली ! फुली लगाउने मान्छे नभएको...फुली !
    

    तिनको विछोड वियोगमा आँसुको दहमा पौडदै मैले तिनको श्रध्दाञ्जलीका लागि र (अझ स्पष्ट भन्दा) आफैलाई सम्भाल्न  अति दुखिरहेको मन बुझाउन (.नौरङ्गी पुस्तक.... हटाउनुहोस्)तिनलाई सम्बोधन गरेर लेखेको रहेछु....
तिमीले स्याहारी सम्भालीरहेको मायालु ‘म’....स्याहार्नु सम्भाल्नु छ
सबैभन्दा मुस्किल... तिमी सम्झि रुने मन बुझाउनु छ !

सुन्दर सप्तरङ्गी रङहरूले सजाएथ्यो मलाई
प्रेम गगनमा साथ साथ उडाएथ्यो मलाई
अझै मुटुमा  छौ बस्छौ  
नौरङ्गी जीवनमा  पनि साथ दिन्छौ  साथ साथ छौँ
असीम मायाले भिजाउने तिमी अजर अमर अजम्बरी छौ !!

 म तिनको विछोड वियोगमा नौरङ्गी जीवन  अनुभूत गरिरहेको छु ।
 मानिस दुःखविहीन हुँदा सप्तरङ्गी रङ्गीन दुनियामा भुलिदो रैछ । सप्तरङ्ग त इन्द्रेनीका रङ्गहरू हुन् । अरू दुई रङ्ग ? नौरङ्गी डाँफे । डाँफेका रङ्गहरू हुन् भनि दिँदा हुन्छ । तर ति के कस्ता हुन्छन ?
सात रङ्गभन्दा अर्को दुई रङ्गहरू हुन्— असह्य शोक जब मानिसको जीवनमा घट्छ रङ्गविहीन अनुभूतिका साथ एउटा सून्य अनुभव हुन्छ । रोइरहेको आँखाले देखिने रङ्ग आठौं हो । नवौ रङ्ग अनेकौं दुःख दर्द कष्ट रिक्तता अभाव पीडा आघात सन्ताप यातना विछोड बियोगका असह्य परिस्थितिमा पनि मानिस बाँच्न चाहन्छ । त्यो जिजीविसाको अद्भुत रहस्यमयी अदृश्य रङ्ग नवौं हो ।
यसरी जीवन नौरङ्गी हुन्छ ।


नौरङ्गी जीवनमा  पनि साथ दिन्छौ  साथ साथ छौँ ।
सपनामा तिनी आइरहन्छिन् । के सपनामा आइरहनु, सपनामा भेटिरहनु  मेरो नौरङ्गी जीवनमा तिनले साथ दिएको हो ?
जब म अग्घोर निरास खिन्न भएर विरक्त हुन्छु, पलायन  मुक्ति हो कि भन्ने अवस्थामा पुग्छु, सपनामा तिनी आउछिन् । एक पटक त सपनामा तिनी फिका सुन्तले रङ्गको चम्किलो सुहाउदिलो लुगा लगाएकी यति धेरै प्रसन्न  चन्द्रमाझै उज्याली हसिली हाँसिरहेकी देख्छु ! तिनको त्यस्तो रूप जीवितावस्थामा पनि मैले कहिल्यै देखेको थिइनँ । प्रसन्न हाँस्दै खुशी हँुदै ब्युझिएँ । मलाई लाग्यो तिनी ज्युँदै छिन् र कतै गएकी छिन्  । सपनामा देखेको तिनको त्यो उज्यालो हसिलो रूपले वास्तविक जीवनमा मेरो ओइलिन थालेको मन–फूल तरोताजा भएर फक्रिन्छ । मभित्र जिजीविसाको अद्भुत रहस्यमयी नवौं अदृश्य रङ्ग झलमल्ल तडकारो फैलिन्छ ।
सपनाको निर्माता को हो ? चाहेर त सपना देखिदैन । सपनामा तिनलाई देखेर भेटेर म केही बढी दिन बाँच्न सकिरहेको छु । एकल जीवनमा सपनामै भए पनि तिनी आइरहनु... सपनाले पनि जिजीविसाको उत्प्रेरणा दिँदो रहेछ ।
“काजी ! काजी ... ”
“हँ... ” प्रसन्नतासाथ मेरो मुखबाट जवाफ फुस्कन्छ ।
फुलीले बोलेको हो त ?
होइन, निर्जीव फुली कसरी बोल्न सक्छ ?!
मलाई मेरो पारिवारीक नाम ‘काजी’ भनेर बोलाउने सम्बोधन गर्ने मेरा परिवारका तीनजना मात्र हुन्— पिता, माता र पत्नी । आमा ९३वर्षको हुनुहुन्छ, कान सुन्नु हुन्न र दोहोरो कुराकानी  हामी आमाछोरा बीच हुँदैन । पिता र पत्नीको देहान्त भइसकेको छ ।
सर्वसाधारण आम मान्छेको आँसुको सागरमा संसार तैरीरहेको छ । त्यो सागरमा मेरो पनि आँसु मिसिएको छ । जति नै अकिञ्चन, नगण्य भने पनि कोही कसैको नजरमा अति प्रिय र नभईनहुने अमूल्य मान्छे हुँदोरहेछ । तिनी मेरा लागि त्यस्तै थिइन् ।
 “काजी ! काजी ... ” म सुन्छु । पत्नी कजिनी लक्ष्मीले नै बोलाएको हो । चारैतिर हेर्छु, कोही छैन । कतै मेरो भ्रान्ति हो कि... ! सपना हो कि ! तर म निधाएको छुइनँ ।
“काजी ! काजी ... ” मलाई टडकारो सुनिरहेछुझैँ लाग्छ । तिनले नै बोलाइरहेकी ...
जीउँदाहरूले सधैं यहाँ बसिरहन पाउदैनन् । यो जीवनको नियम हो !
सायद अब मैले पनि फुलीलाई पत्नीलेझैँ यही छोडेर जाने बेला भएछ कि... !?
अन्तिम क्षण ! तिनी जसरी नै रोएर म पनि आफ्नो अधुरो अपुरो जीवनको हुन लागेको अवसान र तिनलाई सम्झेर  धुरुधुरु रोइरहेछु र बिदा माग्दै छु....
“फुली ! बिदा..... !




२०७६ जेठ, असार, धरान


पोता

 पोता


लेखक ः सरण राई
अनुवादक ः श्याम प्रधान

लोग खुदको और खुदके जिस्म के अंगो को देखकर भी रोता है । लोग कितने नरमदिल लिए जीता रहता हैं । जीवन में आई हुई कैसी–कैसी विपत्तियों की आँधी बर्दाश्त करं गंम को बर्दाश्त किया है । उफ तक नहीं की । हार नहीं मानी । डटकर मुकाबिला किया, रोने वालो नामर्दो में मैं नहीं, कहा । लेकिन आज अचानक मैं अपने हाथाें को और अपने जिस्म को देखकर, निहारकर सिसकियां ले रहा हुँ ।
हाथें आँखो के सामने है । चालीस वर्ष पहले बाबुजी की और मेरे हाथो में कोई फरक नही है, चमडंी सलवटें ली हुइ, लटकी हुई जैसी र्है । जवान हाथोंं की खुबसुरती खो गई है । मैं बाबुजी को याद करता हुं । आईना देखता हुँ, बाबुजी की और मेरे चेहरे में बहुत सी समानताएं पाता हुँ यानि कि मेरा चेहरा भी बूढे बाबुजी की ही जैसी हो गई है । मुझे बाबुजी बडे प्यारे लगने लगते हैं, और बाबुजी जैसे बूडढा हुआ खुद से सहानुभूति करने चला हुँ । मै बुढ्ढा हो गया हुँ । अल्याश१ यह मेरी जीन्दगी में पुरापुर दाखिल हो चुकी हैं ।
बृद्धाबस्था ।
बृद्धावस्था में शारीरिक असमर्थता और अकेलेपन जुडंवा जैसे साथ साथ रहते हैं ।
पहुँचना कही नही हैं मंजिल नहि हैं, पर चलते ही रहना है । मिलने वाली कोई नई प्राप्ती नही हैं, सामर्थ नहीं हैं पर प्रयत्नशील होते रहना । जीवन के अवसान के करीब पहुँचने की परिस्थति, खुबसुरती, शक्ति, मर्दानंगी, हिम्मत, जोश याने कि जीवन की खुबसुरतीयाँ दूर होती हुई, मृत्यु के करीब पहुँची हुई अनुभूति और यह जंद्दोजंद मन । इतनी खुबसुरत दुनियाँ छोड कर चले जाने वाली भावनाओं से मिली पीडा, इस संसार की ही, जीवन की ही चलन, रित और नियम है । यहाँ कोई भी जिंदे लोग हमेशा जिंदारह नही पाते हैं । मौत की पूर्व अनुमान कितनी पीडादायक है, दिलसहम जाता है । मरना ही है, जाना ही हैं इस धरती को छोडकर । मेरे बाबुजी मर चुके, अम्मा मर चुकी, अगली पुस्त के सब मर चुके । अब मरने की पारी मेरी इस वर्तमान पुस्ते की । भावी पुस्ते के लिए जगह जो खाली करनी हैं । फिर से एक जनम या दुसरा जुडंकर एक और जीवन जीने को मिले ........ मैं कल्पना करता हूँ । पर किसी को भी दो बार जीने को मिला है क्या? मैं भी डुबती सुरजका हिस्सा, बुझती हुई दिया समान हों चुका हू । मुझे भी ......... जाना ही होगा ।
दैत्य समान अकेलेपन से पैदा हुई परिवेश में मन ही मन मैं मृत्यु से डर–डरकर अकेले ही मन के भितर ही भितर सिसकिंया लेने के वक्त मेरा पोता ‘आं ........ आं .....’ अभी अभी फुटती हुई अस्पष्ट जुबान से बोलते हुए चल कर आता है और मेरी गोद में लिपट जाता है । मेरे मानसिक धरातल में दिखने लगी काले अँधेरे बादल खुलकर चमकती हुई रोशनी मेरे मन के आयतन में घिर जाती हैं । भुल जाता हुँ अपने वृद्धावस्था को, अकेलेपन और खालीपन को और फिर चमक देखने लगता हुँ, भावी सन्तान के प्रतिबिम्बित रुप अपने पोते के चेहरे में ।
पोता१
मेरी ही जिन्दगी की निरंतरता नही हैं क्या? मेरे बाद बेटा, बेटे के बाद पोता, पोता के बाद पर पोता इत्यादि इत्यादि.... मेरी ही जिन्दगी की निरन्तरता है ऐसा सोचने लगता हुँ । मेरे अंदर ही अंदर से चमकती हुई रोशनी निकलती हैं । आँसु आँखो मे खो जाती हैं । बाबुजी की शक्ल से मैं खुद और मैं खुद के बाद पोते के मासुमियत में तफदिल हो चला हुँ, जानकारी बिना ही ....... । मैं न रहुँ फिर भी मेरा हिस्सा, बाकी या संतान इस धरती में रहेगा ही । मेरे अँदर एक प्रकार की मीठी भाव, उत्साह, प्रसन्नता और गौरव प्रस्फुटन होती है ।

पोता ? कुछ बरस पहले तक मुझें ‘दादा’ कहकर बुलाते हुए बिल्कुल भी अच्छा नही लगता था । मेरे एक मित्र को भी वैसा ही होता था बताते थे, ‘दादा’ संवोधन सुनते वक्त रौंए खडें होने वाली वात अपने संस्मरण मे लिखा है । लेकिन वास्तविक रुप में पोता–पोतीयां के पैदा होने के बाद ‘दादा’ संबोधन भी खुबसुरत और स्वाभाविक सी लगने लगी थी ।

मुझे पोती हमेशा कहती हैं, “दादा, दादा ।” इस संबोधन में एक रिश्ता है, जिससे वंश की वृक्ष घनी होने की संकेत देती हैं । इससे मैं सन्तुष्ट हुँ । पोता पैदा होने के बाद तो पोता–पोतियों के अबोध बालसंसार में मैं रमने और पसंद करने लगा हुँ । काफी वरस पहले से गाना छोडा हुआ गाने फिर लयबद्ध आवाज में मेरे गले से तंरगित हो चला है । मैं अब भी गा सकता हुँ, पोते– पोतियों के अबोध बालसंसार में जवानो के जैसा गाने के सँग नाच भी सकता हुँ । मजे करता हुँ और याद करता हुँ । और फिर से मधुर जीवनका पुनरागमन होता है । पोते–पोतियों वाकई प्यार के काविल होते हैंँ, इसीलिए लोग मूलधनसे ज्यादा ब्याज प्यारा कहते हैं ।
मैं अपने पोते–पोतियों को संसार मे सबसे सुखी होता हुआ देखना चाहता हुँ । उन लोगो को जब मेरा बेटा बहुत पीटकर रुलाते, डाँटते, बुरा लगता हैं और मन के अंदर पता नही क्या–क्या सा हो जाता है । बेटा–बहुओं को डाँटते हुए मैं उन बच्चो को गोद में खिलाकर, उठाकर पुचकारने लगता हुँ । वह सब भी मेरे आड भरोसे का सहारा पाकर मेरे सीने सें चिपक जाने हैं , उस वक्त मैं सारा संसार भुल जाता हूँ । अपना ही रोग, शोक, पीडा और अपनी अवस्था भी भुल सा जाता हुँ  । समझता हूँ संसार के सबसे सुखी आदमी मैं हु, जिसके कली समान पोते–पोतियाँ हैं ।
वक्त को कौन रोकने, बाधा उत्पन्न करने या वश में ही कर सका है? मैं वह नन्हे पोते–पोतियों के सँग अनंत काल तक खेल सकुं (?)वह लोग इतसे ही बडे और हमारा आत्मीय मजा कौतुकमय, क्रीडा हमेशा रही रहे । वह लोग हमेशा मुझ से खेलते रहे । मन आनन्द से हराभरा रहे, पर वैसा होता नही हैं ।
हम दादा–दादी लोगोको उन सबों को देखने के वक्त भरपुर खुशियाली होती थी । सम्पूर्ण सांसारिक मुश्किलें भुगतने को तैयार थे हम । वक्त के साथ मेरी प्यारी बीबी ने भी मेरा साथ छोड दिया । उनकी मौत की असहमय (असह्य)वेदना भी पोते–पोतियां का चेहरा देख कर वर्दाश्त कर गया । मुझ पर बूढापे की असमर्थता के साथ–साथ बहुत से रोग भी जुड गए । मैं परिवार के बीच में रहकर भी नितांत अकेला अकेला होता जा रहा हुँ । मेरे घर के अंदर की मेरे प्रमुख की शासन, डगमगाती हुई, हैकमभी समाप्त हो चली है मेरी सामाजिक, आर्थिक,सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियाँ भी तेजी से कम होती जा रही हैं । अब प्राय ः घर के बाहर की ऐसी क्रियाकलाप वगैरा शून्य सी हो चुकी  है ।
कभी किसी वक्त दोस्तों का आना–जाना रहता था । घरमें मेरे दोस्तों कोउचित सम्मान, मान और आतिथ्य होनी बंद हो गई है । मैं अभी दोस्तों को यहाँ जाना छोड चुका हुँ । मुझे लगता हैं, पहले की तरह मैं भी किसी का मेहमान होने के वक्त खातिरदारी, स्वागत सत्कार होना बंद हो चुका है और में अपने कमरे के सन्नाटे में रहने का आदि हो चुका हुँ ।
जाउँ भी तो कहाँ?कर ही मैं क्या सकता हुँ? मैं चाहता हुँ खुद की हड्डी–चमडी घीसकर नजाने कितनी मुस्किलो कोसाथ पला हुआ मेरा बेटा उसको हर किसिम से मद्दत करुँ । लेकिन शारिरिक अशक्तता बाधा करती है । मैं चाहता हूँ बहुते से दशकों की लम्बी मेरी जिन्दगी के अनुभवों से मिली ज्ञान, शिल्प और समस्या समाधान के उपाय, मशंवरा, सुझाव वगैरा देकर पारिवारिक और अन्य समस्याओं मैं मैं सहयोगी बन सकुँ । पर मेरे जमा किए हुए अनुभव शिक्षा और मशंवरा कोई सुनना नही चाहता है, ‘तब की बात गई ।’ मैं उपयोगिताविहिन बुढ्ढा मेरा मशवरा सुझाव उन लोगो को अनावश्यक हस्तक्षेप जैसा लगता है । शायद यही ‘जेनरेसन ग्याप’ होता होगा ।
घर खर्चे दिन प्रतिदिन बढने लगी हैं ।महगांई का जमाना, फिर भी कुछ तो तडकभडक करना ही पडता हैं । दोस्त–याराें से कम भी नही रहना है । पार्टी, क्लब, शादी विवाह, बिजली, पानी, टेलिभिजन चेनल की महसुल, स्कूल की फिस और बहुत से खर्चे ....... मुझे भी पता है, झेल सकना मुश्किल हैं्र । कोने में बैठकर टुकुर–टुकुर देखने के सिवाय मैं कर ही क्या सकता हुँ ।
घर के खर्चे चलाने से लेकर घर के सभी निर्णय करते वक्त अब मुझसे नहीं पुछा जाता है । अब वैसे विषयों के साथ मेरा कोई सरोकार नही हैं । मैं कमरे मे बैठकर किताबें दोहराकर–तेहराकर पढते रहता हूँ । कहानी समझ सकने वाली पोती के आने पर तिलस्मी कहानियां पञ्चतन्त्र और इसपनीति की कहानियां सुनता हूँ । कहानी सुनाने में मुझे बडां मजा आता हैं । कहानी की प्रवाह खांसी की वजह से बीच बीच की रुकावट पर पोती खींझ सी जाती हैं ।
दद्दु के बगल में मत जाओ, खाँसी औरअन्य बीमारियां का संक्रमण हो सकती हैं” बहु ने पोती को कहते हुए फटाक से मैंं सुनता हुँ ।मन में तीर सी चुभने पर भी मैं अनसुना कर जाता हुँ । प्रतिकार करने की क्षमता मुझमें अब न रहा ।
“मैं घर में ही रहुँगी, दद्दुको छोडकर नहीं जाउँगी ।” चिल्ला रही थी पोती । बस्ता, सन्दूक और कुछ सामान के साथ जबरदस्ती मेरी बडी पोती को बोर्डिङ्ग स्कूल में बोडर्स में भेजा जा रहा है । उसकी चिल्लाहट से अचानक ही मेरी आँखे नम हो गई, बेचारी ......... मेरी नन्ही दोस्त भी मुझ से अलग हो गई ।
पोती की कमी पोता पुरा कर रहा होता हैं । वह मेरे कमरे में आकर बालसुलभ ढेर सारी बदमाशीयां करता है, मेरी पुरानी किताबें, कौपी को फाडना, चश्मा खराब कर देना, विस्तर में पेशाब कर देना इत्यादि बदमाशिंया । वह शैतानियाँउसके साथ खेलते, बैठते और हँसते बक्त मिलने बाली खुशी के सामने कुछ भी नही । वह मेरे साथ रहता खेलता और हंसता हँै । मैं उसको बहुत ही प्यार करता हुँ । वह मेरे साथ रहने के वक्त मैं सारा चील भुल जाता हुँ और चाहता हुँ वह हमेशा मेरे साथ बैठारहे, खेलता रहे । उसके साथ रहते हुँए, मुझे अपूर्व आनन्द मिलती जो खुशी हरएक दादाजी लोगो ने मात्र अनुभव किया होता हैं्र । वह अनुभव दादा होने बाली उमर तक जीने बाले मात्र प्राप्त करते हैं । मैं भी दादा हो पाने की वजह से गौरवान्वित होता हुँ और मेरे होठों मे मुस्कुराहट दौड पडती हैं ।
बेटे को बुलाकर हम दोनो की बहुत सारी पोज की फोटोएँ खिंचने को कहता हुँ । हम दोनो की ‘मूभी’ भी वह खिचता हैं । कमरा में ही उन फोटोओं को देखकर मैं फूला नहीं समाता हुँ । कहा “यह तस्वीरे प्रिंट कर के  ला दो ।”
“मैं कम्प्यूटर में सेभ कर दुँगा । बाद मे एक साथ ही प्रिंट करवाएँगे ।” बेटा का जवाव था । पर उन तस्वीरों को मैं प्रिंट होता हुआ देख नही पाया हुँ ।
वक्त तो हवा की तरह नदी की तर या वक्त की तरह वहती ही रहती है । लैंडस्लाइड जैसी ढलती मेरी वृद्धावस्था दिन पर दिन और और ढालु की तरफ ढलती जा रही हैं । मैं कल से आज, आज से कल और पर और असथर्म, अशक्त और दयनीय वनता जा रहा हुँ । खेलने बोलने और मजाक करने बाले दोस्तो का न होना बूढापे में मुस्किल की स्थिति होती हैं, ऐसा महसुस मेरा पोता मोन्टेसरी के प्लेगु्रप में एडमीशन होकर पुरा दिन  उधर ही बैठने पर होने लगा है । शनिवार छुट्टी के दिन में मात्र उसके साथ खेल पाता हूँ । उसके साथ मेरे खेलनेकी लालसा भी अधुरी होने लगी थी ।
एक दिन अचानक मेरे लिए नई पोशाक लेकर बेटा–बहु मेरे कमरे में आते हैं । मुझे “नई पोशाक फिट हुआ,नहीं हुआ, पहनकर ट्राई करने को कहा । मैं फुला न समाया, मेरा भी बेटा–बहु खयाल रखने लगे हैं ।
“बृद्धाश्रम, बाल आश्रम और हस्पिटलसब एक साथ हुए, ‘मानवसंसार’ उपयुक्त वृद्धाश्रम है, वहाँ रहने बाले बूढे लोगो को किसी किस्म की तकलीफ, पीडा भोगना नही पडता हैं । बेटा कहता हैं ।
पिताजी की थोडी सी आने वाली पेन्सन से मात्र वहाँका शुल्क चुकाकर रहन कम पडने की वजह से हरेक महिना कम पर्ने वाली अमाउण्ट जम्मा करवा दुँगा । सब बन्दोबस्त मिलवा चुका हँ ।”बहु उपर से कहती है ।
मै नौकरी के सिलसिले मे कभी कही–कभी कही जाना पडता रहता हैं । बहु को भी छोटी मोटी नोकरी मिली है । घर में पिताजी की देखरेख करने वाला कोई नही हैं । मानव संसार वृद्धाश्रम ही पिताजीके लिए ठीक रहेगा यह फैसला किया गया । कल से ही पिताजी को वहाँ रहना होगा, हम लोग आपको सबेरे ही पहुँचा देंगे । बेटा का फरमान ।
कितनी आसानी के साथ कह डाला उन लोगों ने । नए कपडे का मतलब साफ हुआ । मैं आसमान से गिरा । अब मेरा भी यह घर छोडने का वक्त आ गया है । मेरे मानने वा नमानने का कोई मायना नहोने ही की वजह से वह लोग मुझे वृद्धाश्रम भेजने का निर्णय कर चुके हैं । मेर अन्दर १२ रेक्टर स्केल की भूकम्प लाने वाली निर्णय सुनाकर वह लोग वाहर जा चुके हैं ।
आह १ यह घर, यह कमरा । कितनी  मेहनत करके अपनी और पत्नी की पसन्द के मुताबिक यह घर बनाया था । इसी घर में हम लोगो ने वेटा–बेटियों को वडा किया । वह लोग आज स्वावलम्बी हो चुके हैं और मुझे अपनी निर्णय लादने की सक्षमता दिखा चुके हैं । यह आधुनिक युग का पैदा किया हुआ यांत्रिक, सांस्कृतिक और सामाजिक प्रचलन है क्या? अब मेरा वनाया हुआ इस घर को ‘मेरा है’ कहकर इसी में रहने की जिदं नहीं कर सकता । बेटा बहु के आदेश को जो हुकम करने के अलावा मेरो पास कोई दुसरा जरिया नही हैं ।
यह मेरा घर, मेरा कमरा, मेरी पलंग । कल से मेरे साथ यह कुछ भी रहने वाला नही हैँ । मैं इस घर में नही हुँगा । कई दशकों तक सुख, दुख के साथ पत्नी के सँग बिताया, हुआ यह पलङ्ग मेरे साथ नही रहेगा । हाय १ जीवित अवस्था में रहने के वक्त पत्नी कोे पुचकारतेहुए जैसै कमरे की दिवाल, पलंग, के अगल बगल सब तरफ पुचकारता हुँ । शैलानी अन्तिम वक्त में बिदाई माँगते हुए डबडबडाए आँखो से सबको देखके जी भरने तक मैं आज कमरा, पलंङ्ग और घर की सारी चीजों को देखता हुँ । आँखो से आँसुओ की नहर वहती है पर यह आँसुओकी क्या कीमत है? कमरे की सारी चिजों को छु–छुकर चुमता हुँ, अर्धविक्षिप्त जैसी सबको देखकर भावविहवल होता हुँ । मैं रातभर सो नही सका, सोचता हूँ–यह घर, कमरा और पलङ्ग का मेरा साथ आज तक ही रहेगा ।
रातभर मैं, मेरे और पत्नी की युगल तस्विर देखकर गुनगुनाते हुँए बातें करते रहता  हुँ, “शोभना यहाँ का साथ आजतक ही रहा, तुम किस्मत वाली रही”, इस कमरे के पलङ्ग में मेरी गोद मे प्राण त्याग सकी । पर मैँ? तुम्हारे मृत्युवरण वाली पलङ्ग में मेरी भी प्राण जाए ऐसी चाहत थी । बदकिस्मत वाला मैं, मेरी उस छोटी सी चाहत को भी पुरा होने नही दिया ........... । ऐसे ही क्या क्या मैं मानों शोभना जिन्दा है जैसी उसकी तस्वीर के साथ रातभर बातें करता रहा । इस तरह गर मैं बाते न करता तो पागल हो सकता था या पागलो की तरह बातें करता रहता । मैं दिवाल में लटकी हुई हमारी युगल तस्विर निकालता हुँ और कल अपने साथ ले जाने का निर्णय करता हुँ और तस्वीर बाली शोभना से कहता हुँ, जिस जगह मैं मेरे जीवन की अन्तिम कालखण्ड में मैं रह नही पाया उस जगह हम लोगों की तस्विर की कोई इज्जत होनेवाली नहीं हैं ।”
मुझे ‘टोकरी’ लोककथा की याद आती हैं । वापने बूढे दादाजी को टोकरी में लादकर पहाडी की चोटी से दादाजी को फेंकने के वक्त पोता ने टोकरी लेकिन नफेंकना, वह टोकरी बाद में आपको फेंकने के प्रयोग मे आएगा कहा था और उस बाप के मन में सदबुद्धि जागकर दादा की जिन्दगी बची थी । उस कहानी कें जैसा मेरा पोता भी गर (अगर)बडा हुआ होता तो कहता कि “दद्दुको घर में ही रहने दो ।”
सबेरे मैं नयाँ कपडा पहनकर तैयार होता हुँ । बोर्डिङ्ग स्कूल जाने वाली मेरी पोती से भी कम सामानें गाडी में रखने के बाद बेटा–बहु भी बैठते हैं । मैं भी बैठता हुँ । पलट–पलटकर घर को देखता हूँ पर मेरा जी नही भरता हैं । सारी जिन्दगी बिताया हुआ इस घर का साथ छोडने पर मन–कलेजा मुँह को आता हैं ।
मृत्यु में सबसे अलग होना पडता है । पर मरने बाला व्यक्ति जो मर चुका होता है उसे कोई पीडाबोध नही होती हैं । पर मैं जिन्दा रहते हुए ही घर, परिवार और सबके साथ अलग हो रहा हुँ और मैं दर्दनाक पीडाबोध करने में विवश हुँ । जिन्दगी रहते हुए भी एक प्रकार से मेरी मृत्यु ही है जो मेरा सब–सब मुझसे छीनकर लिए जा रही है । मृत्यु में जैसे सब मुझसे विछड रहे हैं ।
“छुट्टी, मुझे और मेरे परिवार बालों को आश्रय देने वाला घर, अलविदा । मेरा बेटा, पोता परपोता, और सबों को शुम्भफाव्य हो ।” छुट्टी मांगता हुआ मेरा मन सबके कानो में आवाज पहुँचाते हुए कहता हैं ।
“बेटा मुझे पोतोंके साथ खिची हुई हमारी तस्वीर तो दो ।”
क्यों चाहिएँ आपको? वृद्धाश्रम की दिवालों में उसको टाँगने के लिए जगह नही है । आपको मिलने के लिए पोता–पोतियाँ आते रहेगें ना ।”
अब मेरी तस्वीर टांगने के लिए कोई दिवाल नहीं हैं । अब मुझे किसी तस्वीर की जरुरत नहीं है । मैं गाडी में बैठते हुए बेटा को अन्तिम बार पुछता हुँ,” सच्ची में मुझसे मिलने मेरा पोता वहाँ आएगा ना ।