ब्लैकबोर्ड, चाक और डस्टर
लिखना, मिटाना, चाक की धूल में डूब जाना।
ब्लैकबोर्ड पर लिखते-लिखते उंगलियाँ खुद चाक बन जाती हैं।
बर्फ़ की तरह चाक की धूल बालों पर जम जाती है।
चैत्र की आँधी से उड़ती धूल की तरह वह चेहरे पर चिपक जाती है।
चाक की धूल से ढके चेहरे में सिर्फ़ दो आँखें होती हैं,
जो कक्षा भर घूमकर फिर ब्लैकबोर्ड पर टिक जाती हैं।
लिखे गए अक्षर मिट जाते हैं।
एक हाथ में डस्टर, दूसरे हाथ में चाक लिए
वह ऊँचे स्वर में पुकार रहा होता है,
और भी ऊँचे स्वर में, लगातार पुकार रहा होता है।
यह संसार है, हर किसी का एक छोटा संसार।
हर कोई अपने इस संसार को मधुर, सुंदर और भव्य बनाना चाहता है।
बर्फ़ पिघलती जाती है, पर हिमालय कभी खाली नहीं होता,
उसी तरह जीवन भी कल्पनाशून्य नहीं हो सकता।
बर्फ़ का पानी होना ही पड़ता है।
जीवन की सुंदरता है स्मृति,
और स्मृति सदा जीवित रहती है।
वह मनुष्य सबसे महान है
जिसे सबसे अधिक लोग याद करते हैं।
ब्लैकबोर्ड पर लिखे सुंदर अक्षर मिटा दिए जाते हैं।
कौन सोच सकता है—कुछ देर पहले वहाँ सुंदर अक्षर थे!
चाक भी जीवन की तरह है,
पूरा चाक चेतना में जीवित अर्थ को यथार्थ में बदलने के लिए
ब्लैकबोर्ड पर घिसते-घिसते छोटा होता जाता है।
जब वह इतना छोटा हो जाता है कि लिखना कठिन हो,
तो उसे दया भरी निगाहों से देखा जाता है,
जैसे कोई अधूरा सिगरेट का ठुटा,
जिसे मजबूरी में फेंकना ही पड़ता है।
वह चाक का टुकड़ा फेंक देता है,
पर उसे लगता है मानो वह स्वयं भी
उस चाक के टुकड़े की तरह फेंका गया हो।
वह अपने जीवन की तुलना चाक से करता है—
उसे कुछ समानताएँ मिलती हैं।
चाक का उद्देश्य पूरा हो चुका है,
पर उसका अपना उद्देश्य क्या है—वह समझ नहीं पाता।
भविष्य पर विश्वास रखने वाले विद्यार्थियों के चेहरों में
वह अपनी सृष्टि की छाया खोजता है।
वह ब्लैकबोर्ड पर खुद लिखे रेखाचित्रों को देखता है—
ब्लैकबोर्ड, चाक और डस्टर।
पर वह यह तय नहीं कर पाता कि
उसका अंत किस प्रयोजन के लिए हो रहा है।
कमरा, विद्यार्थी, खिड़की से दिखते हरे मैदान और वृक्ष
वह सब यूँ ही निहारता है,
मानो अपने ही विचारों में खो गया हो।
बगीचे में माली लगन से फूलों के पौधों की देखभाल कर रहा है।
फूल सबको प्रिय होते हैं,
पर फूलों से जुड़ा गरीब माली का श्रम और पसीना
उनकी सुंदरता में छिप जाता है।
अगर फूल की सुगंध में माली के पसीने की गंध आ जाए,
तो क्या लोग उन्हें उतना ही सुंदर मानेंगे?
कक्षा के एक कोने में विद्यार्थियों की धीमी बातचीत
उसे फिर से वास्तविकता में लौटा देती है।
कक्षा उसका संसार है—
और कहें तो उसका युद्धक्षेत्र।
उसके हथियार हैं—चाक, डस्टर, ब्लैकबोर्ड और आवाज़।
विद्यार्थियों की अज्ञानता उसका शत्रु है,
और उन्हें समझा पाना उसकी विजय।
वह फिर से पढ़ाना शुरू करता है।
पढ़ाते समय उसे लगता है—
वह नेता है, जो हजारों को अपने विचारों की ओर ले जा रहा है;
वह पिता है, जो बच्चों को ज्ञान के उपदेश दे रहा है;
वह अभिनेता है, जो रंगमंच पर खड़ा है।
उसे पूर्णता का अनुभव केवल तब होता है
जब वह कक्षा में खड़ा होता है।
उसके हाथ में चाक और डस्टर,
पीछे ब्लैकबोर्ड और सामने ध्यान से सुनते विद्यार्थी।
वह पीड़ाओं और अभावों से भरे वास्तविक संसार से
हजारों कोस दूर चला जाता है।
लिखना, मिटाना, चाक की धूल में डूब जाना।
ब्लैकबोर्ड पर लिखते-लिखते उंगलियाँ खुद चाक बन जाती हैं।
बर्फ़ की तरह चाक की धूल बालों पर जम जाती है।
चैत्र की आँधी से उड़ती धूल की तरह वह चेहरे पर चिपक जाती है।
चाक की धूल से ढके चेहरे में सिर्फ़ दो आँखें होती हैं,
जो कक्षा भर घूमकर फिर ब्लैकबोर्ड पर टिक जाती हैं।
लिखे गए अक्षर मिट जाते हैं।
एक हाथ में डस्टर, दूसरे हाथ में चाक लिए
वह ऊँचे स्वर में पुकार रहा होता है,
और भी ऊँचे स्वर में, लगातार पुकार रहा होता है।
यह संसार है, हर किसी का एक छोटा संसार।
हर कोई अपने इस संसार को मधुर, सुंदर और भव्य बनाना चाहता है।
बर्फ़ पिघलती जाती है, पर हिमालय कभी खाली नहीं होता,
उसी तरह जीवन भी कल्पनाशून्य नहीं हो सकता।
बर्फ़ का पानी होना ही पड़ता है।
जीवन की सुंदरता है स्मृति,
और स्मृति सदा जीवित रहती है।
वह मनुष्य सबसे महान है
जिसे सबसे अधिक लोग याद करते हैं।
ब्लैकबोर्ड पर लिखे सुंदर अक्षर मिटा दिए जाते हैं।
कौन सोच सकता है—कुछ देर पहले वहाँ सुंदर अक्षर थे!
चाक भी जीवन की तरह है,
पूरा चाक चेतना में जीवित अर्थ को यथार्थ में बदलने के लिए
ब्लैकबोर्ड पर घिसते-घिसते छोटा होता जाता है।
जब वह इतना छोटा हो जाता है कि लिखना कठिन हो,
तो उसे दया भरी निगाहों से देखा जाता है,
जैसे कोई अधूरा सिगरेट का ठुटा,
जिसे मजबूरी में फेंकना ही पड़ता है।
वह चाक का टुकड़ा फेंक देता है,
पर उसे लगता है मानो वह स्वयं भी
उस चाक के टुकड़े की तरह फेंका गया हो।
वह अपने जीवन की तुलना चाक से करता है—
उसे कुछ समानताएँ मिलती हैं।
चाक का उद्देश्य पूरा हो चुका है,
पर उसका अपना उद्देश्य क्या है—वह समझ नहीं पाता।
भविष्य पर विश्वास रखने वाले विद्यार्थियों के चेहरों में
वह अपनी सृष्टि की छाया खोजता है।
वह ब्लैकबोर्ड पर खुद लिखे रेखाचित्रों को देखता है—
ब्लैकबोर्ड, चाक और डस्टर।
पर वह यह तय नहीं कर पाता कि
उसका अंत किस प्रयोजन के लिए हो रहा है।
कमरा, विद्यार्थी, खिड़की से दिखते हरे मैदान और वृक्ष
वह सब यूँ ही निहारता है,
मानो अपने ही विचारों में खो गया हो।
बगीचे में माली लगन से फूलों के पौधों की देखभाल कर रहा है।
फूल सबको प्रिय होते हैं,
पर फूलों से जुड़ा गरीब माली का श्रम और पसीना
उनकी सुंदरता में छिप जाता है।
अगर फूल की सुगंध में माली के पसीने की गंध आ जाए,
तो क्या लोग उन्हें उतना ही सुंदर मानेंगे?
कक्षा के एक कोने में विद्यार्थियों की धीमी बातचीत
उसे फिर से वास्तविकता में लौटा देती है।
कक्षा उसका संसार है—
और कहें तो उसका युद्धक्षेत्र।
उसके हथियार हैं—चाक, डस्टर, ब्लैकबोर्ड और आवाज़।
विद्यार्थियों की अज्ञानता उसका शत्रु है,
और उन्हें समझा पाना उसकी विजय।
वह फिर से पढ़ाना शुरू करता है।
पढ़ाते समय उसे लगता है—
वह नेता है, जो हजारों को अपने विचारों की ओर ले जा रहा है;
वह पिता है, जो बच्चों को ज्ञान के उपदेश दे रहा है;
वह अभिनेता है, जो रंगमंच पर खड़ा है।
उसे पूर्णता का अनुभव केवल तब होता है
जब वह कक्षा में खड़ा होता है।
उसके हाथ में चाक और डस्टर,
पीछे ब्लैकबोर्ड और सामने ध्यान से सुनते विद्यार्थी।
वह पीड़ाओं और अभावों से भरे वास्तविक संसार से
हजारों कोस दूर चला जाता है।
“मुझे सरला की तरह फ्रॉक चाहिए, पापा।“मुझे नीली पैंट।”
“वो डॉक्टर ने जो दवा लिखी थी, उसे लाना मत भूलना।”
फ्रॉक, पैंट, दवा—अनगिनत ज़रूरतें।
सीमित और निश्चित वेतन, और इस भौतिकवादी संसार में
हर चीज़ को ठोस रूप दे पाना आवश्यक।
वह अपने परिवार से प्रेम करता है,
और उस प्रेम को फ्रॉक और पैंट में बदल पाना ज़रूरी है।
घर लौटने पर बीमार पत्नी खाँसते-खाँसते सो रही होती है।
दवा न मिलने पर चाय बनाने का सवाल ही नहीं उठता।
बूढ़ा पिता तम्बाकू न लाने पर गुस्से से भरा बैठा होता है।
बच्चों की बातें तो अलग ही हैं।
शिक्षक का बेटा पढ़ ही नहीं पाएगा क्या?
जानकर भी अनजान बनने का,
समझकर भी न समझने का नाटक करना पड़ेगा—
यही उसका वास्तविक संसार है।
ब्लैकबोर्ड पर बने चित्र को डस्टर से मिटा दिया जाता है।
वह फिर से लिख सकता है, फिर मिटा सकता है।
पर अपने माथे पर लिखे भाग्य को मिटा नहीं सकता।
कक्षा में वह चारों ओर विद्यार्थियों को देखता है—
मानो अपना खोया अस्तित्व खोज रहा हो।
कोई विद्यार्थी नोट्स लिखने में तल्लीन है,
तो कोई खिड़की से बाहर जाती युवतियों को देख रहा है।
सबका ध्यान आकर्षित करने के लिए वह और ज़ोर से चिल्लाता है।
चिल्लाना उसकी आदत बन चुकी है—
बड़बड़ाना, बेमतलब बोलते जाना।
वह ऐसे बड़बड़ाता है जैसे कोई पागल।
मानो झरने की तरह बोल रहा हो,
पर खुद ही अपनी बातें न समझ पा रहा हो।
पूरी कक्षा में हँसी का फव्वारा फूट पड़ता है।
वह स्वयं को मसखरा महसूस करता है।
सतर्क हो जाता है—कहीं सचमुच पागल तो नहीं?
वह अपने विषय को स्पष्ट करने के लिए
उदाहरणों का सहारा लेता है,
समझाता है, चिल्लाता है।
आवाज़ के उच्चतम स्तर तक पहुँचकर
उसे लगता है कि वह और बाजार में विज्ञापन करने वाले में कोई अंतर नहीं—
बस फर्क इतना है कि वह कमरे के भीतर चिल्ला रहा है,
और दूसरा बीच बाजार में।
बूढ़े शरीर में चिल्लाने से
शायद रक्त का संचार बढ़ जाता है,
और वह खुद को फिर जवान महसूस करता है।
उसे अपने विद्यार्थी जीवन की याद आ जाती है।
उसके सहपाठी कोई मंत्री बन गए,
कोई डॉक्टर, कोई उच्च अधिकारी।
और वह अब भी विद्यार्थियों के बीच
विद्यार्थी-सा ही दुखी है।
यहाँ तक कि उसके पढ़ाए हुए विद्यार्थी भी
आज बड़े अधिकारी बन चुके हैं,
बहुमंज़िला मकानों के मालिक हो चुके हैं।
पर उसकी हालत वैसी ही बनी हुई है।
आज उसे अपने विद्यार्थी जीवन की आकांक्षाएँ याद आती हैं—
कितनी ऊँची-ऊँची थीं उसकी इच्छाएँ!
दिल अचानक कसक उठता है,
पर अब तो दिल की बीमारी हो ही चुकी है,
इसलिए दिल का दुखना उसे साधारण लगता है।
खिड़की से बाहर देखता है—
आसमान बादलों से ढका हुआ है,
बारिश होने की संभावना है।
वह अपनी पूरी बुद्धि और तर्कशक्ति लगाकर
अपने विषय को स्पष्ट करने की कोशिश करता है।
अगर वह उसे समझा न पाया,
तो विद्यार्थी कभी भी नहीं समझ पाएँगे,
या समझने का अवसर ही नहीं मिलेगा।
पूरी कक्षा का भविष्य
उसकी मेहनत पर निर्भर करता है।
वह उनका भविष्य बना रहा है,
ज्ञान की राह पर उन्हें आगे बढ़ाते हुए।
उसे मालूम है—
विद्यार्थियों को समझा पाना ही उसका असली सार है,
वरना उसकी समझने की शक्ति का
कोई महत्व नहीं।
वह चिल्लाता ही जाता है,
उसकी गर्दन की नसें फूल जाती हैं।
घंटी बजती है।
हमेशा की तरह चाक और हाजिरी रजिस्टर हाथ में दबाकर
वह कक्षा से बाहर निकलता है।
उसे महसूस होता है—गला सूख गया है।
वह पानी पीता है।
कुछ पुराने किताबें बगल में दबाए
तेज़ी से घर की ओर निकल पड़ता है।
बारिश होने की आशंका है,
इसलिए सभी लोग तेज़-तेज़ चल रहे हैं।
लेकिन जैसे ही लोग उसे देखते हैं,
सड़क पर लोग मुस्कुराते हैं।
वह अपने शरीर को देखता है—
क्या कोई खराबी है?
कोट और जूतों पर चाक की सफ़ेद धूल जमी हुई है।
झाड़ने से भी कहाँ उतरती है चाक की धूल!
उसे याद आता है—
फ्रॉक, पैंट और दवा।
जेब टटोलता है—खाली।
उसे खाली हाथ ही लौटना होगा,
और वह खाली लौट आता है।
उसे लगता है—
लोग अब भी उसे देखकर हँस रहे हैं।
मानो वह ब्लैकबोर्ड पर रंग-बिरंगे चाक से बना
कोई हास्यास्पद कार्टून हो।
या मानो वह स्वयं एक ब्लैकबोर्ड हो,
जिस पर ढेर सारे व्यंग्यचित्र बनाए गए हों,
जिन्हें देखकर हर कोई हँसता हो।
हाँ—वह ब्लैकबोर्ड है,
चाक और डस्टर है।
लोगों की कठोर निगाहों से बचने के लिए
वह और तेज़ी से कदम बढ़ा देता है।
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